कोरोना वायरस और देश के डॉक्टर
वो जो दुनिया का सब से समझदार आदमी है ये उसके युग की कथा है. वैसे आप समझदार की जगह “श्याणा” का इस्तेमाल भी कर सकते हैं. ध्यान रहे ‘श्याणे’ उस मायने में समझदार नहीं, सिर्फ ‘श्याणे’ होते हैं. ये विमर्श के मुहाने पर भेड़ियों की तरह गुर्राते चौकस बैठे मिलेंगे इसलिए इन्हें नींद उस पैमाने पर मयस्सर नहीं होती जो कायनात ने इंसानों (माफ़ कीजियेगा आदमियों) और अन्य जीवों के लिए तय की है. इनकी आखों से जो रूहानी तेज़ का आभास होता है वह दरअसल नींद के अभाव से ग्रस्त पर खुली आँखों में पनपते वाहियात सपनों का तिलिस्म होता है. वो फालतू लोग जो दुनिया के इस सब से समझदार आदमी की आँखों में झाँकने की फुरसत निकाल पाते हैं उन्हें वहां रसातल को जाती एक गहरी सुरंग के मायावी आमंत्रण के सिवा और कुछ नहीं मिलता. इन श्याणो के अपने समूह, बिरादरियां, इतिहास, संस्कृति और परम्पराएँ होती हैं. लोग हर युग में इनके झांसे में आते रहे हैं.
मसलन बीसवीं शताब्दी के शुरूआती दौर में जर्मन शासित ईस्ट अफ्रीका (वर्तमान तंज़ानिया) में जर्मनों के अत्याचार के खिलाफ आम जनता लामबंद होने लगी. भारत में जबरन नील की खेती की ही तरह वहां नगदी फसल के लिए कपास की खेती पर ऐसे समय पर जोर दिया जा रहा था जब उन इलाकों में अकाल दस्तक दे रहा था. यह जन संग्राम जादू-टोना और चमत्कारों से अपनी मुक्ति के फेर में पड़ गया. वहां के देहाती इस्लाम और जीववादी श्रद्धा पर विश्वास करने वाले एक ओझा (आप उसे मौलवी भी कह सकते हैं) ने यह ऐलान लिया कि होंगो नाम के एक सर्प की आत्मा उसमें प्रवेश कर गयी है और पूर्वजों ने उसे जर्मन साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह करने का आदेश दिया है. उसने विभिन्न कबीलों के आपसी मन मुटाव ख़त्म करने में भी सफलता पा ली. किंजीकितले नग्वले नाम के इस ओझा ने अपने समर्थकों को पवित्र जल बांटना शुरू कर दिया और उसके भक्तों ने पूरे विश्वास से मान भी लिया कि इस पवित्र जल को जिस्म पर लगाने से जर्मनों की गोलियां पानी में बदल जाएँगी. फिर इस चमत्कारी जल को अपने जिस्म पर मल कर वे जर्मनों से मोर्चा लेने चल दिये. बताते हैं की इन मुठभेड़ों और उसी दौरान बढ़ रहे अकाल की वज़ह से तकरीबन तीन लाख लोग हलाक हुए. यह घटना इतिहास में माज़ी विद्रोह (Maji Maji Rebellion) के नाम से दर्ज है.
ऐसे वक़्त में जबकि कोरोना वायरस एक वैश्विक महामारी के रूप में पांव पसार रहा है किंजीकितले नग्वले के हिन्दुतानी संस्करण गौमूत्र सेवन और गोबर स्क्रब के स्नान से कोरोना वायरस के इलाज का ढिंढोरा सोशल मीडिया पर पीट रहे हैं. इनके खिलाफ कोई क़ानूनी कार्यवाही नहीं होगी क्योंकि ये सोशल इन्फ्लुन्सर की उस बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं जिसकी जिम्मेवारी व्यावहारिक विमर्श को दिशाहीन बनाने की है. आज जरुरत यह समझने की है कि कोरोना संकट से अंतिम मुक्ति तो वैज्ञानिक चिकित्सा प्रणाली से ही मिलेगी. जब हम इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हैं तो हमे अपना ध्यान कोरोना वायरस से संक्रमित मरीजों के इलाज़ में डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों पर भी लगाना चाहिए. दिलचस्प यह है की कोरोना वायरस से सम्बंधित तमाम ख़बरों में उस बिरादरी का जिक्र ही गायब है जो हस्पतालों में इस महामारी से लड़ते हुए खुद संक्रमित हो रहे हैं. आम हिन्दुतानी सोशल मिडिया का उपभोक्ता बना दिया गया है उसके दिमाग में वह हिस्सा मर गया है जहाँ सवाल जन्म लेते हैं.
बेशक आम जनता लॉक डाउन के नियमों का पालन जिम्मेदारी से कर रही है, जो सड़कों पर अभी चल ही रहे हैं उनके किस्से भी जनता तक पहुँच ही रहे हैं लेकिन वो बिरादरी जो हस्पतालों में कोरोना से मुकाबला कर रही है उसकी परिस्थितियां उसके हालात मौजूदा विमर्श से गायब ही हैं. इस पोस्ट के साथ लगा विडियो तो यही दर्शाता है की वो जो पुष्पवर्षा करवाई गयी थी वह कोरोना वायरस के आगे भभूत मलकर जाने जैसा ही आडम्बर था.
ऐसा बुरा समय भी नहीं आया है कि भारत के चिकित्सकों के हितों की बात करना देशद्रोह बन जाए.
#सुनील कैंथोला
https://jansamvadonline.com/in-context/manus-virus-in-search-of-coronas-caste-and-religion/