नैनीताल जिले के रामगढ़ स्थित गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कर्मस्थली और साहित्यिक हब के रूप में विकसित करने की घोषणाएं समय-समय पर होती रही हैं, मगर उन पर अमल अब तक नहीं हो सका है। रामगढ़ के जिस भवन में उन्होंने गीतांजलि के अंश लिखे। वह भवन रखरखाव के अभाव में धीरे-धीरे वह खंडहर हो गया है। काश! उसे सहेजने और संरक्षित करने का प्रयास किया गया होता तो साहित्य सृजन के अलावा पर्यटन का भी केंद्र बनता और भावी पीढ़ी को प्रेरणा भी मिलती। 

आज 7 मई के दिन ही भारत भूमि की सामाजिक, सांस्कृतिक उर्वरता के नायक रवीन्द्र नाथ टैगोर का जन्मदिवस है। वैसे तो गुरुदेव रवीन्द्र को याद करने और लिखने के लिए शब्दों और संदर्भों की कमी उन्होंने छोड़ी नही है लेकिन सबसे पहले उनकी उपमाओं की बात करते हैं। वे महान मानवतावादी, वैश्विक सद्भाव और समरसता के चिंतक , सृजक थे। तर्क , औचित्य और वैज्ञानिक संवेगों से भरे थे। उत्तराखंड हमेशा सामाजिक, राजनीतिक और साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र में रहा है. देवभूमि उत्तराखंड जिसका कण-कण ईश्‍वर की अनुभूति कराता है. 

रवीन्द्र नाथ टैगोर एक बांग्ला कवि, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार और चित्रकार थे। भारतीय संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ रूप से पश्चिमी देशों का परिचय और पश्चिमी देशों की संस्कृति से भारत का परिचय कराने में टैगोर की बड़ी भूमिका रही तथा आमतौर पर उन्हें आधुनिक भारत का असाधारण सृजनशील कलाकार माना जाता है। टैगोर के गीतांजलि (1910) समेत बांग्ला काव्य संग्रहालयों से ली गई कविताओं के अंग्रेज़ी गद्यानुवाद की इस पुस्तक की डब्ल्यू.बी.यीट्स और आंद्रे जीद ने प्रशंसा की और इसके लिए टैगोर को 1913 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। वे एक मात्र ऐसे भारतीय साहित्यकार थे जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला था। वह नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे

रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म का जन्‍म 7 मई सन 1861 को कोलकाता में हुआ था. वे ऐसे मानवतावादी विचारक थे, गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगोर का व्यक्तित्व अंतरराष्ट्रीय था। बंगाल के कुछ बेहद सम्पन्न लोगों में उनका परिवार आता था। उनके बड़े भाई सत्येंद्र नाथ टैगोर, देश के प्रथम हिंदुस्तानी आईसीएस थे। वे 1864 बैच के आईसीएस थे। अपने माता-पिता की आठ संतानों में एक टैगोर बांग्ला साहित्य और संगीत के शिखर पुरुषों में से एक थे। हम उन्हें उनके कविता संग्रह गीतांजलि पर मिले नोबेल पुरस्कार से अधिक जानते हैं पर टैगोर ने गोरा, नौका डूबी जैसे बेहद लोकप्रिय और खूबसूरत उपन्यास भी लिखे हैं। रवींद्र संगीत के नाम से बांग्ला का सबसे लोकप्रिय संगीत भी उन्हीं की यश गाथा तो बताता ही है इसके अलावा साहित्य, संगीत, कला और शिक्षा जैसे क्षेत्रों उनका योगदान अतुलनीय है। टैगोर जब 12 वर्ष के थे, तब उनका यज्ञोपवीत संस्कार हो गया था। इसी बीच वह अपने पिता के साथ हिमालय क्षेत्र की यात्रा पर गए थे। साथ ही पश्चिम बंगाल के ही बोलपुर भी गए। उनके पिता ने बोलपुर में ही जमीन खरीदकर आवास भी बनाया। उसका नाम शांतिनिकेतन रख दिया गया था। वर्ष 1903 ग्रीष्म ऋतु का समय था, 42 वर्षीय टैगोर क्षय रोग से ग्रस्त 11 वर्षीय बेटी रेणुका के साथ हिमालय की इन वादियों में पहुंचे थे। पहली यात्रा में गुरुदेव रामगढ़ में अप्रैल से अगस्त तक रहे थे। काठगोदाम से 40 किलोमीटर दूर भीमताल, भवाली, श्यामखेत, महेशखान होते हुए रामगढ़ में अंग्रेज मित्र डेनियल के घर पैदल ही पहुंचे थे। उन दिनों टैगेार पत्नी के निधन और बेटी के रोगग्रस्त होने से दुखी थे।

