गालिब के बाद
सबसे बड़े शायर के जन्मदिन पर
बचपन में एक शेर सुना था. ‘पाल ले एक रोग नादां ज़िंदगी के वास्ते, सिर्फ़ सेहत के सहारे ज़िंदगी कटती नहीं.’ बड़ा ही अजीबोग़रीब शेर लगा. तब रोग तो कोई न था पर जाने क्यूं शेर अच्छा लगा. किसने लिखा है यह तब पता चला जब शायरी से वाबस्ता होने की उम्र आई, यानी जब पहली बार मोहब्बत का रोग लगा तो एकदम से वह शेर याद आ गया. फिर क्या था? यह किसने लिखा मालूम करने के लिए तब गूगल नहीं हुआ करता था, लिहाज़ा सोर्स मालूम करना मुश्किल हो गया. फिर एक दिन फ़िराक़ गोरखपुरी साहब की किताब हाथ लगी तो मालूम हुआ कि यह शेर उनका है. वह ‘रोग’ तब तक मिट चुका था. फिर ऐसे कई ‘रोग’ हुए तो हर बार यह शेर पढ़ा और मुस्कुरा कर रह गया .
‘एक मुद्दत से तेरी याद भी न आई हमें, और हम भूल गए हों. तुझे ऐसा भी नहीं’ यह फ़िराक़ का ही शेर है. उन्हें भूल कौन सकता है. वैसे फ़िराक़ जैसे शख्स की ज़िंदगी का पोट्रेट खींचने के लिए कितने भी शब्द कम ही पड़ेंगे. चुनांचे, उनकी ज़िंदगी के कुछ पहलू छूने की कोशिश करते हैं.
फ़िराक़ गोरखपुरी भारत के प्रसिद्धि प्राप्त और उर्दू के माने हुए शायर थे। ‘फिराक’ उनका तख़ल्लुस था। उन्हें उर्दू कविता को बोलियों से जोड़ कर उसमें नई लोच और रंगत पैदा करने का श्रेय दिया जाता है। उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ और ‘सोवियत लैण्ड नेहरू अवार्ड’ से भी सम्मानित किया गया था। वर्ष 1970 में उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ का सदस्य भी मनोनीत किया गया था।
फ़िराक़ गोरखपुरी ने अपने साहित्यिक जीवन का आरंभ ग़ज़ल से किया था। अपने साहित्यिक जीवन के आरंभिक समय में 6 दिसंबर, 1926 को ब्रिटिश सरकार के राजनीतिक बंदी बनाए गए थे। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फ़िराक़ जी ने अपनी शायरी का अनूठा महल खड़ा किया। फ़ारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रच-बस गई है।फ़िराक़ गोरखपुरी ने बड़ी मात्रा में रचनाएँ की थीं। उनकी शायरी बड़ी उच्चकोटि की मानी जाती हैं। वे बड़े निर्भीक शायर थे। उनके कविता संग्रह ‘गुलेनग्मा’ पर 1960 में उन्हें ‘साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला और इसी रचना पर वे 1969 में भारत के एक और प्रतिष्ठित सम्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ से सम्मानित किये गये थे। उन्होंने एक उपन्यास ‘साधु और कुटिया’ और कई कहानियाँ भी लिखी थीं। उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा में उनकी दस गद्य कृतियाँ भी प्रकाशित हुई हैं।
भारतीय उपमहाद्वीप के महान शायर फ़िराक़ गोरखपुरी (रघुपति सहाय) के जन्मदिन पर उन्हें नमन उनके एक प्रासंगिक दोहे के साथ –
बिन खिड़की बिन द्वार के चार तऱफ है भीत
इन गलियों में हम कहां गायें तेरे गीत।
शायर होना एक बात है और इंटेलिजेंट शायर होना अलग बात. कुछ इसी तरह सेन्स ऑफ़ ह्यूमर का होना और हंसोड़ होना दो अलग बातें हैं. फ़िराक़ इंटेलिंजेट शायर थे और उनका सेन्स ऑफ़ ह्यूमर भी ज़बरदस्त था. कुछ वैसा ही जैसा ग़ालिब का था. किस्सा है कि एक बार उनके घर महफ़िल जमी थी. वहां मौजूद शायरों में से एक जनाब इलाहाबाद के थे जो अपना कलाम सुना रहे थे. उनके एक शेर में पहला मिसरा फ़िराक़ का था. जब फ़िराक़ ने टोका तो शायर साहब बोले, ‘फ़िराक़ साहब कभी-कभी ख़याल आपस में टकरा भी जाते हैं.’ फ़िराक़ मुस्कुराए और बोले, ‘भाई साइकिल से साइकिल तो टकरा सकती है मगर साइकिल से हवाई जहाज का टकराना अब तक नहीं सुना गया है.’
