टीरी –बजार क्या था कि, सीधी सड़क, समतल.सुमन चौक से शुरू और बस अड्डे पे ख़तम . एक घंटे में चार चक्कर मार लो और थक गए तो थोड़ी देर हवा –घर में गंगाजी की ठंडी –ठंडी हवा खाओ बतियाओ और फिर वापस लौट के सौदा –पत्ता खरीदो और कुछ देर या तो किसी दुकानदार का दिमाग खाओ या फिर उसकी दुकान में थोड़ी देर अपना अड्डा जमाओ और थोडा गपशप मारके फिर अपने घर जाओ ?
टीरी –बजार की ये भी एक खासियत थी कि, वो अकेला ही पूरा बाजार था, कोई ब्रांच नहीं, बस मेन मार्केट . शाम को वहां कुछ परदेशियों समेत , छुट्टी में आये कुछ पुराने बाशिंदों सहित, दीदी – भुली ,चाचा –ताऊ , भैजी –भुला सब मिल जाते थे , किसी के घर जाने की भी जरुरत नहीं, बस आटोमेटिक मिलन ? यदि हमारे जैसे छोकरे हैं तो सुमन चौक में कहीं खड़े हैं किसी खोखे के आगे या पीपल के पेड़ के नीचे अर्थात पुराने बड़-डाले के भैरो देवता की बगल में खड़े हैं या फिर लईक की दुकान में बाल बनाने घुसे हैं या फिर सत्ये सिंह की कोने की दुकान में बैठकर चाय पी रहे हैं . और जो संभ्रांत नागरिक हैं तो वे महंतजी या श्यामू भाई के यहाँ पान चबाते हुए, नमो या नोटबंदी पर चर्चा में मशगूल हैं या फिर सलीम बूट हॉउस अथवा गैरोला डाक्टर साब की दुकान में बैठे मिल जाएंगे या आगे लाला जुगमंदर दासजी की दुकान की शोभा बढ़ाते हुए अन्यथा पैनुली बंधुओं की दुकान के आगे खड़े होकर कार्लमार्क्स, लेलिन, निक्सन, गाँधीजी से लेकर इंदिरा गाँधी तक, स्थानीय राजघराने और आम चुनाव तथा टिकट बंटवारे पर चर्चा करते हुए दिख जाते थे ? टेहरी में कभी त्रेपन सिंह नेगीजी आये हुए हैं तो कभी गोविन्द सिंग नेगी, विधायक जी उनके साथ बाजार में विद्यासागर नौटियालजी भी हैं, कामरेड प्रेम चौहान हैं और और भी दो –चार लोग हैं ,दुआ –सलाम जारी है ? बाजार में कभी खुशहाल सिंग रांगड़ हैं तो कभी भूदेव लखेड़ा हैं और उनके साथ में स्थानीय लोग भी टहल रहे हैं. अचानक कोई नमस्कार करने के बाद अपनी समस्या का पिटारा खोल के बता रहा है ?
ये जो हमारे बाप ,चचा ,ताऊ लोग थे ,ये कुंदनलाल सहगल की आवाज के फैन हैं, भारत भूषण की एक्टिंग के कायल थे .बलराज साहनी , राजकपूर ,शमशाद बेगम के साथ ही बड़े हुए थे ? जो लोग उस शहर में जो लोग नौकरी करने की मजबूरी में बाहर से आए हुए थे और किराएदार की हैसियत से रहते थे तो उनके भी अपने –अपने टाईम पास के लिए कोई न कोई ठिये रहते ही थे ? और जो लोग अपनी रिश्तेदारी में मिलने या किसी शादी –विवाह के बहाने टेहरी घूमने आये होते थे तो वो भी बाजार का एक आध चक्कर लगाने के बाद प्रदीप के आँचल होटल में या मुनीम के होटल में बैठकर चाय पीते थे, समोसे, टिक्की –छोले या रसमलाई खाते थे ?
दोस्तों बाजार का संबंध केवल सामान खरीदने से ही नहीं होता है बल्कि शाम को बाजार जाने का मतलब एक –दो घंटे अच्छे से वक्त गुजारना भी होता है. अब ये कोई जरुरी नहीं कि, आप रोज -रोज ही सामान खरीदें पर अच्छी सेहत के लिए बाजार का एक- आध चक्कर लाजिमी है. बाजार जाने का मतलब अर्थात दोस्तों या परिचितों से मिलना, थोड़ा घूमना –फिरना और टहलना अथवा किसी –किसी के लिए चंद्रमुखी के दर्शन भी होता है ?
