अटल जी का यहां से व्यक्तिगत और आत्मीय जुड़ाव तो था ही, मगर यह भी इत्तेफाक है कि राजनीतिक तौर पर उनकी पहली चुनावी हार का कनेक्शन भी दशकों पहले कहीं न कहीं उत्तराखंड से ही आ जुड़ता है। देश में अटलजी की सबसे विवादास्पद और बवाल के बीच आयोजित सभा भी उत्तराखंड में हुई थी। वह उत्तराखंड आंदोलन के चरम का दौर था। 1996 में केंद्र की तत्कालीन नरसिंह राव सरकार अलग राज्य देने के बजाय वार्ताओं के बहाने उत्तराखंडियों से छलावा कर गई थी।
देश में आम चुनाव घोषित हो चुके थे। आंदोलन का संचालन कर रही उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति, राज्य नहीं तो चुनाव नहीं के नारे के साथ पहले ही सभी तरह के चुनाव बहिष्कार का ऐलान कर चुकी थी। उधर, ठीक चुनाव की तारीखें घोषित हुईं और इधर भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी की पहले से घोषित जनसभा का आयोजन। यह उत्तराखंड में उस चुनाव से पहले किसी भी राजनीतिक दल और नेता की पहली चुनावी जनसभा थी। 20 मार्च 1996 को अटलजी की चुनावी सभा से ठीक पहले देहरादून में हजारों लोगों ने उनकी सभा के विरोध में रैली निकाली।
घंटाघर के नजदीक भाजपाईयों और आंदोलनकारियों में टकराव हो चुका था। माहौल में तनाव व्याप्त था। पूरे देहरादून को केंद्रीय सुरक्षा बलों और स्थानीय पुलिस-पीएसी की छावनी में तब्दील कर दिया गया था। सैकड़ों आंदोलनकारी और संघर्ष समिति के नेता पहले ही गिरफ्तार कर लिए गए थे। इसी तनावपूर्ण माहौल के बीच 21 मार्च 1996 को परेड मैदान पर भाजपा की देहरादून नगर इकाई के अध्यक्ष विनोद शर्मा और महामंत्री डाॅ. देवेंद्र भसीन के संचालन में जनसभा आरंभ हुई।
दोपहर वाजपेयी जनसभा को संबोधित करने मंच पर पहुंचे, तो जमकर बवाल होना लाजिमी था। सभास्थल और उसके आसपास सुबह से दोपहर तक कई चक्र के लाठीचार्ज हो चुके थे। वाजपेयी संबोधन करने लगे, तो आंदोलनकारियों ने सभास्थल पर भगदड़ मचाने के लिए पथराव करने के साथ ही मंच की तरफ सांप और आतिशबाजी वाले राॅकेट छोड़ने शुरू कर दिए। पत्रकारों पर भी जमकर लाठीचार्ज हुआ और दर्जनभर से ज्यादा पत्रकार अस्पताल में भर्ती कराए गए। प्रदर्शनकारियों ने वाजपेयी के संबोधन के दौरान माईक के तार तक तोड़ दिए।
इतने बवाल के बाद भी अटलजी अटल रहे और संबोधन पूरा करके ही मंच से उतरे। सभा खत्म होने के बाद देहरादून समेत कई जगह प्रतिक्रियास्वरूप आगजनी और तोड़फोड़ की घटनाएं हुईं। भाजपा के खिलाफ जगह-जगह प्रदर्शन हुए, लेकिन यह अटलजी के प्रति उत्तराखंड की श्रद्धा ही थी कि 1994 से 96 के बीच सैकड़ों पुतले फूंकने वाले आंदोलनकारियों ने भाजपा के पुतले तो जरूर जलाए, लेकिन कहीं अटलजी का एक भी पुतला नहीं फूंका गया। हालांकि, उसी दिन कोटद्वार में भी उन्होंने जनसभा को संबोधित किया था, जो अपेक्षाकृत शांत रही
जब, अटल बने उत्तराखंड के सर्वाधिक चहेतेः
