असत्याग्रही का इतिहास लेखन
बांग्लादेशी घुसपैठियों को खदेड़ बाहर करने के आक्रामक और विभाजनकारी एजेंडे के साथ बंगाल चुनाव लड़ने पहुंचे प्रधानमंत्री खुद बीच चुनाव में बांग्लादेश में घुसपैठ कर बैठे और मुजीब जैकेट्स बांटते-बांटते खुद ही खुद को मुजीबुर्रहमान से बड़ा नहीं, तो कम-से-कम उनका समकक्ष मुक्तियोद्धा बनने का करतब दिखाने पर आमादा-ए-फसाद होकर ऐसा दावा कर गए कि अब झुठल्लों की वैतरणी आईटी सैल की भी साँसे फूली हुयी हैं।
इतिहास के बड़े-बड़े सत्याग्रहियों में कई नाम शुमार किये जा सकते हैं, किन्तु यह निर्विवाद है कि हालिया दौर के सबसे बड़े असत्याग्रही – नरेंद्र दामोदर दास मोदी – हैं। इस बार उन्होंने बंगलादेश में दिनदहाड़े, सरेआम, खुलेआम यह दावा कर मारा कि बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में उन्होंने न सिर्फ सत्याग्रह किया था – बल्कि इसके लिए वे जेल तक गए थे।
अब जाहिर है कि रावलपिण्डी की जिस जेल में बंग-बन्धु मुजीब रखे गए थे, उसमे तो ये नहीं ही गए थे। ढाका, कोमिल्ला या चट्टगांव की जेल में भी नहीं गए थे। उनके असत्याग्रही दावे में ही निहित है कि यह सत्याग्रह उन्होंने उस वक़्त की पाकिस्तान सरकार के खिलाफ नहीं, बल्कि भारत सरकार के खिलाफ किया था – और उसने उन्हें तिहाड़ जेल में भेजा था। सुनते हैं कि कुछ सत्य-आग्रहियों ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) में दरखास्त लगाकर इस बारे में तिहाड़ जेल वालों से माहिती माँगी है। उसका जवाब दिल्ली यूनिवर्सिटी द्वारा एंटायर पोलिटिकल साईंस की उनकी डिग्री के बारे में पूछे गए सवाल की तर्ज पर ही आने वाला है, क्योंकि प्रशासन की हर शाख पर संघी बैठा है – जिसे मालूम है कि उसे गुलिस्ताँ को किस अंजाम तक पहुंचाना है।
यहां सवाल ग्रीक कथाओं के नार्सिसस के इस आधुनिक संस्करण की आत्ममुग्धता, आत्मरति के बारे में फिर से लिखना नहीं है। आखिर एक कुटेव पर कितनी बार लिखा जा सकता है? यहां सवाल झूठों के सरताज के नए झूठ को रेखांकित करने का भी नहीं है। यह भी रोज का काम है। इस मामले में भी वे अपनी मिसाल आप हैं। जब भी मुंह खोलते हैं, शर्तिया एक-न-एक झूठ उनकी जुबान से निकलता ही है। लिहाजा इसे भी आखिर कितनी बार अंडरलाइन किया जाये? सत्तर के दशक के एक मजाहिया शायर ने अपने मजाहिया अंदाज में कहे एक गैर-मजाहिया, गहरे शेर में फ़रमाया था कि :
“हमारे फासले माज़ी से कुछ यूँ दरमियाँ निकले
जहाँ खोजी नयी क़ब्रें वहीँ अब्बा मियाँ निकले।”
इस शेर को यदि वे आज लिखते तो रदीफ़ और काफ़िये के वजन का ख्याल रखते हुए भक्तों के अब्बा मियाँ की जगह फ़ेंकू भिया कर देते।
मगर दिक्कत यह है कि यहां मसला इतना भर नहीं है कि आत्ममुग्ध मियाँ ने एक और झूठ बोला है – बल्कि समस्या यह है कि ऐसा करते हुए मियाँ ने अपने कुल-कुटुम्ब द्वारा भारत और मानवता के प्रति किये एक और बड़े अपराध को छुपाने की कोशिश की है। बांग्लादेश की मुक्ति लड़ाई के समय अमरीकी एजेंडे को भारत में लागू करवाने की अपनी राजनीतिक बिरादरी (तबके जनसंघ) की भारतद्रोही हरकतों पर पर्दा डालने की असफल कोशिश की है।
