डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

वर्षों से राज्य के सीमांत जिलों में उत्तरकाशी, चमोली, पिथौरागढ़ और बागेश्वर में भेड़ पालन भोटिया जनजाति की आजीविका का प्रमुख साधन रहा है। यह जनजाति भेड़ से ऊन निकालकर कई प्रकार के वस्त्र उत्पाद तैयार करती है। जिनमें स्वेटर, शॉल, पंखी, जुराब, मफलर टोपी और भोटिया- दन्न (ऊनी कालीन) काफी मशहूर हैं। इन सभी उत्पादों को विशुद्ध रूप से हाथ से तैयार किया जाता है लिहाजा इसे बनाने में काफी समय तो लगता ही है, साथ ही मेहनत भी बहुत लगती है और यह काफी असरदार और महंगी होती है। उत्तराखंड में पारंपरिक कला को संरक्षण दिए जाने की कवायद शुरू हो चुकी है । राज्य के भोटिया जनजाति द्वारा तैयार किए जाने वाले भोटिया-दन्न दन कालीन अब जल्द ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने जा रहा है। भोटिया-दन्न को ज्योग्राफिकल इंडिकेशन (जी आई) टैग प्रदान करने के लिए आवेदन किया था जिसके मिलने के बाद इस कालीन के लिए अंतरराष्ट्रीय बाजार के लिए खुल जाएंगे।

उत्तराखंड का प्राचीन हस्तशिल्प कालीन उद्योग तकनीकी युग में धीरे-धीरे सिमटने की कागर पर पहुँच चुका है। जबकि किसी जमाने में पिथौरागढ़, बागेश्वर, चमोली जैसे दूरदराज के पर्वतीय जिलों में यह उद्योग काफी फलते -फूलते रहे थे।धारचूला और मुनस्यारी में कभी पांच हजार से अधिक परिवार ऊनी हस्तशिल्प पर निर्भर थे। तिब्बत से ऊन आयात करने के साथ ही स्थानीय स्तर पर भी भेड़ों से ऊन निकाला जाता था। यहां के ऊन से निर्मित दन्न-कालीन, स्वेटर, मफलर, मोजे, दस्ताने, पंखी, चुटका और थुलमा की बाजार में बड़ी मांग थी। शादी विवाह में दन-कालीन को गिफ्ट करने का रिवाज हुआ करता था। सोफा सेट में बिछाने के लिए भी ऊन के दनों की बेहद डिमांड हुआ करती थी जिसके चलते लोगों को दन्न बनाने से फुरसत ही नहीं मिलती थी। वहीँ बागेश्वर के मोहल्ला भोटिया पड़ाव, जीतनगर मंडलसेरा, बनखोला, नई बस्ती चौरासी समेत कांडा के ग्राम थाला, कपकोट के ग्राम फरसाली, शामा के कई लोग काली, मोजे, टोपी, स्वेटर, दन्न, मफलर, थुमला, कोट, जैकेट हथकरघा से बनाते थे। हस्तशिल्पियों को एक कालीन तैयार करने में महीना भी लग जाता है। जिससे कालीन कीमत भी ज्यादा होती है।

भोटिया दन्न थुलमा (कंबल) की तहत एक गर्म और भेड़ की ऊन से तैयार किया जाने वाला दन्न है। आसान शब्दों में कहें तो यह एक कार्पेट है। बस फर्क इतना है कि थुलमा (कंबल) ओढ़ने के काम आता है जबकि दन्न बिछाने में इस्तेमाल किया जाता है। भोटिया दन एक विशेष प्रकार का कालीन है, जो कि बेहद गर्म होता है। भोटिया दन्न काफी टिकाऊ प्रोडक्ट है। बाजार में मिलने वाले ऑर्डिनरी कॉरपेट से यह काफी अच्छी गुणवत्ता का और लंबे समय तक चलने वाला होता है। दरअसल यहां बनाए जाने वाले पूजा-दन्न, योग- दन्न, सोफा-दन्न, रूम-दन्न, कुर्सी-दन्न को बाजार नहीं मिल पाया है। दस फीट लंबा और चार फीट चौड़े दन्न को तैयार करने में करीब 20 दिन का समय लगता है। इसकी कीमत 15 से 20 हजार रुपये के बीच आती है और यह 35 से 40 साल तक आसानी से चल जाता है।

पिछले कुछ वर्षों से चाइनीज कालीन व तीन, चार सौ रुपये तक की प्लास्टिक की दरियां, चटाई के बाजार में आने के बाद स्थानीय लोग इन महंगी कालीनो से दूरी बना ली थी। इधर उचित दाम न मिलने के कारण युवा पीढ़ी, अपने इस पारंपरिक कारोबार को छोड़ कर रोजगार के अन्य विकल्प तलाशने के लिए पलायन करने लगी। इधर सरकारों ने भी कभी को इस परंपरागत हस्तशिल्प को बचाने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किये जिससे इस प्राचीन व्यवसाय को बढ़ावा मिलता और सीमान्त गांवों से पलायन भी रूकता। पलायन आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार पिथौरागढ़ से युवाओं ने सबसे ज्यादा पलायन रोजगार के लिए किया है। यदि सरकार इस परंपरागत उद्योग को आधुनिक स्वरूप दे तो युवाओं के लिए रोजगार का बड़ा साधन बन सकता था।

हाल ही में उत्तराखंड की लोक संस्कृति और हस्तकला को ग्लोबल प्लेटफॉर्म पर उत्तराखंड के 5 प्रोडक्ट को जीआई टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेटर टैग मिला है। जीआइ टैग मिलने के बाद उम्मीद है कि अब देश-विदेशों से भी ग्रामीणों के पास दन्न के अलावा भेड़ की ऊन से बने अन्य पारंपरिक वस्त्र जैसे थुलमा, पंखी, शाल, स्वेटर, कोट, चुटका आदि की भी डिमांड आएगी। जीआई टैगिंग से वैल्यू बढ़नी भी स्वभाविक है ।

यह लेखक के निजी विचार हैं ।

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