विभिन्न प्रकार के पशु-पक्षी तथा वनस्पति एक-दूसरे की जरूरतों को पूरा करते हैं, जिनका जीवन एक-दूसरे पर ही निर्भर रहता है। सही मायनों में जैव विविधता की समृद्धि ही धरती को रहने तथा जीवनयापन के योग्य बनाती है किन्तु विड़म्बना है कि निरन्तर बढ़ता प्रदूषण रूपी राक्षस वातावरण पर इतना खतरनाक प्रभाव डाल रहा है कि जीव-जंतुओं और वनस्पतियों की अनेक प्रजातियां धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। पृथ्वी पर मौजूद जंतुओं और पौधों के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए तथा जैव विविधता के मुद्दों के बारे में लोगों में जागरूकता और समझ बढ़ाने के लिए प्रतिवर्ष 22 मई को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस मनाया जाता है। 20 दिसम्बर 2000 को संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा प्रस्ताव पारित करके इसे मनाने की शुरुआत की गई थी। इस प्रस्ताव पर 193 देशों द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे।

दरअसल 22 मई 1992 को नैरोबी एक्ट में जैव विविधता पर अभिसमय के पाठ को स्वीकार किया गया था, इसीलिए यह दिवस मनाने के लिए 22 मई का दिन ही निर्धारित किया गया।जैव विविधता से आशय जीवधारियों (पादप एवं जीवों) की विविधता से है, जो दुनियाभर में हर क्षेत्र, देश, महाद्वीप पर होती है। भारत में कुछ जीव-जंतुओं की प्रजातियों पर मंडराते खतरों की बात करें तो जैव विविधता पर दिसम्बर 2018 में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (सीबीडी) में पेश की गई छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट से पता चला था कि अंतर्राष्ट्रीय ‘रेड लिस्ट’ की गंभीर रूप से लुप्तप्रायः और संकटग्रस्त श्रेणियों में भारतीय जीव प्रजातियों की सूची वर्षों से बढ़ रही है। प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक में बताया गया है कि इस सूची में शामिल प्रजातियों की संख्या में वृद्धि जैव विविधता तथा वन्य आवासों पर गंभीर तनाव का संकेत है। पुस्तक के अनुसार 2009 में पेश की गई चतुर्थ राष्ट्रीय रिपोर्ट में उस समय ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ (आईयूसीएन) की विभिन्न श्रेणियों में गंभीर रूप से लुप्तप्रायः और संकटग्रस्त श्रेणियों में भारत की 413 जीव प्रजातियों के नाम थे किन्तु 2014 में पेश पांचवीं राष्ट्रीय रिपोर्ट में इन प्रजातियों की संख्या का आंकड़ा बढ़कर 646 और छठी राष्ट्रीय रिपोर्ट में 683 हो गया। देश में इस समय नौ सौ से भी अधिक दुर्लभ प्रजातियां खतरे में बताई जा रही हैं। यही नहीं, विश्व धरोहर को गंवाने वाले देशों की सूची में दुनियाभर में भारत का चीन के बाद सातवां स्थान है।

हांगलू

भारत का समुद्री पारिस्थितिकीय तंत्र करीब 20444 जीव प्रजातियों के समुदाय की मेजबानी करता है, जिनमें से 1180 प्रजातियों को संकटग्रस्त तथा तत्काल संरक्षण के लिए सूचीबद्ध किया गया है। अगर देश में प्रमुख रूप से लुप्त होती कुछेक जीव-जंतुओं की प्रजातियों की बात करें तो कश्मीर में पाए जाने वाले हांगलू की संख्या सिर्फ दो सौ के आसपास रह गई है, जिनमें से करीब 110 दाचीगाम नेशनल पार्क में हैं। इसी प्रकार आमतौर पर दलदली क्षेत्रों में पाई जाने वाली बारहसिंगा हिरण की प्रजाति अब मध्य भारत के कुछ वनों तक ही सीमित रह गई है। वर्ष 1987 के बाद से मालाबार गंधबिलाव नहीं देखा गया है। हालांकि माना जाता है कि इनकी संख्या पश्चिमी घाट में फिलहाल दो सौ के करीब बची है।

