साभार – योगेश भट्ट वरिष्ठ पत्रकार
कोरोना का संकट अभूतपूर्व है। इस संकट से पार पाने की तैयारी किसी की भी नहीं थी। न सरकार की, न सिस्टम की और न ही आम जनता की। कोहराम तो पूरी दुनिया में है, मगर दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था कहे जाने वाले भारत की हकीकत सड़कों पर नजर आ रही है। एक-एक मौत का हिसाब निकाला जाए तो कोरोना से मरने वालों से बड़ा आंकडा घर गांवों को लौट रहे उन प्रवासी कमागारों का बैठेगा जो भूख, थकान, सड़क दुर्घटना या बीमारी का इलाज न मिलने से बीच रास्ते में मर रहे हैं ।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में बड़ी आबादी कोरोना से ज्यादा अव्यवस्थाओं और सरकारी कुप्रबंधन की शिकार हो रही है। केंद्र समेत राज्यों की सरकारें चिंता तो कर रही हैं मगर समय पर सही फैसले नहीं ले पा रही हैं। व्यवस्थाएं जुमलों से बाहर नहीं आ पा रही हैं। सरकारी फैसलों में असमंजस, बौखलाहट, अपरिपक्वता और अनुभवहीनता साफ नजर आ रही है, सरकार के फैसले ही कोराना से चल रही जंग में आड़े आने लगे हैं।
हालात बेहद नाजुक स्थिति में हैं, संवेदनहीनता चरम पर है। जिस वक्त सरकार को देश के करोड़ों कामगारों में भरोसा स्थापित करना था, उन्हें आश्वस्त करना था कि सरकार किसी भी हाल में उन्हें और उनके परिवार को भूखा नहीं रहने देगी, बेगार नहीं होने देगी, लाइलाज नहीं होने देगी, उस वक्त देश की तकरीबन 210 लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का चक्का चलाने वाले दस करोड़ से अधिक कामगारों में भगदड़ है। उन्हें किसी पर भरोसा नहीं, रोजी रोटी की जिस मजबूरी के चलते जो कभी घर गांव छोड़ महानगरों की ओर आए उसी रोजी रोटी के लिए अपने घर गांव लौटने को मजबूर हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चांद पर पहुंचाने और महाशक्ति बनाने का सपना दिखाने वाली सरकारें इतनी अव्यवस्थित, लाचार, असहाय हैं कि कामगारों को सुरक्षित उनके घर गांव तक पहुंचाने की व्यवस्था तक नहीं कर पा रही हैं। न कोई प्लान है न कोई नीति, भूखे नंगे पैर पैदल रास्ते लगे कितने लोग अपनी मंजिल तक पहुंचे और कितनों ने मंजिल तक पहुंचने से पहले दम तोड़ दिया इसका कोई आंकड़ा नहीं है।
इन कामगारों के अलावा एक तबका और भी है जो सड़क पर तो नहीं है लेकिन जिसकी चिंता यही है कि मौजूदा हालात में वह कभी भी सड़क पर आ सकता है। देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान बीते पचास दिनों में तमाम हृदयविदारक तस्वीरें सामने आयी हैं, मानवता तार-तार हो चुकी है। औरंगाबाद में माल गाड़ी की चपेट में आने वाले 16 मजदूरों की मौत का मंजर हो या राजमार्गों पर बिलखते बच्चों को लिए पैदल ही सैकड़ों मील का सफर तय करते महिला पुरूष और बच्चों की तस्वीरें, यह सोचने के लिए मजबूर कर रहे हैं कि हम कहां खड़े हैं।
आज की सच्चाई यह है कि देश ‘नागरिक अशांति’ की कगार पर पहुंच चुका है, एक इंसान होने के जो बुनियादी अधिकार हैं, एक बड़ी आबादी आज उससे वंचित हो चुकी है। कोरोना नाम के एक वायरस ने पूरे देश की पोल खोल दी है। अक्षम-सक्षम और अमीरी गरीबी का फासला कितना गहरा है यह अब साफ नजर आ रहा है। इसे लेकर भ्रम की स्थिति है कि असली भारत कौन सा है, जो चांद पर पहुंचने की तैयारी कर रहा है वो, या फिर वो सैलाब जो देशव्यापी लॉकडाउन में फटेहाल सडकों पर है ?
कौन सा है असली भारत, जो लॉकडाउन में आलीशान बंगलों, महलों में कैद है या फिर वो, जो महानगरों में श्रमिक शिविरों में है ? कौन सा है असली भारत, जिसकी घर वापसी विशेष विमान, वातानुकूलित बसों और विशेष ट्रेनों से हो रही है या वो, जो घर गांव लौटने को किसी मदद का इंतजार कर रहा है ?
