उत्तराखंड आंदोलन के नायक रणजीत सिंह वर्मा अब नहीं रहे , मसूरी गोलीकांड की बरसी पर जब राज्य के शहिदों को याद किया जा रहा था तो ठीक उसी दौरान उन्होंने अंतिम सांस ली। रणजीत सिंह वर्मा, उत्तराखंड की नयी पीढ़ी तो इस नाम से शायद ही वाकिफ हो । नयी पीढ़ी ही क्यों सैकड़ों की संख्या में सरकारी पेंशन पा रहे चिन्हित आंदोलनकारी और आंदोलनकारी कोटे में सरकारी नौकरी पाने वालों में भी बहुत से ऐसे होंगे, जो इस शख्सियत से वाकिफ नहीं होंगे । वाकिफ आखिर होते भी कैसे ? उत्तराखंड बनने के बाद यह नाम न तो सत्ता की दौड़ में शामिल था और न संसाधनों की किसी लूट में । इस नाम की शख्सियत ने न तो कभी आंदोलन में अपने किये का सर्टिफिकेट मांगा, न खुद को कभी बड़ा आंदोलनकारी नेता साबित करने की कोशिश की । नयी पीढ़ी भले ही न जानती हो लेकिन पिछली पीढ़ी और पुराने लोगों में रणजीत सिंह वर्मा का आज भी बड़ा सम्मान है । रणजीत सिंह वर्मा कोई मामूली शख्सियत नहीं थी, उनकी अपनी एक अलग राजनैतिक और सामाजिक पहचान थी । राजनैतिक व सामाजिक जीवन में वह सिद्धांत, आदर्श और उच्च मूल्यों के लिए जाने जाते हैं । अविभाजित उत्तर प्रदेश में वह दो बार मसूरी विधानसभा से विधायक रहे, कई स्कूलों के प्रबंधक, सोसायटियों के चेयरमेन और कई सामाजिक संस्थाओं के संरक्षक भी थे वह । एक वक्त जब देहरादून में खेती किसानी हुआ करती थी तो किसानों के बीच बड़ी लोकप्रियता थी उनकी । यह बात तो रही पुरानी पीढ़ी की लेकिन जिस लिए रणजीत सिंह वर्मा को नयी पीढ़ी के लिए जानना जरूरी है, वह यह है कि रणजीत वर्मा राज्य आंदोलन के एक बड़े योद्धा थे । रणजीत सिंह वर्मा को भुला दिया जाए तो देहरादून में चले ऐतिहासिह राज्य आंदोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती । आज जिस राज्य की बदौलत तमाम कैसे कैसे माननीय और महानुभाव बने बैठे हैं उस राज्य के आंदोलन को मुकाम तक पहुंचाने में उनका बड़ा योगदान था । दो बार के विधायक रह चुके रणजीत सिंह वर्मा उस वक्त उत्तराखंड आंदोलन में जान फूंक रहे थे, जब बड़े सियासी दलों से जुड़े सफेदपोश अलग उत्तराखंड राज्य के नाम पर बगलें झांकते थे । आज अस्थायी राजधानी बने देहरादून में उस वक्त आंदोलन का नेतृत्व किया जब जनता के चुने प्रतिनिधि आंदोलन से कन्नी काटते थे। उस वक्त रणजीत सिंह वर्मा ही थे, जिन्होंने तन मन धन से उत्तराखंड आंदोलन में खुद को समर्पित किया । देहरादून, जो राज्य आंदोलन का केंद्र रहा वहां रणजीत वर्मा आंदोलन के सर्वमान्य नेता थे । उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने आंदोलन की हर जरूरत को अपने दम पर पूरा किया । इसलिए नहीं कि वह किसी सियासी पहचान के मोहताज थे, इसलिए भी नहीं कि अलग राज्य के पीछे उनका कोई निजी हित था । सिर्फ इसलिए क्योंकि वह उत्तराखंड आंदोलन के एक सच्चे सिपाही थे, अलग राज्य की जरूरत के मायने बहुत अच्छे से जानते थे। देहरादून में वर्षों तक चले आंदोलन को उन्होंने कभी भटकने नहीं दिया, आंदोलनकारियों के साथ कुछ भी अप्रिय