फटी हुई जींस और संघी कुण्ठा

तीरथ कीर्तन उर्फ़ निकलना उधड़ी हाफपैंट से नये जीरो का

इतिहास गवाह है कि मूर्खताओं की मौलिकता और उनके अनूठेपन के मामले में शठबुद्धि फासिस्टों का कोई मुकाबला नहीं है। ताजे वर्तमान में उनके भारतीय संस्करण आरएसएस और उसकी राजनीतिक भुजा भाजपा ने तो इस मामले में और भी नए-नए कीर्तिमान बनाये हैं। अपनी दिलचस्प कही जाने वाली किन्तु असल में हृदयविदारक-बुद्धिसंहारक खोजों के झण्डे उन्होंने आर्यावर्त से लेकर जम्बूद्वीपे भारतखण्डे होते हुए उससे बाहर जाकर भी दुनिया भर में फहराए हैं। आज भी बिना थके, बगैर रुके यह सिलसिला जारी है।

गोबर, गौमूत्र को चिकित्सा विज्ञान और गणेश कथा को अंग प्रत्यारोपण के शल्य विज्ञान के शीर्ष पर लाने, एक टरबाइन से एक ही समय में एक साथ तीन काम — वायुमण्डल से नमी निकाल कर पीने का पानी निकालने, ऑक्सीजन अलग करके शुद्ध प्राणवायु बनाते हुए बिजली पैदा करने के भौतिक शास्त्र और रसायन विज्ञान दोनों को स्तब्ध करने वाले असाधारण ज्ञान, भारत और कनाडा को ए बी स्क्वायर के ब्रैकिट में बंद करके उसमे से ए+बी स्क्वायर के साथ एक एक्सट्रा ए निकालने के गणितीय अनुसंधान के चमत्कारिक काम स्वयं उनके ब्रह्मा नरेंद्र मोदी अंजाम दे चुके हैं। ये सिर्फ बानगियाँ हैं – खोजें तो अकेले उनकी ही इतनी सारी हैं कि उन्हें संग्रहित कर लेना भर किसी नये विश्वकोश के लिए काफी होगा।

मगर वे अकेले नहीं है। ‘शठे शाठ्यम विचारयेत’ की तर्ज पर उनकी विचारधारा का खाद-पानी इस तरह के चमत्कारियों की फसल त्रिपुरा से तमिलनाडु तक हरियाये रखता है। गंगा से गंडक सतत प्रवाहमान बनाये रखता है।

सप्ताह भर से इसी कुनबे के एक और रतन, रातों रात शून्य से अवतरित होकर उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बन गये तीरथ सिंह रावत ने धमाल मचाया हुआ है। निर्बुद्धि के चारों धाम की तीरथ यात्रा करते-करते उधड़ी हाफ पैंट से निकले इस जीरो के कीर्तन ने अपने ज्ञान की निर्वसनता का सबसे पहला प्रदर्शन – संघ परिवार की सबसे पसंदीदा शिकार – महिलाओं के जींस पहनने को लेकर किया। उन्होंने शाखाओं में सुनाई जाने वाली ख़ास संघी अदा में कहानी सुनाते हुए बताया कि किस तरह एक बार जब वे प्लेन से कहीं जा रहे थे, तो उन्होंने एक महिला को फटी हुई जींस पहने देखा, उसके साथ दो बच्चे भी थे। इसी के साथ उन्होंने बोरा भर निष्कर्ष भी उड़ेल दिया और कहा कि ऐसी महिलाएं अपने बच्चों को क्या संस्कार देंगी। इस कथावाचन में भी वे बौद्धिकता, पढ़ाई-लिखाई के प्रति अपनी संघी कुण्ठा को नहीं छुपा पाए और उक्त महिला को एनजीओ चलाने वाली तथा उनके पति को जेएनयू वाला बता कर ही साँस ली।