 मेरा माथा नत कर दो तुम, अपनी चरण धूलि-तल में, मेरा सारा अहंकार दो डुबो, चक्षुओं के जल में…

दुनिया में चर्चित यह खूबसूरत पंक्तियां महाकाव्य गीतांजलि की हैं, जिस रचना के लिए गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर को नोबल पुरस्कार से भी नवाजा गया था। दुनिया में प्रसिद्ध और प्रशंसनीय इस अद्भुत रचना गीतांजलि के कुछ अंश गुरुदेव टैगोर ने मानस खंड के रामगढ़ में भी लिखी थी। नैनीताल जिले में स्थित रामगढ़, जहां का प्राकृतिक सौंदर्य बरबस ही अपनी ओर आकर्षित कर लेता है।

टैगोर ने वर्ष 1903 के बाद नोबल पुरस्कार प्राप्त होने के बाद वर्ष 1914 और 1937 में रामगढ़ की यात्रा की थी। इस दौरान वह साहित्यिक नगरी अल्मोड़ा भी आते-जाते रहे। वह रामगढ़ की खूबसूरती से इतने अभिभूत हो गए थे कि उन्होंने अपने मित्र डेनियल से 40 एकड़ भूमि खरीद ली थी। उनका सपना इस जगह पर आश्रम बनाने का था। इसी स्थल पर उन्होंने विश्व भारती विश्वविद्यालय बनाने का स्वप्न भी देखा था। रामगढ़, जहां टैगोर का घर था। वह भूमि अब उद्यान विभाग के पास है। उनका घर खंडहर हो चुका है। इतने वर्षों में किसी ने उसे संरक्षित करने का प्रयास नहीं किया। इस जगह को फिर से संवारने में जुटे प्रो. जोशी बताते हैं, राज्य सरकार की ओर भूमि विश्वभारती विश्वविद्यालय शांतिनिकेतन के नाम किए जाने की प्रक्रिया अंतिम चरण में है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री रहे ने विश्वभारती का कैंपस बनाए जाने की घोषणा की थी। इसके लिए मुख्यमंत्री और केंद्रीय रक्षा व पर्यटन राज्य मंत्री जुटे हुए हैं। प्रो. जोशी का कहना है कि आधुनिक एवं पारंपरिक शिक्षा के लिए विख्यात विश्वभारती शांतिनिकेतन का कैंपस बनने से जहां गुरुदेव का सपना साकार हो सकेगा, वहीं यह जगह भी विश्वप्रसिद्ध हो जाएगी।  अविभाजित उत्तर प्रदेश में संस्कृति एवं धर्मस्व मंत्री रहते हुए टैगोर संग्रहालय और सुंदरीकरण के लिए 50 लाख की घोषणा की थी, लेकिन सरकारी लचर कार्यप्रणाली के काम आगे नहीं बढ़ सका था। बाद में उत्तराखंड के सीएम रहते हुए भी निशंक ने आठ अप्रैल 2011 को फिर संग्राहलय निर्माण की घोषणा की थी। डीएम से प्रस्ताव भेजने के निर्देश दिए थे। उत्तराखण्ड का दुर्भाग्य है कि गुरुदेव की इन यात्राओं से जुड़ी जगहों और वस्तुओं को सहेजा नहीं जा सका. आज भी रामगढ़ के टैगोर टॉप में वह बंगला खस्ताहाल हालत में मौजूद है जहाँ टैगोर रहे थे। जहाँ उन्होंने गीतांजलि का कुछ हिस्सा लिखा था।

