उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल के पारंपरिक खानपान में जितनी विविधता एवं विशिष्टता है, उतनी ही यहां के फल-फूलों में भी। खासकर जंगली फलों का तो यहां समृद्ध संसार है। यह फल कभी मुसाफिरों और चरवाहों की क्षुधा शांत किया करते थे, लेकिन धीरे-धीरे लोगों को इनका महत्व समझ में आया तो लोक जीवन का हिस्सा बन गए। औषधीय गुणों से भरपूर जंगली फलों का लाजवाब जायका हर किसी को इनका दीवाना बना देता है।
उत्तराखंड के एक मशहूर गीत भी हैं, बेड़ु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला। यानी बेड़ु हर महीने पकता है, लेकिन काफल चैत्र और बैशाख के महीने में ही पकता हैं। अप्रेल से लेकर जून तक काफल को लोग पहाड़ो से जंगल से लाकर सड़को के किनारे बेचते है, काफल शुरू में हरा होता है जबकि बाद में लाल, काला या फिर मटमैला हो जाता हैं। काफल लाल, काला या फिर मटमैला होने पर भी कुमाउँनी में गुमानी पंत ने एक कहानी लिखी हैं, उन्होंने लिखा है कि काफल फल स्वर्ग से धरती लोक में आया हैं जलवायु परिवर्तन का असर उत्तराखंड के जंगलों में दिखने लगा है। वन विभाग की अनुसंधान विंग द्वारा कुमाऊं मंडल के मुनस्यारी क्षेत्र में किया गया अध्ययन इसकी पुष्टि करता है। यहां के वनों में बुरांस (रोडोडेंड्रान आरबेरियम), काफल (माइरिका एसकुलेंटा), हिंसालू (रूबस इलिप्टिकस) व भेंकल (प्रिंसीपिया यूटिल्स) प्रजातियों में निर्धारित समय से दो-तीन माह पहले ही फूल खिल रहे हैं। यह भी संभावना जताई गई है कि इससे परागण की प्रक्रिया प्रभावित हो सकती है। मुख्य वन संरक्षक अनुसंधान वृत्त के अनुसार अब यह अध्ययन भी कराया जाएगा कि समय से पहले खिलने से फलों की गुणवत्ता में कोई अंतर तो नहीं आया है।
काफल का पौधा अधिकतर हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर पूर्वी राज्य मेघालय और पड़ो लगभग काफल विक्रेता का कहना है कि प्रतिदिन काफल फल के दाम अलग-अलग होते हैं। अभी तो काफल के दाम 300 रूपये से लेकर 500 रूपये प्रति किलो तक का है, जो कि कई महंगे फलों को चुनोती देता है। उत्तराखंड में आप इसे जंगलों से प्राप्त कर सकते हैं।देश नेपाल में पाया जाता है. इसको अंग्रेजी में बेबरी कहा जाता है. यह स्वाद में खट्टे मीठे मिश्रण के लिए होता है. इसके सहारे लोगों की आय का स्त्रोत भी पैदा होता है. काफल एक तरह से एक औषधीय फल होता है. यह एक जंगली फल है जो कि एंटी ऑक्सीडेंट गुणों के चलते हमारे शरीर के लिए बेहद ही फायदेमंद होता है, इसका फल अत्यंत रसयुक्त और पाचक होता है. फल के ऊपर विशेष प्रकार की मोम के पदार्थ की परत होती है. यह मोर्मिम मोम कहलाता है. इसको गर्मी में उबालकर पानी से अलग किया जा सकता है. यह मोम अल्सर की बीमारी में काफी सहायक होता है. कफल की छाल, अदरक, दालचीनी, अस्थमा, डायरिया, बुखार, पेचिस और फेफड़े ग्रस्त बीमारियों के लिए उपयोगी है. साथ ही इसके पेड़ की छाल का पाउडर जुकाम, आंख की बीमारी, खांसी, अस्थमा जैसे रोगों से मुक्ति मिल जाती है.इसके अलावा काफल दांत दर्द, कान दर्द के लिए इसका छाल काफी उपयोगी है. काफल के फूल का तेल कान के दर्द हेतु, डायरिया और लकवे की बीमारी के लिए काफी उपयोग में लाया जाता है. गर्मियों के मौसम में उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में फलों की बहार आ जाती है। पेड़ मौसमी फलों से लदना शुरू हो जाते हैं। काफल भी उन्हीं मौसमी फलों में से एक है।
स्वाद और औषधीय गुणों से युक्त काफल से जुड़ी एक मार्मिक कहानी भी है जिसे उत्तराखंड में खूब गुनगुनाया जाता है। कई साल पहले की बात है कि उत्तराखंड के एक गांव में महिला अपनी बेटी के साथ रहती थी। दोनों एक दूसरे का एक मात्र सहारा थी। मां खेतों में काम कर किसी तरह घर का खर्च चलाती थी। ऐसे में गर्मियों के मौसम में जब पेड़ काफल से लद जाते थे तो महिला काफलों को तोड़कर बाजार में बेचा करती थी। एक दिन जब वह जंगल से काफल तोड़कर लाई तो बेटी का मन काफल खाने का करने लगा। लेकिन मां ने उन्हें बेचने की बात कहकर उसे काफलों को छूने