ऐसे ही एक बार किसी मुशायरे में ‘नश्तर’ नाम के शायर शिरकत कर रहे थे. नश्तर साहब मोटे और अच्छी ख़ासी तोंद के मालिक थे. जब उनकी बारी आई तो फ़िराक़ बोले पड़े, ‘अरे बाप रे इतना मोटा नश्तर (उस्तरा).’ महफ़िल में हंसी छूट गयी. इसी तरह एक और बड़ा दिलचस्प किस्सा है. इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर अक्सर फ़िराक़ और उनके दोस्त अमरनाथ झा को आपस में लड़वा देते थे. एक बार बहस छिड़ गयी और लोग तपाक से बोल पड़े कि झा साहब फ़िराक़ से हर मामले में बेहतर हैं. उन्हें फ़िराक़ से बेहतर अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी आती है. इस पर फ़िराक़ उठे और बोले, ‘भाई अमरनाथ झा मेरे बचपन के दोस्त हैं उनके बारे में एक बात कहे देता हूं कि उन्हें अपनी झूठी तारीफ़ बिलकुल पसंद नहीं.’
खैर, यह बात तो अलग हुई, पर यह बात मज़ाक नहीं कि फ़िराक़ गोरखपुरी या रघुपति सहाय इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफ़ेसर थे और उन्होंने उर्दू, फ़ारसी और अंग्रेजी में पोस्ट ग्रेजुएशन किया था. इससे पहले वे महात्मा गांधी के आह्वान पर आईसीएस की नौकरी छोड़ चुके थे और असहयोग आंदोलन में जेल की हवा भी खा चुके थे. वे ताजिंदगी कांग्रेसी रहे. जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी उनके मुरीदों में से थे.
फ़िराक़ भी ख़ुद को नेहरू परिवार का हिस्सा मानते थे. एक बार की बात है कि उनके घर पर कुछ लोग जमा थे जो आपातकाल के बाद इंदिरा की हार का ज़िक्र कर रहे थे. बातों-बातों में एक साहब जो इंदिरा गांधी को भला-बुरा कह रहे थे, उनके मुंह से इंदिरा के लिए ‘बेवा’ लफ्ज़ निकल गया. फ़िराक़ इस बहस से पहले ही उकता गए थे. इस लफ्ज़ को सुनकर उखड गए. उन्होंने अपना बेंत उठाया और उस शख्स पर पिल पड़े. वे चीखते हुए बोले, ‘तूने मेरी बेटी को बेवा कैसे कह दिया?’
फ़िराक़ की तबीयत समाजवादी थी. उन्हें यह डर बराबर घेरे रहता कि अमेरिका पाकिस्तान को आगे कर कोई जंग छेड़ देगा. अक्सर उनसे मिलने आने वालों से पूछ लेते, ‘क्यों भाई जंग का ख़तरा तो नहीं है?’ जंग को लेकर फिराक हमेशा खौफ़ज़दा रहे. कहते थे ‘जंग बड़ी ख़तरनाक चीज़ है.’ उनका शेर है:
‘सदियों के बने काम बिगड़ जायेंगे,
धरती पर अलम (झंडे) मौत के गड़ जायेंगे
सांवला जायेगा आफ़ताबे तहज़ीब
रुख़सारे फिज़ा पर नील पड़ जायेंगे’
भारत पाकिस्तान जंग पर लिखी उनकी ‘हिन्द-पाक’ नज़्म तीन हिस्सों में थी जो बड़ी मशहूर हुई. अमेरिका को मुखातिब करते हुए उसकी लाइनें थीं:
‘मुरादों को बर (सफल) लाएगी ये सगे भाइयों की लड़ाई
वो दुश्मन जो दोस्ती का दम भरें
चाहते हैं कि आपस में हम कट मरें
पाक के बसने वाले मेरे भाइयों
कुछ ख़बर है तुम्हें
पाक की बेटियां
जो कि बेवा हुई हैं
वो हमारी भी बेटियां हैं
हिन्द की बेटियां भी तो हैं आपकी बेटियां…’
ग़ालिब के जैसे मज़ामी(फ़िलासफ़ी) ख़याल उन्हें भी तंग करते थे. उनका एक शेर है:
‘जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूं’
फिर एक ग़ज़ल में उन्होंने कहा था-
‘दिल को अपने भी ग़म थे दुनिया में
