देहरादून। देश के आखिरी गांव माणा से लेकर कार्बेट नेशनल पार्क के प्रवेशद्वार रामनगर तक पांच जिलों पौड़ी, चमोली, रुद्रप्रयाग (संपूर्ण) और टिहरी के दो विस क्षेत्रों व नैनीताल के एक विस क्षेत्र में पसरी लोकसभा की पौड़ी गढ़वाल सीट के समर में दिलचस्प तस्वीर उभरकर सामने आ रही है। शय्या 

1952 से लेकर अब तक आठ बार कांग्रेस और छह बार भाजपा की झोली में रही इस सीट पर एक बार फिर भाजपा और कांग्रेस ही मुख्य मुकाबले में दिख रहे हैं। रोचक यह कि दोनों ही दलों ने पूर्व मुख्यमंत्री और इस सीट से मौजूदा सांसद मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूड़ी (सेनि) की सियासी विरासत कब्जाने को दांव खेला है। भाजपा ने राष्ट्रीय सचिव तीरथ सिंह रावत को मैदान में उतारा है, जो खंडूड़ी के सबसे करीबियों में शामिल हैं तो कांग्रेस ने भी खंडूड़ी के पुत्र मनीष खंडूड़ी को प्रत्याशी बनाया है। दोनों ही प्रत्याशी जनरल खंडूड़ी का आशीर्वाद खुद के साथ होने का दावा कर रहे हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में सीट की जंग रोचक रहने के आसार हैं। 
भाजपा के सामने सीट को बरकरार रखने की चुनौती है तो कांग्रेस की नजर खंडूड़ी की विरासत पर कब्जा कर जीत हासिल करने की। हालांकि, इस सीट पर सात अन्य प्रत्याशी भी मैदान में हैं, मगर वे मुकाबले को त्रिकोणात्मक बनाते फिलवक्त नजर नहीं आ रहे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो भाजपा का चेहरा हैं ही, केंद्र एवं राज्य सरकारों की उपलब्धियों के साथ ही मजबूत सांगठनिक ढांचा भाजपा की ताकत है। यही नहीं, पार्टी प्रत्याशी पूर्व सीएम खंडूड़ी के बेहद करीबी रहे हैं और पिछले चार चुनावों में उनके रणनीतिकार रहे। ऐसे में उन्हें इसका लाभ भी मिल सकता है। यही नहीं, लंबा राजनीतिक अनुभव होने के साथ ही वह क्षेत्र में लगातार सक्रिय रहे हैं।  केंद्र और राज्य में भाजपा की सरकारें होने के कारण दोहरी एंटी इनकमबेंसी का सामना उसे करना पड़ सकता है। इसके साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी का खराब स्वास्थ्य भी पार्टी के लिए चिंता की वजह बन सकता है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के नजदीकी के बूते ही कांग्रेस प्रत्याशी टिकट पाने में सफल रहे थे। इसके साथ ही कांग्रेस प्रत्याशी मनीष अपने पिता पूर्व मुख्यमंत्री खंडूड़ी की केंद्र सरकार में कथित उपेक्षा का आरोप लगाकर उनकी सियासी विरासत हासिल करने की कोशिश करेंगे।
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16 मार्च को कांग्रेस में शामिल हुए कांग्रेस प्रत्याशी की यह पहली सियासी पारी है। कांग्रेस के इस नए सूरमा के सामने धड़ों में बंटी कांग्रेस के दिग्गजों को साधे रखना उनके लिए बड़ी चुनौती है।   
सामाजिक ताने-बाने को देखें तो इस सीट पर लगभग 46 फीसद राजपूत, 26 फीसद ब्राह्मण, 12 फीसद एससी-एसटी, पांच फीसद वैश्य, आठ फीसद अल्पसंख्यक और तीन फीसद सिख हैं। बड़ी बात ये कि कई मर्तबा सियासतदां ने यहां के सामाजिक ताने-बाने का सियासी लाभ उठाने की कोशिशें की, मगर इस क्षेत्र के जागरूक मतदाताओं ने कभी उनकी कोशिशों को सफल नहीं होने दिया। 1952 में गढ़वाल संसदीय सीट पर पहला लोकसभा चुनाव हुआ। तब से आज तक आठ बार यह सीट कांग्रेस के पास रही, जबकि छह बार भाजपा ने जीत दर्ज की। 1984 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीते चंद्रमोहन सिंह नेगी ने 1989 का चुनाव जनता दल के टिकट पर जीता था।  1982 का वह दौर, जब कांग्रेस से सांसद चुने गए हिमालय पुत्र हेमवती नंदन बहुगुणा ने कांग्रेस के साथ ही संसद की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था। इसके बाद इस सीट पर हुए उपचुनाव में इंदिरा गांधी ने चंद्रमोहन सिंह नेगी को मैदान में उतारा। चेहरा भले ही नेगी का था, मगर चुनाव जीतने को इंदिरा गांधी ने पूरी ताकत झोंक दी, मगर कोई फायदा नहीं हुआ और बहुगुणा चुनाव जीत गए। 1952 से 1971 तक लगातार यहां सांसद रहे डॉ.भक्तदर्शन सिंह ने यह कहते हुए चुनाव लडऩे से इन्कार कर दिया था कि अब नए चेहरे को मौका मिलाना चाहिए। नेहरू कैबिनेट में शिक्षा मंत्री रहे डॉ. भक्तदर्शन के इन्कार के बाद इंदिरा गांधी ने उनसे विमर्श के बाद प्रताप सिंह नेगी को मैदान में उतारा।