बांग्लादेश की मुक्ति में भारतीय अवाम की जबरदस्त एकता, तब की तकरीबन सभी राजनीतिक धाराओं की एकजुटता इतिहास में दर्ज है। मार्च में शेख मुजीबुर्रहमान की गिरफ्तारी के बाद बांग्लादेश की घोषणा होना, उसका मुख्यालय कलकत्ता (अब कोलकाता) में स्थापित होना, प्रधानमंत्री के तब के सलाहकार डॉ अशोक मित्रा, जो पहली वाममोर्चा सरकार में ज्योति बसु के मंत्रिमण्डल में वित्तमंत्री बने, का बांग्लादेश के मुक्तियोद्धाओं तथा भारत सरकार के बीच मुख्य सम्पर्क सूत्र बनना प्रामाणिक इतिहास का हिस्सा है। बांग्लादेश की मुक्ति में भारत की मदद, खासतौर से अंतर्राष्ट्रीय मंचों की शह और मातों से बचने के लिए अपनाई गयी कूटनीति, देश और दुनिया के पाठ्यक्रमों में पढ़ाये जाने के काबिल है / पढ़ाई भी जाती है। इस कूटनीति में सबसे मार्के की पूर्व-तैयारी, सामरिक भाषा में बोले तो व्यूहरचना, भारत और सोवियत संघ के बीच बीस साला मैत्री संधि का किया जाना था। इस संधि में प्रावधान था कि यदि भारत के खिलाफ कोई युद्ध छेड़ेगा, तो सोवियत संघ उसे खुद अपने विरुध्द युद्ध मानेगा और भारत की हर तरह से सहायता करेगा। इस संधि ने भारत को बांग्लादेश की मुक्ति में निबाही गयी भूमिका के चलते अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर अलग-थलग होने से ही नहीं बचाया था, बल्कि — और यह बल्कि भारतीय सामरिक इतिहास में एक अत्यंत विशिष्ट स्थान रखता है — तत्काल ही हुयी परीक्षा की कसौटी पर अपने को सौ टंच खरा भी साबित किया था।
बांग्लादेश के मुक्ति आंदोलन में की जा रही मदद से भारत को पीछे हटाने और डराने के लिए तबके अमरीकी राष्ट्रपति निक्सन ने साम्राज्यवाद की युद्धपोत कूटनीति (गन बोट डिप्लोमेसी) का फूहड़तम प्रदर्शन करते हुए ठेठ भारत की समुद्री सीमा के नजदीक – हिंदमहासागर में – अमरीकी नौसेना का सातवां बेडा भेज दिया था। भारत के इतिहास में सीधे अमरीकी सैन्य आक्रमण की इतनी साफ़ धमकी इससे पहले कभी नहीं आयी थी – इसके बाद भी अब तक तो नहीं आयी। यह भारत-सोवियत मैत्री संधि थी, जिसके तहत फ़ौरन से पेश्तर सोवियत संघ की पनडुब्बियों का पांचवां बड़ा ऐन अमरीकी जंगी बेड़े के नीचे आकर डट गया था और निक्सन के युद्धपोतों को दुम दबाकर लौटना पड़ा था। अक्टूबर 1962 के मशहूर क्यूबाई मिसाइल तनाव के बाद यह दूसरा अवसर था, जब अमरीका को अपने पाँव इस तरह पीछे खींचने पड़े थे। बांग्लादेश की आजादी साम्राज्यवादी गीदड़ भभकियों के विरुद्ध जनतांत्रिक आकांक्षाओं की सामरिक विजय और भारत की रीढ़धारी वैदेशिक नीति का एक असाधारण अध्याय है।
किन्तु इस वक़्त सवाल दूसरा है और वह यह है कि ठीक इस बीच मोदी के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जनसंघ क्या कर रहा था? वह भारत-सोवियत मैत्री संधि के खिलाफ रैलियां, सभाएं और सत्याग्रह कर रहा था। इसे गलत बता रहा था – और बांग्ला देश के मुक्तिसंग्राम के बारे में उकसावेपूर्ण अमरीकी दाने को चुगने के लिए मुहिम छेड़े था। मोदी के सत्याग्रह में जेल जाने का दावा (जो वे कभी गए ही नहीं) असल में भाजपा की पूर्ववर्ती अवतार जनसंघ की कायराना, अमरीकापरस्त भूमिका पर धूल डालने का नाकाम असत्याग्रह है। अपने राजनीतिक कुनबे की भारतद्रोही आपराधिक कारगुजारी पर पर्दा डालने की कोशिश है।
वैसे थी यह मजे की बात कि जिस संघ-जनसंघ-भाजपा ने खुद अपने देश की आजादी के लिए सत्याग्रह तो दूर, घर के तहखाने में बैठकर भी एक नारा तक नहीं लगाया, भगत सिंह और उनके साथियों की शहादत को “चंद नौजवानो की प्रचारलिप्सा” बताकर कोसा, देश के नौजवानो को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने से बरजा और रोका ; उसके नेता बांग्लादेश की मुक्ति के लिए जेल तक जाने के लिए आमादा थे!! मोदी जी तुस्सी तो गजब के मजाकिया निकले!!