कुछ बलाएं थीं आसमानी भी
दिल को शोलों से करती है सैराब (सींचती)
ज़िन्दगी आग भी है पानी भी…’
फिराक की जिंदगी के कुछ कड़वे पहलू भी रहे. बताते हैं कि अपनी पत्नी किशोरी देवी से उनकी कभी नहीं पटी. फ़िराक़ उन्हें कोसते थे. इसके पीछे की वजह यह बताई गई है कि उनकी पत्नी दिखने में सुंदर नहीं थीं. रमेश चंद्र द्विवेदी, जिन्होंने उनकी जिंदगी को काफी नज़दीक से देखा और जिन्हें फ़िराक़ साहब ने अपने पर लिखने की इज़ाज़त दी, बताते हैं कि एक बार उनकी पत्नी अपने मायके से वापस आईं, सर पर टोकरी लिए जैसे ही वे घर में दाखिल हुईं तो फिराक ने पूछ लिया कि क्या वे उनकी पसंद का अचार लाई हैं? जब किशोरी देवी ने मना किया, तो फ़िराक़ ने उन्हें सिर पर से टोकरी नीचे रख देने की भी इजाज़त नहीं दी और उलटे पैर मायके भेज दिया कि पहले अचार लाएं.
इस कड़वाहट के पीछे फ़िराक़ की ख़ुदबयानी है. एक बातचीत में उन्होंने खुद कहा था, ‘एक साहब ने मेरी शादी एक ऐसे खानदान और एक ऐसी लड़की से कर दी कि मेरी ज़िंदगी नाकाबिले बर्दाश्त बन गयी. पूरे एक साल तक मुझे नींद न आई. उम्र भर मैं इस मुसीबत को न भूल सका.’
फिराक गोरखपुरी को देश-दुनिया में खूब सम्मान मिला. 1968 में उन्हें पद्म भूषण और सोवियत लैंड नेहरू अवॉर्ड से नवाज़ा गया. 1969 में उन्हें उनकी शानदार रचना गुले नगमा के लिए साहित्य का ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया. 1970 में वे साहित्य अकादमी के मनोनीत सदस्य नियुक्त किए गए.
आखिर के दिनों में फिराक गोरखपुरी बड़े बीमार रहने लगे थे. बताया जाता है कि वे अक्सर नंगे बदन ही लोगों के सामने आ जाया करते. बहुत इसरार करने पर चादर से खुद को ढक लेते थे. एक बार किसी ने उनकी इस हालत पर ऐतराज़ जताया तो उन्होंने कहा कि आपकी नज़र मेरी शक्ल की तरफ होनी चाहिए न कि कहीं और.
फ़िराक़ गोरखपुरी ग़ालिब, जोश मलीहाबादी, फैज़ अहमद फैज़, अल्लामा इकबाल की टक्कर के शायर थे. रमेश चंद्र द्विवेदी ‘फ़िराक़ साहब’ में लिखते हैं, ‘हिन्दुस्तानी कल्चर और वर्ल्ड कल्चर, उर्दू और फ़ारसी शायरी और अदब का पसमंज़र और वेदान्त की गहरी से गहरी फ़िलासफ़ी, यूरोप के फ़िलासफ़रों और अदीबों का गहरा मुताला (अध्ययन), संस्कृत साहित्य की गूंज और इन सबके अलावा फ़िराक़ की अपनी फ़िक्र और मार्क्सिस्ट अदब का गहरा असर, इन सबने मिल कर फ़िराक़ की शख्सियत की तामील की थी.
जोश मलीहाबादी की उनके बारे में राय से बात को विराम देना चाहिए. जोश ने कहा था, ‘अपने फ़िराक़ को मैं युगों से जानता हूं. वो इल्म-ओ-अदब के मसलों पर ज़बान खोलते हैं तो लफ्ज़-वो-मानी के लाखों मोती रोलते हैं, और इस अफ़रात से कि सुनने वालों को अपनी कम-इल्मी का अहसास होने लगता है. जो शख्स ये तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ का महान व्यक्तित्व हिंदुस्तान के माथे का टीका है, उर्दू ज़ुबान की आबरू और शायरी की मांग का सिन्दूर है, वो ख़ुदा की कसम निरा घामड़ है. फ़िराक़ जिंदाबाद, फ़िराक़ पाईंदाबाद.’
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साभार – अनुराग भरद्वाज