उनका कीर्तन यहीं तक नहीं रुका। अक्षुण्ण स्त्री-परिधान पावित्र्य यज्ञ की अपनी मुहिम को आगे बढ़ाते हुए रावत ने अपने कॉलेज के वक्त का एक कथित किस्सा भी सुना मारा, जिसमें बकौल उनके उस वक्त चंडीगढ़ से कॉलेज में पढ़ने आई हाफ कट ड्रेस पहनने वाली एक लड़की के पीछे लड़के पड़ गए थे। बिचारे तीरथ को उस लड़की को (लड़कों को नहीं) कीर्तन सुनाना पड़ा था कि “यूनिवर्सिटी में पढ़ने आई हो और अपना बदन दिखा रही हो, क्या होगा इस देश का।”

अर्थशास्त्र और भूख का सहज तीरथबोध भी कम नहीं है। इसका प्रदर्शन उन्होंने नैनीताल जिले के रामनगर में एक कार्यक्रम के दौरान दिया, जब कहा कि कोविड-19 प्रभावितों को प्रति यूनिट पांच किलोग्राम राशन दिया गया और जिसके 20 बच्चे थे, उसके पास एक क्विंटल राशन आया, जबकि जिसके दो बच्चे थे, उसके पास 10 किलोग्राम आया। फिर बोले कि ‘’भैया इसमें दोष किसका है? उसने 20 पैदा किए, तो उसे एक क्विंटल मिला। अब इसमें जलन काहे का – जब समय था, तब आपने दो ही पैदा किए, 20 क्यों नहीं किए?’’

पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों पर भी उनकी समझदारी दो टूक है। वे मानते हैं कि इससे गरीब जनता पर कोई असर नहीं पड़ता है। चूंकि वाहन पैसे वालों के पास हैं, इसलिए इसका असर उन्हीं पर होता है। इतिहास की उनकी जानकारी भी शाखा प्रमाणित है। सावरकर के माफीनामे और आरएसएस की अंग्रेज-साम्राज्यभक्ति की इतिहाससिद्ध समस्या उन्होंने चुटकियों में हल कर दी और भारत को 200 वर्ष तक गुलाम बनाने का श्रेय अंग्रेजो से छीनकर अमरीका के सर पर मढ़ दिया।

 बादल सरोज 

जिस समय देश और उसकी जनता अपने ताजे इतिहास की सबसे ज्यादा और सर्वआयामी मुश्किलों में हो, सरकार के क़दमों में इन संकटों की भरमार से बाहर निकलने की उम्मीद की किरण तक न दिखाई पड़ रही हो – ऐसे समय में इस तरह की विदूषकी को सिर्फ तीरथ कीर्तन मानना या किसी अज्ञानी का मखौल समझकर अनदेखी करना सही नहीं होगा। यह एक भरे-पूरे आख्यान का एक हिस्सा है। एक बड़े एजेंडे को हासिल करने के लिए लगातार आगे की ओर बढ़त का एक और कदम है!! समाज और उसकी चेतना को पीछे, बहुत पीछे ले जाने के इस एजेंडे में इस तरह के चुटकुले सिर्फ मनोविनोद के लिए नहीं होते – उनका मकसद मनोविकार को श्रृंगार बताते हुए उसे स्थायी मनोरोग की ऊंचाई तक ले जाना होता है।

इनका निशाना भी चुनिन्दा होता है। उसमें महिलायें विशेषकर प्राथमिकता पर होती हैं, गरीब और जरूरतमंद होते हैं, उनकी मुश्किलों का मखौल उड़ाना होता है। अल्पसंख्यक होते ही हैं, तार्किकता और बौद्धिकता भी होती है। जीवन जीने का अधिकार, समाज की लोकतांत्रिकता और आधुनिकता होती है। मेहनतकश जनता तो खासतौर से होती है। महिलाओं के खिलाफ लगातार चलती रही तथा हाल के दिनों में किसानों के खिलाफ तेजी पकड़ती मुहिम, उनके साथ गाली और गरियाव की भाषा इसी एजेंडे का हिस्सा है। समझदार और सभ्य समाज और उसके सुधीजन-जनी भले इस तरह के तीरथ कीर्तनो पर हँसकर – खीजकर अपना सर धुनते रहें, इन्हे सस्ता चुटकुला मानकर बैठे रहें, किन्तु कड़वा सच यह है कि इस तरह लगातार कहा-सुना जाना समाज के बड़े हिस्से पर असर डालता है। उन्हें उजड्ड और असहिष्णु, असभ्य और बर्बर बनने के बहाने और कुतर्क मुहैया कराता है। पुरातन परम्पराओं की प्रेतबाधा में जकड़ी उसकी सोच की बेड़ियों को और भारी और मजबूत बनाता है। स्त्री, वंचितों के अधिकारों को सुनिश्चित करने वाले सभ्य समाज के रास्ते में पहले से खड़े मनु और मनु जैसों के कँटीले झाड़-झंखाड़ को खाद-पानी देता है। इन्हीं अंधेरों के भरोसे पर टिका है कारपोरेटी हिन्दुत्व का वह आत्मविश्वास कि चाहें जो हो जाए, आएगा तो मोदी ही; इसे ही स्वर दे रहे थे तीरथ सिंह रावत जब वे अपने आराध्य नरेंद्र मोदी की तुलना भगवान कृष्ण और राम से करते हुए दावा कर रहे थे कि एक दिन लोग मोदी की पूजा करेंगे।