मोदी उस बांग्लादेश की मुक्ति के लिए सत्याग्रह करने का दावा ठोंकने जा पहुंचे, जिसका निर्माण ही इनके इकलौते देसी आराध्य विनायक दामोदर सावरकर के धर्मो पर आधारित द्वि-राष्ट्र सिध्दांत की धज्जियाँ उड़ाकर हो रहा था। जो पूरी दुनिया और खासकर भारत के लिए उदाहरण पेश कर रहा था कि धर्म के आधार पर राष्ट्र का गठन नहीं होता, अलबत्ता इसके आधार पर देशों और सभ्यताओं का विखण्डन अवश्य होता है; जो इनके कल्ट-कुनबे आरएसएस के एक भाषा, एक धर्म, एक नस्ल, एक वगैरा-वगैरा की अवधारणा पर एक राष्ट्र के गठन की अवधारणा का खोखलापन उजागर कर रहा था – भाषायी विविधता के नकार के दुष्परिणाम सामने ला रहा था। और मोदी थे कि उसके लिए (अ)सत्याग्रह कर रहे थे!! अमां यार, फेंकने की भी थोड़ी बहुत सीमाएं होती हैं।
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गप्पों की निरंतरता और खोखले बयानों की बारंबारता सिर्फ बांग्लादेशी मुक्ति संग्राम भर के लिए नहीं है, भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के बारे में भी है। पिछले महीने भारत की आजादी के 75 वर्ष – अमृत समारोहों – की 75 सप्ताह पहले की गयी शुरुआत के समय दांडी नमक सत्याग्रह के ठीये से दिए अपने भाषण में भी भक्तों के ब्रह्मा ने यही चतुराई आजमाई है। इन पूरे 75 सप्ताहों तक चलने वाले समारोहों के लिए उन्होंने जो पंचमार्गी पंचसूत्र गिनाये हैं, उनमे सारी लफ्फाजियां हैं — बस अंग्रेजी राज की गुलामी, उसमे हुयी लूट और साम्राज्यवाद का घिनौना चेहरा नहीं है। जो देसज हैं ; चरखा और आत्मनिर्भरता, वे भी नयी बात नहीं हैं। बल्कि देसी-विदेशी कारपोरेट की लूट के लिए भारत को खुल्ला छोड़ देने वाली नीतियों में डूबे इन दिनों में तो वे अपने धिक्कार, नकार और तिरस्कार में ज्यादा हैं।
इतिहास के अपने सहगोत्रियों की तरह हिन्दुस्तानी फासिस्टों का भी साम्राज्यवाद के साथ उतना ही गहरा रिश्ता है, जितना कोबरा और विष का साथ होता है। ठीक यही वजह है कि उनके राजनीतिक विमर्श तक में साम्राज्यवाद की आलोचना का तत्व नहीं मिलता। उसके प्रति कातर समर्पण जरूर इफरात में पाया जाता है। पूरे भक्तिभाव से अंग्रेजो की चाटुकारिता करते गढ़ा गया संघियों का फर्जी राष्ट्रवाद अमरीका के पिछलग्गू बनने को आतुर अधीनस्थ पूँजीवाद तक सिमट कर रह जाता है। आखिर जो दरबारी थे, वे दरबारी ही तो रहेंगे!
आलेख : बादल सरोज (संयुक्त सचिव)
अखिल भारतीय किसान सभा