तिलाड़ी कांड- उत्तराखंड के इतिहास से

आज 30 मई है। तिलाड़ी के शहीदों को याद करने का दिन। टिहरी राजशाही के दमनकारी चरित्र के चलते इतिहास के उस काले अध्याय का प्रतिकार करने का दिन जब 30 मई 1930 को अपने हक-हकूकों को लेकर टिहरी रियासत के खिलाफ आंदोलन कर रही निहत्थी जनता को राजा ने गोलियों से भून दिया था। तिलाड़ी कांड के 88 वर्षो बाद आज हम सब लोकतांत्रिक व्यवस्था में हैं। फिर देश में एक नई सरकार बनी है। उसका शपथ ग्रहण समारोह है। कुछ बदला नहीं है इन वर्षों में, तब राजा नरेन्द्र शाह थे, आज उनकी वशंज राज्यलक्ष्मी शाह हैं जो फिर से टिहरी से सांसद बनी हैं। देश में पिछले 17 लोकसभा चुनाव में 14 बार राजशाही का कब्जा रहा। जल, जंगल और जमीन के सवाल वहीं खड़े हैं, जिनके लिये तिलाड़ी में किसानों ने अपना बलिदान दिया था। ये सवाल और खतरनाक होकर हमारे सामने खड़े हैं। जिस समय देश में भारी बहुमत से सरकार का गठन किया जा रहा है, उत्तराखंड में भी भाजपा की सरकार है, ऐसे समय में हमें जंगल और जमीन से अलग करने के लिये दो कानूनों को पास किया जा रहा है। पहला है उत्तराखंड का भूमि कानून जिसके तहत पूंजीपतियों को कितनी भी जमीन खरीदने की छूट होगी, दूसरा है 1927 के वन कानून में संशोधन, जिसके तहत हमारी गाय-बकरियों को भी जंगल में जाने की इजाजत नहीं होगी। ऐसे समय में तिलाड़ी के हक-हकूकों के लिये शहीद हुये लोगों की स्मृति और प्रासंगिक हो जाती है। नया रास्ता दिखाने वाली हो जाती है। तिलाड़ी के शहीदों को शत-शत नमन।

उत्तराखंड के इतिहास में तिलाड़ी को याद करने का मतलब है, प्रतिकार की एक सशक्त धारा को याद करना। एक ऐसे समय और व्यक्तियों को भी याद करना जो अपनी थाती को बचाने के लिये लड़ने और सच के साथ खड़े होने की ताकत से भरे हैं। उत्तरकाशी की यमुना घाटी में स्थित बडकोट के पास है तिलाड़ी। रियासत ने जनता के हक-हकूकों को छीनने के लिये दमनकारी नीतियों का सहारा लिया था। इसके खिलाफ जनता तिलाड़ी के मैदान में रणनीति बनाने के लिये सभा कर रहे थे। लोगों का गुस्सा भी बढ़ रहा था। दमनकारी नीतियों, नौकरशाही, बेगार, प्रभु सेवा, बढ़े हुये करों से भी यह प्रतिकार जुड़ा था। देश में आजादी की हलचल का प्रभाव भी इस आंदोलन में था। रंवाई घाटी में रियासती प्रशासन के दमन के खिलाफ हालांकि प्रतिकार के स्वर 1820 से ही शुरू हो गये थे। 1835 में सकलाना तथा रवांई में आंदोलन चला। 1851 में सकलाना की अठूर पट्टी में आंदोलन हुआ। उस समय गन्तूर, रामसिराई और रंवाई में ढंढक दबाये गये। राजशाही के क्रूर दमन के खिला् जनवरी 1887 को ढंढक हुआ। कुजड़ी में 1903 में ढंढक हुई। 1906 में खास पट्टी में ढंढक हुई। 1915 में जंगलाती बंदोबस्त तथा सौण्या सेर एवं बिसाउ प्रथा के खिलाफ कछाकोट, रमोली और सकलाना पट्टियों में हुआ। उसके बाद 1927-28 में नये वन बंदोबस्त द्वारा जंगलात के अधिकारों को सीमित किया गया। इससे रंवाई प्रतिरोध की पृष्ठभूमि बनी। इस दौर में राजगढ़ी वन आंदोलन चला। मई 1930 में रंवाई में जिस आंदोलन की अभिव्यक्ति हुई वह न तो एकएक हुई घटना थी और न सिर्फ वन अधिकारों को सीमित करना ही उसका अकेला कारण था। जंगलात की नई व्यवस्था के अन्तर्विरोधों तथा रंवाईं की जनता को इसने असंतोष को अतिरिक्त ऊर्जा दी।