नहीं घटने दिया । देहरादून में कचहरी परिसर स्थित राज्य आंदोलन का साक्षी रहा शहीद स्थल उन्ही के कुशल नेतृत्व में स्थायी संघर्ष स्थल में तब्दील हुआ । मुजफ्फरनगर कांड के बाद न्यायालय के आदेश पर जब जेल जाने वाले आंदोलनकारियों को मुआवजा बंटा तो रणजीत सिंह वर्मा भी मुआवजा पाने वालों में शामिल थे । मुआवजे की यह रकम भी उन्होंने अपने पास नहीं रखी, उसे संघर्ष समिति को सौंप दिया । पृथक राज्य आंदोलन के वह उन सौभाग्यशाली नेताओं में थे, जिन्होंने आंदोलन लड़ा भी और जीता भी । वह चाहते तो उत्तराखंड में मुख्यमंत्री न सही मंत्री या विधायक आसानी हो सकते थे, किसी भी रूप में सत्ता के भागीदार हो सकते थे । मगर नहीं, वह संकल्पबद्ध थे कि न वह सक्रिय राजनीति में रहेंगे न ही कोई चुनाव लड़ेगे । अलग राज्य के संघर्ष के एवज में उन्होंने न कभी सत्ता की चाह रखी न किसी पद या सम्मान की । उनके समर्थक चाहते थे कि रणजीत सिंह वर्मा राजनीति में रहें, चुनाव लड़े और राज्य की विधानसभा में जनता का प्रतिनिधित्व करें । कई बार उन पर इसके लिए दबाव बनाने की कोशिश भी गयी पर वह नहीं तैयार हुए । रणजीत वर्मा चूंकि सिर्फ आंदोलनकारी ही नहीं थे, वह एक राजनैतिक व्यक्तित्व भी थे । स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा के सानिध्य में उन्होंने राजनीति का ककहरा सीखा था , इसलिए सियासत की बारीकियों को संभवत: बखूबी समझते भी थे । वह चाहते थे कि आंदोलनकारी राज्य की सत्ता में भले ही न आ पाएं मगर एक ताकत के रूप में एकजुट जरूर रहें । वह नहीं चाहते थे कि आंदोलनकारी टुकड़ों में अलग अलग राजनैतिक दलों में बंट जाएं । काश, रणजीत सिंह वर्मा जैसी निष्ठा और समर्पण और सोच आज के नेताओं की भी होती । उनके व्यक्तित्व से नयी पीढ़ियां प्रेरणा ले पातीं । मगर दुर्भाग्य देखिये आज नयी पीढ़ी के नेता, मंत्री, विधायक, सांसद और अफसर रणजीत सिंह वर्मा को जानते तक नहीं । दोष किसे दें ? सरकार, सिस्टम, सियासत, आंदोलनकारी ताकतें, आखिर कौन है इसका दोषी ? सरकारों में संवेदना होती तो राज्य आंदोलन का अभिलेख तैयार होता । पाठयक्रमों में राज्य आंदोलन को शामिल किया जाता । दोष किसी का नहीं, दोषी खुद हम हैं । जब तक यह शख्सियत जीवत रही, तब तक न उनका जिक्र किया और न ही नयी पीढ़ी से रूबरू कराया ।
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क्या कहें, समाज की यही रीत है कि जब कोई नहीं रहता, समाज तभी उसे और उसके योगदान दोनो को याद करता है । रणजीत सिंह वर्मा तो ऐसे योद्धा थे जो शरीर से ही नहीं बल्कि आत्मा से भी उत्तराखंड राज्य आंदोलन से जुड़े थे, जाते जाते वह यह खुद साबित भी कर गए । संयोग देखिये कि ठीक उत्तराखंड आंदोलन के इतिहास की बड़ी घटना मसूरी गोली कांड की बरसी के दिन रणजीत सिंह वर्मा ने भी प्राण त्यागे । जब जब मसूरी के शहीदों को याद किया जाएगा, निसंदेह उत्तराखंड आंदोलन के नायक रणजीत सिंह वर्मा को भी याद किया जाएगा ।
साभार – जनसरोकारो से जुड़े क्रन्तिकारी पत्रकार योगेश भट्ट