अविभाजित उत्तर प्रदेश के पर्वतीय अंचल को उत्तराखंड के रूप में अलग राज्य बनाने की घोषणा यद्यपि 1996 से ही सरकारें करती रहीं, मगर लाखों उत्तराखंडियों का यह सपना बतौर प्रधानमंत्री साकार किया अटल बिहारी वाजपेयी ने। 9 नंबवर 2000 को अस्तित्व में आए उत्तराखंड (तब उत्तरांचल) का रास्ता अटल सरकार ने ही प्रशस्त किया था। उनके इस कदम ने उत्तराखंडियों के बीच अटलजी की लोकप्रियता और उनके प्रति श्रद्धा को और व्यापक बनाया।
यही कारण था कि देहरादून के जिस परेड मैदान में 21 मार्च 1996 को अटल की जनसभा का प्रचंड विरोध हुआ था, उसी परेड मैदान में राज्य गठन के बाद जब वाजपेयी वर्ष-2002 में चुनावी जनसभा को संबोधित करने पहुंचे, तो हजारों लोगों ने उनका जोरदार स्वागत किया। उत्तराखंड को विशेष राज्य का दर्जा और औद्योगिक पैकेज भी अटल सरकार ने ही दी थी, जिसके चलते राज्य शुरूआती दौर में अपने पैरों पर खड़ा हुआ।
फरवरी-2007 में आखिरी बार देहरादून आए अटल:
अटल बिहारी वाजपेयी ने देहरादून का आखिरी दौरा 19 फरवरी 2007 को किया था। 21 फरवरी को उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव हुए। 19 फरवरी को प्रचार का आखिरी दिन था। भाजपा नेता बलजीत सिंह सोनी बताते हैं कि उस दिन वे एयरपोर्ट पर वे खुद अटलजी को व्हील चेयर पर हवाई जहाज तक ले गए थे। बकौल सोनी, उनकी याद में इसके बाद वाजपेयी फिर देहरादून या उत्तराखंड नहीं आए।
इससे पहले वाजपेयी ने देहरादून दौरा 9 सितंबर-2006 को किया। वर्ष-2006 में उत्तराखंड में कांग्रेस की पहली निर्वाचित सरकार अपने आखिरी दौर में थी। एनडी तिवारी मुख्यमंत्री थे और तमाम वजहों से प्रदेशवासी उनकी सरकार से क्षुब्ध थे। ठीक ऐसे ही वक्त में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की तीन दिवसीय बैठक देहरादून में आयोजित हुई। 7-8 और 9 सितंबर 2006 को आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी में लालकृष्ण आडवाणी, एम. वेंकैया नायडू, डाॅ. मुरली मनोहर जोशी, नरेंद्र मोदी (तब गुजरात के सीएम), राजनाथ सिंह समेत तमाम बड़े नेता पहले दिन ही दून पहुंच चुके थे।
इंतजार के बावजूद स्वास्थ्य संबंधी कारणों से अटल बिहारी वाजपेयी पहले दो दिन बैठक में नहीं आ पाए। उनके आने-न आने को लेकर असमंजस की स्थिति बनी हुई थी। आखिरकार 9 सितंबर की सुबह अटल बिहारी वाजपेयी कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा लेने देहरादून के सुभाष रोड स्थित होटल में पहुंचे। उन्हें चलने-फिरने में काफी दिक्कत हो रही थी। मीडिया ने उन्हें घेरा, मगर वे ज्यादा बात नहीं कर पाए।
तब देहरादून में उनकी यात्रा की व्यवस्थाओं में लगातार साथ जुड़े रहे बलजीत सिंह सोनी कहते हैं कि पार्टी के तमाम नेता चाहते थे कि अटलजी उसी शाम परेड मैदान में होने वाली जनसभा को भी संबोधित करें, लेकिन अटलजी की स्थिति मंच तक चढ़ पाने की नहीं थी। लिहाजा, वे जनसभा में नहीं गए। होटल में कुछ समय कार्यकारिणी बैठक में शामिल हुए और फिर थोड़ा आराम करने के बाद लौट गए।