खैर, इस पर लंबी बातचीत होगी। फिलहाल तिलाड़ी के शहीदों पर। 1927-28 में टिहरी राज्य में जो वन व्यवस्था की गई उसमें वनों की सीमा निर्धारित करते समय ग्रामीणों के हितों की जान-बूझ कर अवहेलना की गई, इससे वनों के निकट के ग्रामों में गहरा रोष फैल गया। रवांई परगने में वनों की जो सीमा निर्धारित की गई उसमें ग्रामीणों ने आने-जाने के रास्ते, खलिहान और पशुओं के बांधने के स्थान भी वन सीमा में चले गये। जिससे ग्रामीणों के चरान, चुगान और घास-लकड़ी काटने के अधिकार बंद हो गये। वन विभाग की ओर से आदेश दिये गये कि सुरक्षित वनों में ग्रामीणों को कोई अधिकार नहीं दिये जा सकते।

टिहरी रियासत की वन विभाग की नियमावली के अनुसार राज्य के समस्त वन राजा की व्यक्तिगत सम्पत्ति मानी जाती थी, इसलिये कोई भी व्यक्ति किसी भी वन्य जन्तु को अपने अधिकार के रूप में बिना मूल्य के प्राप्त नहीं कर सकता। यदि राज्य की ओर से किसी वस्तु को निःशुल्क प्राप्त करने में छूट दी जायेगी तो वह महाराजा की विशेष कृपा पर दी जायेगी। जो सुविधायें वनों में जनता को दी गई है, उन्हें महाराजा स्वेच्छानुसार जब चाहे रद्द कर सकेंगे।

उस समय आज की जैसी सुविधायें नहीं थी, पशुओं से चारे से लेकर कृषि उपकरणों से लेकर बर्तनों तक के लिये भी लोग जंगलों पर ही आश्रित थे, लेकिन जब जनता शासन तंत्र से पूछती कि जंगल बंद होने से हमारे पशु कहां चरेंगे? तो जबाब आता था कि ढंगार (खाई) में फेंक दो। यह बेपरवाह उत्तर ही वहां के लोगों के विद्रोह की चिंगारी बनी। टिहरी रियासत के कठोर वन नियमों से अपने अधिकारों की रक्षा के लिये रवांई के साहसी लोगों नें ‘आजाद पंचायत’ की स्थापना की और यह घोषणा की गई कि वनों के बीच रहने वली प्रजा का वन सम्पदा के उपभोग का सबसे बड़ा अधिकार है। उन्होंने वनों की नई सीमाओं को मानने से अस्वीकार कर दिया तथा वनों से अपने उपभोग की वस्तुयें जबरन लाने लगे।

इस प्रकार से रंवाई तथा जौनपुर में ग्रामीणों का संगठन प्रबल हो गया, आजाद पंचायत की बैठक करने के लिये तिलाड़ी के थापले में चन्द्राडोखरी नामक स्थान को चुना गया। इस प्रकार वन अधिकारों के लिये आन्दोलन चरम बिन्दु पर 30 मई, 1930 को पहुंचा, तिलाड़ी के मैदान में हजारों की संख्या में स्थानीय जनता इसका विरोध करने के लिये एकत्रित हुई और इस विरोध का दमन करने के लिये टिहरी रियासत के तत्कालीन दीवान चक्रधर दीवान के नेतृत्व में सेना भी तैयार थी। आजाद पंचायत को मिल रहे जन समर्थन की पुष्टि हजारों लोगों का जनसमूह कर रहा था, इससे बौखलाये रियासत के दीवान ने जनता पर गोली चलाने का हुक्म दिया। जिसमें अनेक लोगों की जानें चली गई और सैकड़ों घायल हो गये। 28 जून, 1930 को ‘गढ़वाली’ पत्र ने मरने वालों की संख्या सौ से अधिक बताई। इस गोली कांड की बर्रबरता यह लोकगीत व्यक्त करता है-

ऐंसी गढ़ी पैंसी,
मु न मारया चकरधर मेरी एकात्मा भैंसी।
तिमला को लाबू,
मु न मारया चकरधर मेरो बुड्या बाबू।
भंग को घोट,
क्नु कदु चकरधर रैफलु की चोट।
ल्ुवा गढ़ी कुटी,
कुई मार गोली चकरधर कुई गंगा पडौं छूटी।

तिलाड़ी के शहीद (30 मई, 1930)

अजीत पुत्र काशी सिंह, झूना सिंह पुत्र खड़ग सिंह,

गौरू पुत्र सिनकया, नारायण सिंह पुत्र देबू सजवाण,

भगीरथ मिस्त्री पुत्र जुल्मू, हरीराम पुत्र रूपराम।

तिलाड़ी के आंदोलनकारी (जेल में शहीद)
गुन्दरू पुत्र सागरू,

गुलाब सिंह ठाकुर, ज्वाला सिंह पुत्र जमना सिंह,

जमन सिंह पुत्र लच्छू,

दिला पुत्र दलपति, मदन सिंह,

लुदर सिंह पुत्र रणदीप।तिलाड़ी के शहीदों को शत्-शत् नमन..!

साभार : चारू तिवारी