संजय पराते
◆ पहले क्रिस डेविस वापस हुए। उनकी शर्त थी कि उन्हें कश्मीर में मीडिया के साथ स्वतंत्र रूप से घूमने-फिरने दिया जाए, आम कश्मीरियों से बातचीत करने की आजादी दी जाए और हां, बिना सुरक्षा बल और पुलिस के! शायद यह सोचकर उन्होंने यह शर्त रखी होगी कि इससे मोदी सरकार के कश्मीर में ॐ शांति शांति के दावे पर ठप्पा लगाने में उन्हें मदद मिलेगी। लेकिन इस शर्त के बाद उनको दिया गया निमंत्रण पत्र ही वापस ले लिया गया।
◆ इसके बाद उन्होंने भी निमंत्रण पत्र की प्रति के साथ मीडिया में एक बयान जारी कर कह दिया कि – उन्हे मोदी सरकार के पीआर स्टंट का हिस्सा नहीं बनना ! इस बयान ने पूरे किए-धरे पर पानी फेर दिया। साफ हो गया कि यूरोपीय संसद के गुमनाम दक्षिणपंथी पार्टियों के उन सांसदों का, जिनकी अपने देश में ही कोई वक़त नहीं है, उनका कश्मीर में यह दौरा सरकार किसलिए करवा रही है! फिर भारत आये 27 सांसदों में से चार दिल्ली से ही लौट गए।
क्यों लौटे ? – सरकार के पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं है।
विदेशी सांसदों के कश्मीर दौरे से जुड़ी अहम बातें
इन सांसदों ने बुलेट प्रूफ़ गाड़ी से दौरा किया जिनके साथ सुरक्षा बलों का एक दल था. इन्हें श्रीनगर एयरपोर्ट से सेना श्रीनगर के एक होटल लेकर गई थी. ज़्यादातर सांसदों की पार्टी दक्षिणपंथी विचारधारा वाली है. ये सभी निजी हैसियत से कश्मीर दौरे पर आए हैं.
इन सांसदों की मुलाक़ात जम्मू-कश्मीर के मुख्य सचिव बीवीआर सुब्रमण्यम और पुलिस प्रमुख दिलबाग सिंह से भी हुई. इसके अलावा ये हाल ही में चुने गए पंचायत प्रमुखों से भी मिले. कहा जा रहा है कि इन सांसदों की मुलाक़ात प्रमुख सिविल सोसाइटी से नहीं हुई. बीबीसी संवाददाता रियाज़ मसरूर का कहना है कि सांसदों के इस दल ने स्थानीय लोगों से मुलाक़ात नहीं की और सेना के साथ कुछ स्थानों पर गए.
इन सांसदों के दौरा डल झील में भ्रमण के साथ ख़त्म हुआ. डल झील कश्मीर का बहुत ही लोकप्रिय ठिकाना है. समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार बोटिंग के ज़रिए ये सांसद सेंटॉर होटल के क़रीब से गुजरे जहां 30 से ज़्यादा नेताओं और एक्टिविस्टों को बंद करके रखा गया है.
यूरोपियन पार्लियामेंट के सदस्य क्रिस डेविस को भी इस दल के साथ आना था लेकिन उनका दावा है कि उन्हें दिया गया न्योता बाद में वापस ले लिया गया और उन्हें पैनल में जगह नहीं दी गई. उत्तर पश्चिम इंग्लैंड का प्रतिनिधित्व करने वाले डेविस के मुताबिक़ इस दौरे के लिए उन्होंने भारतीय प्रशासन के सामने एक शर्त रखी थी. वो शर्त ये थी कि कश्मीर में उन्हें ‘घूमने-फिरने और लोगों से बातचीत करने की आज़ादी दी जाए’.
डेविस ने बीबीसी से ख़ास बातचीत में कहा, “मैंने कहा कि मैं कश्मीर में इस बात की आज़ादी चाहता हूं कि जहां मैं जाना चाहूं जा सकूं और जिससे बात करना चाहूं, उससे बातचीत कर सकूं. मेरे साथ सेना, पुलिस या सुरक्षा बल की जगह स्वतंत्र पत्रकार और टेलीविजन का दल हो. आधुनिक समाज में प्रेस की स्वतंत्रता बेहद अहम है. किसी भी परिस्थिति में हम समाचारों में कांट छांट की इजाज़त नहीं दे सकते हैं. जो कुछ हो रहा है उसके बारे में सचाई और ईमानदारी से रिपोर्टिंग होनी चाहिए.”