सिर्फ मध्यमवर्ग के खाये-पीये-अघाये छोटे से हिस्से पर ही नहीं, मेहनतकशों के अच्छे खासे हिस्से पर भी इसकी विषाक्तता का असर होता है। हाल के दिनों में निजीकरण के खिलाफ हुयी बैंक और बीमा कर्मचारियों की शानदार हड़ताल कार्यवाही के समय भी यह पहलू चर्चा में आया था कि कारणों को प्रोत्साहन देने वाले नैरेटिव से सहमत होते हुए, उन्हें आगे बढ़ाते हुए क्या सिर्फ कुछ परिणामो के खिलाफ लड़ाई लड़ी और जीती जा सकती है। जाहिर है कि नहीं!! यह चौतरफा बबूल रोपते हुए सिर्फ अपने पांवों के नीचे आने वाले काँटों से बचने की कामना करने जैसी निरर्थक बालसुलभ सदिच्छा है।

भारतीय परिदृश्य – जहां कारपोरेट हिन्दुत्व के साथ गलबहियां करके आया हो, वहां तो दोनों से एक साथ लड़ना ही होगा। चेतना और अवचेतन दोनों की साफ-सफाई करते हुए उन अँधेरे कोनों को रोशन करना ही होगा, जहां कीर्तन करते तीरथ निर्बुद्धि के उल्लुओं के घोंसले बनाते हैं।

अच्छी बात यह है कि मौजूदा दौर के जनांदोलनों, विशेषकर मेहनती जनता के संघर्षों ने इस पहेली को सुलझाने का काम हाथ में लिया है। भारत की जनता के प्रगतिशील, युगान्तरकारी और गौरवशाली अध्यायों के साथ अपना रिश्ता बनाते हुए उनके अधूरे छूट गए कामों को अपने वर्तमान संघर्षों के कार्यभारों में शामिल करना शुरू किया है। भगत सिंह के शहादत के दिन से जोड़कर अखिल भारतीय किसान सभा द्वारा भगतसिंह के पैतृक गाँव खटखड़कलां, स्वतन्त्रता संग्राम के मशहूर केंद्र हाँसी की लाल सड़क और मथुरा से निकाली सैकड़ों किलोमीटर की पदयात्राएं ठीक यही काम कर रही थीं। आर्थिक शोषण के विरुध्द लड़ाई को हर तरह के शोषण और पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई से जोड़ रही थी। किसान, मजदूर, छात्र, युवा और महिलाओं की साझी तहरीकें खड़ी हो रही थीं। देश भर के किसान आंदोलन के मोर्चों पर 8 मार्च के अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस का मनाया जाना, 1906-07 के पंजाब के किसान आन्दोलन से खुद को जोड़ते हुए सावित्री-जोतिबा फुले से बाबा साहब अम्बेडकर के दिन पर सामाजिक समता, लोकतंत्र और संविधान की हिफाजत से जुड़े आयोजन इसी जरूरी श्रृंखला की कड़ी है। मिलकर लड़ने के अवसर ढूंढें जा रहे थे। हालांकि यह सिर्फ एक या दो दिन किये जाने से पूरा किया जा सकने योग्य काम नहीं है।

 आलेख : बादल सरोज (संयुक्त सचिव)

अखिल भारतीय किसान सभा