से भी मना कर दिया और काफलों की टोकरी बाहर आंगन में एक कोने में रख कर खेतों में काम करने चली गई और बेटी से काफलों का ध्यान रखने को कह गई। दिन में जब धूप ज्यादा चढ़ने लगी तो काफल धूप में सूख कर कम होने लगे। क्योंकि काफलों में पानी की मात्रा ज्यादा होती है जिससे वह धूप में सुख से जाते हैं और ठंड में फिर से फुल जाते है। मां जब घर पहुंची तो बेटी सोई हुई थी। मां थकान दूर करने के लिए बैठी तो उसे काफलों की याद आई। उसने आंगन में रखी काफलों की टोकरी देखी तो उसे काफल कम लगे। गर्मी में काम करके और भूख से परेशान वह पहले ही चिड़चिड़ी हुई बैठी थी कि काफल कम दिखने पर उसे और ज्यादा गुस्सा आ गया। उसने बेटी को उठाया और गुस्से में पूछा कि काफल कम कैसे हुए ? तूने खा दिए ना ? इस पर बेटी बोली – नहीं मां ! मैंने तो चखे भी नहीं। पर मां ने उसकी एक नहीं सुनी और उसने बेटी की पिटाई शुरू कर दी। बेटी रोते-रोते कहती गई कि मैंने नहीं चखे, पर मां ने उसकी एक नहीं सुनी। पिटाई से बेटी अधमरी सी हो गई और कुछ देर में उसकी मौत हो गई। धीरे धीरे जब मां का गुस्सा शांत हुआ तो उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। उसने बेटी को गोद में उठा कर माफी मांगनी चाही, उसे खूब सहलाया, सीने से लगाया लेकिन बेटी के प्राण जा चुके थे। मां तिलमिला उठी और उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। पश्चाताप में उसने अपने भी प्राण ले लिए।कहा जाता है कि वे दोनों मां-बेटी मरने के बाद पक्षी बन गए और जब भी पहाड़ों में काफल पकते हैं तो एक पक्षी बड़े करुण भाव से गाता है – काफल पाको मैंल नी चाखो (काफल पके हैं, पर मैंने नहीं चखे हैं) और तभी दूसरा पक्षी चीत्कार करता है – पुर पुतई पूर पूर (पूरे हैं बेटी पूरे हैं)। यही वजह है कि स्वादिष्ट फल काफल से जुड़ी लोगों को भावुक कर देती है। दंत कथाएं हमारे पूर्वजों की कल्पनाशीलता को दिखाती है। इस कहानी से सबक यही मिलता है कि बिना वजह किसी पर शक नहीं करना चाहिए और दूसरी बात यह कि गुस्सा नहीं करना चाहिए क्योंकि उससे नुकसान भी हो सकता है।
साल 1950 में ‘बेडु पाको बारा मासा, ओ नरैणा काफल पाको चैता मेरी छैला’ लोकगीत ने इस फल को देश ही नहीं विदेशों में भी पहचान दिलाई। सोवियत संघ के दो बड़े नेता ख्रुश्चेव और बुल्गानिन के भारत आगमन पर स्वर्गीय मोहन चंद्र उप्रेती और उनकी टीम द्वारा ये गीत गाया गया था, जिसकी धुन पर ख्रुश्चेव भी नाचने पर मजबूर हो गए थे। काफल पर रचा गया ये गीत तभी से उत्तराखंडी संस्कृति का प्रतीक बना हुआ है। बताया जाता है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू खासतौर पर इस फल को खाने के लिए उत्तराखंड दौरे पर आए थे।
उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग की मार काफल पर भी देखने को मिल रही है। हाल ही में जंगलों में लगी भीषण आग से काफल बुरी तरह प्रभावित हुआ है। जंगल में काफल की लगभग 70 प्रतिशत से अधिक पैदावार नष्ट हो गई। हालांकि काफल की लोकप्रियता पर कोई असर नहीं पड़ा है, लेकिन डिमांड के अनुरूप काफल उपलब्ध नहीं हो पा रहा है। पिछले साल जंगलों में लगी भीषण आग पर काबू पाने के लिए वायु सेना की मदद लेनी पड़ी थी। इससे सबक लेकर कोई नयी तैयारी अभी तक दिखाई नहीं देती हैं। वन विभाग आग रोकने के पुराने नुस्खों, ड्रोन से निगरानी, वाच टावर, कंट्रोल रूम, से आगे बढ़ता नहीं दिखाई देता। नतीजा सामने है. जंगल धधक रहे हैं और वन सम्पदा, जैव सम्पदा का भारी नुकसान होता चला जा रहा है। वन विभाग को इन नीम-हकीमी नुस्खों से आगे बढ़कर फायर सीजन से पहले ही इस समस्या से निपटने के लिए ठोस रणनीति बनानी चाहिए। जिनमें चीढ़ के जंगलों का प्रबंधन, नियंत्रित आग लगाकर सूखे पत्ते नष्ट करना, आग से निपटने के आधुनिक उपकरणों की खरीद आदि हैं। पूर्व कि भांति इस सम्बन्ध में स्थानीय लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करनी चाहिए।
ये लेखक के निजी विचार हैं।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला ( दून विश्वविद्यालय )