इससे पहले भारत ने अमरीकी सीनेटर क्रिस वान हॉलेन के कश्मीर जाने के अनुरोध को ठुकरा दिया था. विपक्षी पार्टी कांग्रेस और सीपीएम ने कहा है कि भारतीय नेताओं और सांसदों पर कश्मीर जाने को लेकर सरकार ने पाबंदी लगा रखी है और विदेशी सांसदों को जाने दे रही है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ट्वीट कर पूछा था, ”यूरोप के सांसदों का जम्मू-कश्मीर में एक निर्देशित दौरे का स्वागत किया जा रहा है जबकि भारतीय सांसदों के जाने पर पाबंदी लगी है.”
◆ अब यह साफ है कि न तो ये यूरोपीय संसद का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं, न ही भारत सरकार के बुलावे पर आयोजित इनकी यह कोई सरकारी यात्रा है। लेकिन इन्हें मोदी महाराज की पूरी जानकारी में भाड़े पर एक अज्ञात एनजीओ ने, जिसकी कर्ता-धर्ता मादी शर्मा नामक एक महिला है, ने बुलाया है। उसी ने अपने निमंत्रण में लिखा है कि उनका खर्चा International Institute for Non-Aligned Studies नामक एक अन्य संस्था उठाएगी। गुटनिरपेक्ष आंदोलन में भारत का दखल और प्रभाव कब का खत्म हो गया है और संघ-निर्देशित यह सरकार तो गुटनिरपेक्षता के खिलाफ तनकर खड़ी है। लेकिन मजे की बात यह है कि मोदी राज में भी गुटनिरपेक्षता के नाम पर यह संस्था धड़ल्ले से चल रही है — भले ही कागजों में हो, और करोड़ों की फंडिंग प्राप्त कर रही है ! दिल्ली में सफदरजंग स्थित इस संस्था के दरवाजे पर आज ताला लटका मिला। साफ है कि इस गैर-सरकारी प्रतिनिधिमंडल का पूरा खर्चा अपना चेहरा चमकाने के लिए यह सरकार ही उठा रही है। देश के भोले-भाले लोगों को यह समझ लेना चाहिए कि आर्थिक मंदी में फंसे होने के बावजूद हमारी सरकार देश के खजाने में जमा हमारे टैक्स को कहाँ खर्च कर रही है।
◆ भारत की राजनीति और सरकार में इस तरह के दलालों की कितनी घुसपैठ हो गई है, यह इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है। भारत के घरेलू मामलों और विदेश नीति जैसे नीतिगत विषयों में भी वह दखल दे रही है और स्वयं प्रधानमंत्री इस दखलंदाजी में शामिल हो रहा है। इस दखलंदाजी में शामिल होते हुए न उसे कोई शर्म आई, न उसे अपने पद की गरिमा का अहसास रहा, न देश के संप्रभु संविधान की रक्षा का उसे कोई ख़याल आया और न ही कश्मीर समस्या के अंतर्राष्ट्रीयकरण होने के खतरे की उसे कोई चिंता हुई। अब यह सरकार भाड़े पर चलने/चलाने वालों की ही सरकार बनकर रह गई है, जो येन-केन प्रकारेण अपने कुकर्मों के औचित्य के लिए अंतर्राष्ट्रीय समर्थन बटोरना चाहती है।
◆ कल ही संयुक्त राष्ट्रसंघ के जिनेवा स्थित मानवाधिकार आयोग के आयुक्त ने एक बयान जारी कर यह साफ कर दिया है कि वह कश्मीर मामले में मोदी सरकार के दावों के साथ सहमत नहीं है। वापस लौटकर जब यही यूरोपीय सांसद, पत्रकार वार्ता को संबोधित कर रहे होंगे, तो मोदी सरकार का बचाव करना उन्हें हास्यास्पद ही बनाएगा।
क्या भाड़े पर लाये गए इन विदेशी जोकरों को यह संघी सरकार संयुक्त राष्ट्रसंघ से बड़ा मानती है ?