महाशीर

दक्षिण अंडमान के माउंट हैरियट में पाया जाने वाला दुनिया का सबसे छोटा स्तनपायी सफेद दांत वाला छछूंदर लुप्त होने के कगार पर है। एशियाई शेर भी गुजरात के गिर वनों तक ही सीमित हैं। कुछ समय पूर्व उत्तराखण्ड से भी चौंकाने वाली रिपोर्ट सामने आई थी, जिसमें बताया गया था कि उत्तराखण्ड की नदियों तथा अन्य जलस्रोतों में मिलने वाली महाशीर, रौला, स्नो ट्राउट, रेनबो ट्राउट, पत्थर चट्टा, असेला, गारा, गूंज, बरेलियस इत्यादि मछलियों की करीब 258 प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में हैं और इसका प्रमुख कारण नदियों के आसपास अवैध खनन के चलते पारिस्थितिकीय तंत्र का बिगड़ना है, जिसका यहां मिलने वाली मछलियों की तमाम प्रजातियों पर इस कदर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है कि जिन नदियों में प्रायः 50 से 100 किलो तक वजनी महाशीर जैसी मछलियां बहुतायत में मिलती थी, वहीं अब 5-10 किलो वजनी मछलियां ढूंढ़ना भी मुश्किल होता जा रहा है।

अवैध खनन

दरअसल, इन क्षेत्रों में अवैध खनन, लगातार निर्माण कार्यों, भू-स्खलन और गलत तरीकों से शिकार के कारण मछलियों के भोजन के स्रोत और उनके पलने-बढ़ने की परिस्थितियां प्रभावित हुई हैं। विशेषज्ञों के अनुसार ऐसे क्षेत्रों में मछलियों के छिपने और प्रजनन की परिस्थितियां प्रतिकूल होती जा रही हैं, जिसका सीधा असर मछलियों की इन तमाम प्रजातियों के अस्तित्व पर पड़ रहा है। भू-स्खलन के कारण नदियों में गाद की मात्रा बहुत बढ़ गई है, जो मछलियों के छिपने और उनके खाने की जगहों को बर्बाद कर रही है। इसके अलावा नदियों में जमा होते कचरे के कारण भी मछलियों का भोजन खत्म हो रहा है।


देश में हर साल बड़ी संख्या में बाघ मर रहे हैं, हाथी कई बार ट्रेनों से टकराकर मौत के मुंह में समा जाते हैं, इनमें से कईयों को वन्य तस्कर मार डालते हैं। कभी गांवों या शहरों में बाघ घुस आता है तो कभी तेंदुआ और घंटों-घंटों या कई-कई दिनों तक दहशत का माहौल बन जाता है।
यह सब वन क्षेत्रों के घटने और विकास परियोजनाओं के चलते वन्य जीवों के आश्रय स्थलों में बढ़ती मानवीय घुसपैठ का ही परिणाम है कि वन्य जीवों तथा मनुष्यों का टकराव लगातार बढ़ रहा है और वन्य प्राणी अभयारण्यों की सीमा पार कर बाघ, तेंदुए इत्यादि वन्य जीव अब अक्सर बेघर होकर भोजन की तलाश में शहरों का रूख करने लगे हैं, जो कभी खेतों में लहलहाती फसलों को तहस-नहस कर देते हैं तो कभी इंसानों पर जानलेवा हमले कर देते हैं।

“प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के अनुसार देश के जलक्षेत्र में भी 13 हजार लुप्तप्रायः प्रजातियों की गणना की गई है, जिसका एक बड़ा कारण 8 हजार किलोमीटर तटरेखा के आसपास बंदरगाह तथा बिजलीघरों जैसी विकास परियोजनाएं मानी जा रही हैं। ‘इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर’ (आईयूसीएन) के मुताबिक भारत में पौधों की करीब 45 हजार प्रजातियां पाई जाती हैं और इनमें से भी 1336 प्रजातियों पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।

