“संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत निर्धारित प्रतिबंधों के अलावा, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के तहत किसी नागरिक पर कोई अतिरिक्त प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता है” :सुप्रीम कोर्ट
जब से भारत का संविधान बना और लागू किया गया है, अभिव्यक्ति की आजादी और अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्र मीडिया की चर्चा, किसी न किसी संदर्भ में होती रही है। भारत में मीडिया पूर्णतरू स्वतंत्र है, लिहाजा लोकतंत्र जिन्दा है। लेकिन उस पर ‘तर्कसंगत प्रतिबंध’ लगाए जाते रहे हैं। कारण राष्ट्रीय सुरक्षा या संवेदनशील नीतियों के उल्लंघन का बताया जाता रहा है। सरकार ‘तार्किक पाबंदियों’ की व्याख्या नहीं करती, लिहाजा अनुच्छेद 19 बौना और अप्रभावी साबित होता रहा है। संविधान ने भी ऐसे मानक तय नहीं किए हैं, जिनके आधार पर प्रतिबंधों की तार्किकता को परखा जा सके। अदालतों ने भी सटीक व्याख्या नहीं की है, नतीजतन पत्रकारों पर प्रहार जारी रहे हैं और मीडिया की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार बेमानी साबित होने लगता है। ऐसे निराशाजनक और अनिश्चित माहौल में सर्वोच्च अदालत ने अनुच्छेद 19 की स्पष्ट व्याख्या की है और मीडिया को सुरक्षित रखने की महत्त्वपूर्ण कोशिश की है।
मामला मलयालम न्यूज चैनल ‘मीडिया वन’ के अस्तित्व का था जिसके लाइसेंस का नवीकरण भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने खारिज कर दिया था। चैनल पर राष्ट्रीय सुरक्षा के उल्लंघन के गंभीर आरोप चस्पा किये गए थे। लिहाजा चैनल ने पहले तो केरल उच्च न्यायालय में इस पाबंदी को चुनौती देते हुए सरकार से पूछा कि उनके द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा का उल्लंघन कैसे किया गया ? भारत सरकार ने सार्वजनिक रूप से स्पष्ट नहीं किया था, क्योंकि सूचना-प्रसारण मंत्रालय का जवाब सीलबंद लिफाफे में बंद था। ऐसी स्थिति में गोपनीयता का तर्क भी दिया जाता है और अपील कर्ता खुलकर अपना बचाव नहीं कर सकता, नतीजतन उच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में न्यायिक समीक्षा की संभावनाएं और गुंजाइश भी सीमित हैं। जिसके बाद इस मामले में केरल हाईकोर्ट ने 15 मार्च, 2022 को अंतरिम आदेश पारित किया जिसमें चैनल को अंतिम निर्णय तक अपना संचालन जारी रखने की अनुमति दी गई थी। इसके बाद मामले को लेकर न्यूज चैनल ने देश की शीर्ष अदालत से हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया। और अनुच्छेद 19 के तहत मीडिया की स्वतंत्रता की गारंटी प्रतिपादित करने का अनुरोध किया।
उसके बाद सर्वोच्च अदालत के प्रधान न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में न्यायिक पीठ ने सीलबंद लिफाफे को खोला और सरकार के निर्णय का आधार सार्वजनिक हो गया। ‘गुप्तचर ब्यूरो’ की दलील थी कि ‘मीडिया वन’ सत्ता-विरोधी है, क्योंकि उसने सेना और न्यायपालिका की आलोचना की है। न्यायिक पीठ ने इन आधारों और दलीलों को खारिज कर दिया। प्रक्रिया और ठोस आधार पर ‘मीडिया वन’ के पक्ष में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आगाह किया कि राष्ट्रीय सुरक्षा के दावे हवा में नहीं किए जा सकते और इसके समर्थन में मजबूत तथ्य होने चाहिए। इसमें कहा गया कि यदि कम प्रतिबंधात्मक साधन उपलब्ध हैं और अपनाए जा सकते हैं तो सीलबंद कवर प्रक्रिया नहीं अपनाई जानी चाहिए।
अदालत ने कहा, “सीलबंद कवर प्रक्रिया को नुकसान को कवर करने के लिए पेश नहीं किया जा सकता, जो सार्वजनिक प्रतिरक्षा कार्यवाही द्वारा उपचार नहीं किया जा सकता है … प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को तब बाहर रखा जा सकता है जब राष्ट्रीय सुरक्षा के हित अधिक हो जाते हैं। लेकिन प्रकटीकरण से प्रतिरक्षा प्रदान नहीं की जा सकती है … मुहरबंद कवर प्रक्रिया यह नैसर्गिक न्याय और खुले न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है। “प्रेस का कर्तव्य है कि वह सत्ता से सच बोले और नागरिकों को कठिन तथ्यों के बारे में सूचित करे। सरकार की नीतियों के खिलाफ चैनल के आलोचनात्मक विचारों को प्रतिष्ठान विरोधी नहीं कहा जा सकता। यह विचार कि प्रेस को हमेशा सरकार का समर्थन करना चाहिए यह अनुच्छेद 19 की सरासर गलत और मनमानी व्याख्या है। राष्ट्रीय सुरक्षा के संदर्भ में भी ऐसे प्रतिबंध मीडिया पर नहीं लगाए जा सकते। किसी चैनल के लाइसेंस का नवीनीकरण न करना अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंध है और इसे केवल अनुच्छेद 19(2) के आधार पर लगाया जा सकता है। इसने आगे कहा कि चैनल के शेयरधारकों का जमात-ए-इस्लामी हिंद से कथित जुड़ाव चैनल के अधिकारों को प्रतिबंधित करने का वैध आधार नहीं है। अदालत ने यह भी माना कि देश में ऐसी कई सरकारें हैं, जो पत्रकारिता पर ढक्कन लगाने के मद्देनजर ‘तार्किक प्रतिबंध’ का इस्तेमाल कर रही हैं, क्योंकि पत्रकार सरकारों के ‘नेरेटिव’ पर सवाल करते हैं। मीडिया के संवैधानिक अधिकार के पक्ष में सर्वोच्च अदालत का यह फैसला महत्त्वपूर्ण ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक माना जा सकता है।