स्पष्ट है कि सरकार और सिस्टम से बड़ी-बड़ी गलतियां हुई हैं, असली भारत को भांपने में भी चूक हुई। असल भारत का तो मानो सरकार को अंदाजा ही नहीं था, असल भारत को सरकार ने भांपा होता तो देशव्यापी लॉकडाउन से पहले पूरा होमवर्क किया जाता। प्रवासी मजदूरों को या तो सुरक्षित उनके घरों को पहुंचाया जाता या उन्हें उन्हीं के स्थान पर हर तरह की सुरक्षा का भरोसा दिया जाता। जो पैकेज अब घोषित किया उसकी घोषणा लाकडाउन के साथ ही की जाती और लॉकडाउन के दौरान उस पर अमल के लिए व्यापक कार्ययोजना तैयार की जाती।
बहरहाल वही हो रहा है जिसका अंदेशा था, सरकार की चूक बड़ी मुसीबत बनती जा रही है। महानगरों से घर गांवों को लौट रही भीड़ भूख और बेराजगारी के साथ ही अब संक्रमण भी ला रही है। संक्रमण की संभावनाएं और उसका डर पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ गया है। इधर सरकार अब एक के बाद एक राहत पैकेजों की घोषणा कर रही है। पहले 20 लाख करोड़ और फिर 3.16 लाख करोड़ के बडे़ राहत पैकेजों की घोषणा से साफ है कि सरकार इतना तो जान चुकी है कि काफी कुछ पटरी से उतर चुका है।
सरकार एक भारी भरकम पैकेज के जरिए गरीब, मजदूर, किसान को एक बार फिर सपने दिखाने की कोशिश कर रही है। अभी तक स्मार्ट सिटी, बुलेट ट्रेन की बातें करने वाली सरकार अचानक गांव की बात करने लगी है। कोरोनाग्रस्त महानगरों से लाखों की भीड़ गांव पहुंचने के बाद गांवों को कोरोना से मुक्त रखने की बात की जा रही है।
अब दिक्कत यह है कि एक ओर संक्रमण का खतरा बढ़ता जा रहा है , दूसरी ओर अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी है। हताश, निराश कामगारों की बड़े पैमाने पर घर वापसी हो रही है मगर सरकार अभी भी स्थितियां नहीं समझ रही है। सरकार रोजगार, कारोबार, मकान और दुकान के सपने दिखा रही हैं, सरकार यह नहीं समझ रही है कि जिन स्थितियों का बीते दो महीने से लोग सामना कर रहे हैं, उनमें वे कोई सपना देखने की स्थिति में नहीं हैं।
उन्हें तो संकट के इस वक्त सरकार से हिम्मत, भरोसे और अपनेपन की दरकार है । सरकार यह भूल रही है कि यह वह तबका है जो जन्म के साथ ही गरीबी को अपनी नियति मानकर चलता है, और बस किसी तरह अपना और अपने परिवार की गुजर करता है। यह वह भीड़ है जिसके पास एक महीने की गुजर के लिए भी चंद रूपए नहीं होते, जिसके पास परिवार सहित घर लौटने का किराया तक नहीं होता।
कामगारों की यह भीड़ अब सरकार पर यकीन करे भी तो कैसे ? क्या गारंटी है कि लाखों करोड़ के जिन राहत पैकेजों की घोषणा सरकार कर रही है वह गरीब मजदूर तक पहुंचेंगे ? क्या गारंटी है कि इस पैकेज का हाल केंद्र की कौशल विकास योजना के जैसा नहीं होगा ? जहां तक बेराजगारी और गरीबी का सवाल है तो वह पहले से ही भयावह बनी हुई है। गरीबी और बेरोजगारी की वजह से हर रोज औसतन दस लोग आत्महत्या कर रहे हैं।
संकट के वक्त इस समय जिस कृषि से सरकार उम्मीद लगाए बैठी है, उस कृषि अर्थव्यवस्था की हालत बहुत खराब है। महात्मा गांधी राष्टीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम के तहत मजदूरों को 15 दिन के अंदर भुगतान हो जाना चाहिए, लेकिन देश के तमाम राज्यों में महीनों तक भुगतान नहीं हो पाता है। राज्यों का हाल यह है कि उनकी पूरी तरह निर्भरता केंद्र पर है।
एक सच्चाई यह है कि कोराना महामारी तो गरीबी और बेरोजगारी के लिए भारत में बड़ा बहाना बन रही है। कोरोना ने तो गरीबी और बेरोजगारी बढ़ाने में “कोढ़ पर खाज” सरीखा काम किया है। अपने देश में तो हालात कोरोना महामारी की दस्तक से पहले ही बिगड़ने शुरू हो चुके थे। अमीरी-गरीबी का फासला और गहराने लगा था। आक्सफेम की रिपोर्ट में अमीरों के पास संपत्ति का बहुत बड़ा आंकड़ा सामने आया है।
बीते पंद्रह सालों में देश में 228 अरब डालर की संपत्ति बढ़ी मगर इसका बड़ा हिस्सा देश की उस पांच फीसदी आबादी के पास गया जिसका देश की कुल संपत्ति के सत्तर फीसदी पर कब्जा है। उधर दूसरी ओर नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2030 तक गरीबी मुक्त भारत के अपने लक्ष्य में भारत चार अंक और नीचे लुढ़क गया है। देश में गरीबी रेखा से भी नीचे बसर करने वाली आबादी 21 फीसदी तक पहुंच चुकी है। देश के 22 राज्य गरीबी दूर करने में आगे बढ़ने के बजाय काफी पीछे जा चुके हैं। बेराजगारी की दर पिछले चालीस सालों के सर्वोच्च स्तर पर है।
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अर्थशास्त्री की राय है कि सरकार अमीर वर्ग से संपत्ति कर वसूले और इस धन को योजनाओं के जरिए ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था को सुधारने में खर्च किया जाए। गरीबी कम करने के लिए रोजगार बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। ऐसा रोजगार जो आम लोगों का जीवन स्तर सुधारे। आजादी के बाद से अब तक सैकड़ों योजनाएं बनीं, हजारों करोड़ रूपया योजनाओं के नाम पर खर्च भी हुआ मगर कामगारों का जीवन स्तर नहीं सुधरा। आखिर कहां गया वो हजारों करोड़ रूपया ? किसका जीवन स्तर सुधरा ?
बहरहाल कोरोना महामारी से बचने के लिए किए गए देशव्यापी लॉकडाउन ने जो तस्वीर दिखायी है वह बेहद डरावनी है। सरकार को चाहिए कि अब सिर्फ कोरे सपने न दिखाये, सिर्फ मुफ्त की राशन से न लुभाए, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था का चक्का चलाने वाले इन कामगारों को भरोसा दिलाए।