पहली हार का देहरादून कनेक्शनः
यह इत्तेफाक ही है कि अटल बिहारी वाजपेयी की चुनाव क्षेत्र में पहली हार भले ही उत्तराखंड से काफी दूर मथुरा में हुई थी, मगर इसका सीधा कनेक्शन जुड़ता है देहरादून से। दरअसल, 1957 में मथुरा संसदीय क्षेत्र से अटल बिहारी वाजपेयी को हार का सामना करना पड़ा था। हालांकि, वे बलरामपुर से चुने गए थे, लेकिन मथुरा में जनसंघ के प्रत्याशी अटलजी को चौथे स्थान पर रहकर जमानत तक गंवानी पड़ी थी। अन्य प्रत्याशियों के साथ उन्हें शिकस्त दी थी देहरादून निवासी और प्रख्यात स्वाधीनता सेनानी, क्रांतिकारी राजा महेंद्र प्रताप ने।
हाथरस के राजा रहे महेंद्र प्रताप की किशोरावस्था भले ही वृंदावन और अलीगढ़ में बीती, मगर स्वाधीनता आंदोलन के दौर में ही वे देहरादून में आ बसे थे। देहरादून से उन्होंने निर्बल सेवक नामक समाचार पत्र भी निकाला। राजा महेंद्र प्रताप ने 1957 में निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ने के लिए मथुरा को चुना, जहां 95 हजार से ज्यादा वोट के साथ वे कांगे्रस के दिगंबर सिंह, निर्दलीय पूरन और भारतीय जनसंघ के अटल बिहारी वाजपेयी समेत पांच प्रत्याशियों को हराकर निर्वाचित हुए थे।
छुट्टियां बिताने आते थे मसूरीः
अटल बिहारी वाजपेयी को मसूरी का नैसर्गिक सौंदर्य काफी भाता था। प्रधानमंत्री बनने से पहले तक वे अक्सर मसूरी आया करते थे। भाजपा नेता प्रकाश सुमन ध्यानी का कहना है कि राजनीतिक भागदौड़ के बीच जब भी अटलजी को थोड़ी फुर्सत मिलती थी, वे सुकून के लिए मसूरी चले आते थे। मसूरी में वे बंद गले कोट और पैंट पहनकर ही माल रोड पर घूमने निकलते थे। देहरादून के सर्किट हाउस की हरियाली भी उन्हें काफी आकर्षित करती थी।
बकौल ध्यानी, साल-1991 में जब मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी भाजपा में शामिल हुए, तो उन्हें ज्वाइन कराने खुद अटलजी देहरादून आए थे। इस दौरान वे सेहत ठीक न होने और पार्टी के कुछेक नेताओं की मनाही के बावजूद मोहब्बेवाला से बाकायदा खुली जीप में सवार होकर रैली के साथ आयोजन स्थल तक पहुंचे थे। देहरादून निवासी स्व. नरेंद्र स्वरूप मित्तल उनके खास मित्रों में शामिल थे। वाजपेयी जब भी दून आते थे, उनकी कोशिश मित्तल से मिलने की जरूर रहती थी।
साभार : – जितेंद्र अंथवाल …
पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा के शिखर पुरूष भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी का उत्तराखंड से गहरा जुड़ाव रहा। यह जुड़ाव कई मायनों में खास था। इस जुड़ाव में प्राकृतिक सौंदर्य के प्रति उनकी अनुरक्ति भी थी, तो राजनीतिक आपाधापी के बीच पहाड़ की हसीन वादियों में सुकून के कुछ पल बिता लेने की उत्कंठा भी। यह जुड़ाव उत्तराखंडवासियों का उनके प्रति अपेक्षा और आग्रह भरे गुस्से के रूप में भी झलका, तो अपार स्नेह और कृतज्ञता के रूप में भी।