लुप्त होती प्रजातियां

इसी प्रकार फूलों की पाई जाने वाली 15 हजार प्रजातियों में से डेढ़ हजार प्रजातियां लुप्त होने के कगार पर हैं।पृथ्वी पर पेड़ों की संख्या घटने से अनेक जानवरों और पक्षियों से उनके आशियाने छिन रहे हैं, जिससे उनका जीवन संकट में पड़ रहा है। पर्यावरण विशेषज्ञों का स्पष्ट कहना है कि यदि इस ओर जल्दी ही ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में स्थितियां इतनी खतरनाक हो जाएंगी कि धरती से पेड़-पौधों तथा जीव-जंतुओं की कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएंगी। माना कि धरती पर मानव की बढ़ती जरूरतों और सुविधाओं की पूर्ति के लिए विकास आवश्यक है लेकिन यह हमें ही तय करना होगा कि विकास के इस दौर में पर्यावरण तथा जीव-जंतुओं के लिए खतरा उत्पन्न न हो।

विकास के नाम पर वनों की बड़े पैमाने पर कटाई के साथ-साथ जीव-जंतुओं तथा पक्षियों से उनके आवास छीने जाते रहे और कुछ प्रजातियां धीरे-धीरे धरती से एक-एक कर लुप्त होती गई तो भविष्य में उससे उत्पन्न होने वाली भयावह समस्याओं और खतरों का सामना हमें ही करना होगा। बढ़ती आबादी तथा जंगलों के तेजी से होते शहरीकरण ने मनुष्य को इतना स्वार्थी बना दिया है कि वह प्रकृति प्रदत्त उन साधनों के स्रोतों को भूल चुका है, जिनके बिना उसका जीवन ही असंभव है।


आज अगर खेतों में कीटों को मारकर खाने वाले चिडि़या, मोर, तीतर, बटेर, कौआ, बाज, गिद्ध जैसे किसानों के हितैषी माने जाने वाले पक्षी भी तेजी से लुप्त होने के कगार पर हैं तो हमें आसानी से समझ लेना चाहिए कि हम भयावह खतरे की ओर आगे बढ़ रहे हैं और हमें अब समय रहते सचेत हो जाना चाहिए। हमें अब भली-भांति समझ लेना होगा कि पृथ्वी पर जैव विविधता को बनाए रखने के लिए सबसे जरूरी और सबसे महत्वपूर्ण यही है कि हम धरती की पर्यावरण संबंधित स्थिति के तालमेल को बनाए रखें।इस धरती को बच्चों से उधार लिया गया है न कि यह पूर्वजों से विरासत में मिली है।

भारत के समक्ष अनिवार्य चुनौती निरंतर विकास के लिए जैव विविधता को आत्मसात करने की है। इसमें विशेष तौर पर वनों की सुरक्षा, संस्कृति, जीवन के कला शिल्प, संगीत, वस्त्र-भोजन, औषधीय पौधों का महत्व आदि को प्रदर्शित करके जैव-विविधता के महत्व एवं उसके न होने पर होने वाले खतरों के बारे में जागरूक करना है। मनुष्य यह भूल जाता है कि उसका विकास प्रकृति के सह-आस्तित्व पर निर्भर करता है। आज मनुष्य प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा के प्रति सजग अवश्य हुआ है, लेकिन पर्यावरण की रक्षा के प्रति उसकी रफ्तार बेहद धीमी है, जिसे उचित प्रारूप में गति देने की आवश्यकता है।

.ये लेखक के निजी विचार हैं

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )

#InternationalBiodiversityDay #UnitedNationsGeneralAssembly #pradushanmuktsansen #environment #Biodiversity #InternationalUnionforConservationofNature #IUCN