रामगढ़ में महादेवी वर्मा की मीरा कुटीर

रामगढ़ को फल पट्टी के रूप में देश-दुनिया जानती है. रामगढ़ महादेवी वर्मा और गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर की कर्मभूमि भी है इसे विरले ही लोग जानते हैं. सरकारों ने इस विषय में कभी कोई दिलचस्पी नहीं ली.व्यक्तियों, समूहों के प्रयासों से पहले रामगढ़ को महादेवी वर्मा की कर्मभूमि के तौर पर स्थापित करने के सफल प्रयास हुए और अब इसे गुरुदेव टैगोर की कर्मभूमि के तौर पर सामने लाने के प्रयास रंग लाने लगे हैं. महान कवि रवींद्र नाथ टैगोर भी अल्मोड़ा आए थे. मई 1937 में कृषि वैज्ञानिक स्व. बोसी सेन के मेहमान बनकर वह यहां आए थे. यहां छावनी क्षेत्र में स्थित मार्क्स हाउस में रहकर टैगोर ने सेजुति, नवजातक, आकाश प्रदीप, द्दड़ार और विश्व परिचय जैसी प्रसिद्ध रचनाओं को लिखा था. टैगोर भवन में जिस सोफे पर बैठकर वह लिखते थे, वह आज भी यहां मौजूद है.रवींद्र नाथ टैगोर अल्मोड़ा में करीब दो महीने रहे थे. टैगोर भवन को पहले सेंट मार्क्स हाउस के नाम से जाना जाता था. 1961 में इसे टैगोर भवन नाम दिया गया. जिस जगह पर यह भवन स्थित है, वहां काफी शांत वातावरण होने के साथ हिमालय के दर्शन भी होते हैं.टैगोर भवन आज प्रशासन की उदासीनता के चलते गुमनामी की मार झेल रहा है. स्थानीय लोगों का कहना है कि पश्चिम बंगाल से आने वाले पर्यटक तो यहां आते हैं लेकिन जिस तरह का माहौल यहां होना चाहिए था, वह माहौल देखने को नहीं मिलता है. प्रचार-प्रसार के अभाव में यह ऐतिहासिक स्थल गुमनाम होता जा रहा है. महान कवि, कहानीकार, उपन्यासकार, गायक, गीतकार, संगीतकार, चित्रकार, प्रकृतिप्रेमी, पर्यावरणविद और मानवतावादी रवीन्द्रनाथ टैगोर पहले एशियाई व्यक्ति थे जिन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार मिला. उन्हें भारत व बांग्लादेश का राष्ट्रीय गान रचने के लिए भी जाना जाता है. गीतांजलि भवन के अवशेषों को न तो संरक्षित नहीं किया जा सका और न ही उसे स्मारक का रूप दिया जा सका। हालांकि करीब एक दशक तक उनका देवभूमि से अटूट नाता रहा। रामगढ़ में 1903 से लेकर 1913 तक वह तीन बार आए। उन्होंने शांति निकेतन की स्थापना का सपना देखा था, जो उनकी बिटिया की अकाल मौत की वजह से साकार नहीं हो सका।तंत्र की लापरवाही की वजह से टैगोर टॉप से आधा किमी की दूरी पर ‘रवींद्र संग्रहालय’ के नाम पर प्राइमरी स्कूल के भवन की तरह 15 साल पहले दो कमरों का जो ढांचा खड़ा किया गया, वह अब खंडहर में तब्दील हो चुका है। उसकी छत, चौखट आदि गायब हो चुके हैं, दीवारें जर्जर हो गई हैं। रही-सही कसर गर्मियों में जंगल में लगने वाली आग ने पूरी कर दी है। जीर्ण-शीर्ण भवन पर कालिख जम चुकी है। उत्तराखंड के साहित्यकार मुख्यमंत्री निशंक ने अपने मुख्य मंत्री रहते हुए रामगढ़ में टैगोर टॉप पहाड़ी पर विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर की स्मृति में संग्रहालय के निर्माण की घोषणा की तथा इसके लिए डीएम को शासन को प्रस्ताव भेजने के निर्देश दिए, लेकिन इसके बावजूद उस घोषणा और संबंधित शासनादेश पर अमल नहीं हो पाया है।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )

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