हमने टीरी बजार के कई रंग देखे थे 1965-70 तक तो इसका रंग थोड़ा फीका ही था. दिन में भी आधी दुकानें बंद रहती थी और गोदाम होती थी . शाम को और खासकर सर्दियों में 6 बजे के बाद, आधे लोग तो धनराजजी की दुकान, लिपटिसके पेड़ या अधिक से अधिक मार्तंड होटल तक ही जाकर वापस लौट जाते थे . उनके लिए , उनके शब्दों में, इसके आगे , बाजार घूमने लायक कुछ था ही नहीं या बाजार ही नहीं था बल्कि बस अड्डा ही था .
हमने या हमसे 5 -7 साल बड़ी पीढ़ी ने विविध भारती या फिर बिनाका गीतमाला पर अमीन सयानी को सुनकर ही जिंदगी गुजारी थी . हम रेडिओ पर लता, मुकेश ,मोहोम्मद रफ़ी और किशोर कुमार को दिन में भी सुनते और रात में भी सुनते थे. हम देवानंद , राजेंद्र कुमार, राजकपूर, धमेंद्र बनने का सपना देखते थे . रात को नींद में मीनाकुमारी ,नूतन, आशापरेख, वैजंतीमाला, और मालासिंन्हा को अपने सपनों में देखते और फिर किसी लोकल सूरत –मूरत में उनकी छवि तलाशने की कोशिस करते थे . हमारी पीढ़ी ने हेमा ,रेखा और जीनत अमान को बेइंतिहा प्यार चाह था ? और हमसे 8 -7 साल छोटी पीढ़ी जिसमे नरेंदर, कृष्णा, भीमू, सुधीर , बीरी –मल्ल, भुवनवीर, भवानी शंकर, बद्री सकलानी वगैरा आते हैं वो शायद शाहरुख खान , सलमान के हमउम्र हैं और कुछ –कुछ उनके जैसे दिखने की कोशिश भी करते होंगे ? जो उस समय तो छोटे थे पर बाद के सालों में और शहर डूबने से कुछ साल पहले ,उन्होंने ने भी टेहरी बाजार में किसी दीपिका पादुकोण या प्रियंका चोपड़ा को अवश्य तलाश होगा, ऐसा मेरा विश्वास है ?
सन 75 -80 में तब अपनी एक शाम का नजारा कुछ कुछ ऐसा होता था, जैसे कि, मै शिवमंदिर के पास दिन्नू के पान के खोखे पर खड़ा होकर धुआं उड़ा रहा हूँ, कि तब तक सुशील भाई भी आ गए, घर भी उनका वहीँ पास में ही था. “ चल बे पनवाड़ी एक बीडी पिला ” , भाई ने हुकम दिया .अब भाई का हुकम है तो फिर हुकम है ? दिन्नू इस पर अधिक से अधिक थोडा भुनभुना ही सकता है . उसके लिए भाई का आदेश वैसे ही है ,जैसे किसी भाजपा वाले के लिए मोदीजी का आदेश ? भाई को बस दो दम ही मारने हैं तो फिर दिन्नू को मज़बूरी में नमो, नमो कहकर एक खाकी कैपेस्टन देनी ही पड़ेगी ? तब तक लो पुन्नू भाई भी आ गए, उन्होंने आते ही फ़रमाया कि, “ ला बे पनवाड़ी एक सिगरेट पिला ” ? पहले उन्होंने बड़े आराम से सिगरेट सुल्काई और फिर धुँआ छोड़ते हुए बड़े इतमिनान से कहा , “ पैसे बाद में लेना बे ” . बेचारे दिन्नु का मुंह छोटा हो गया, वो अपने आप में ही बडबडाने लगा, “ भाई बत्ती का टाईम है यार ,माँ कसम. पुन्नू भाई ने कहा, अबे अभी बत्ती बाली तो नहीं है न ? साला – जा देखो रोता ही रहता है. वैसे पनवाड़ी को भी यह पता है कि, इनके यहाँ देर हो सकती है पर अंधेर नहीं है ?
इन लोगों की अधिकतर शामें फुटबाल खेलते ही गुजरती थी, भले ही उन्हें पेले या मैराड़ोना नहीं बनना था और न ही बर्मिंघम या यार्कशायर से खेलना था . तब तक दिन्नू के बड़े भ्राता छुन्नू मामू भी आ गए. वे चलते –चलते ही दुआ –सलाम करके बोले, मामू जरा एक मिनट मंदिर से होकर आता हूँ . मंदिर में समस्या ये थी कि, भगवान तो वहां चौबीसों घंटे मौजूद रहते थे पर उनके पुजारी बड़ी मुश्किल से मिलते थे और युवाशक्ति को जोश और जूनून पुजारी से ही मिलता था, उससे फरियाद करनी पड़ती थी, वरना तो घंटो खड़े रहो, मोहल्ले या जान पहचान की औरतों से मुंह छिपाते फिरो या फिर बुद्धी भाई के इंतजार में ,नीचे बहती भिलंगना और सामने कंडल के खेतों को निहारते रहो ? फुटबालर तो चले गए और तब तक छुन्नी मामू भी लौट आये. आते ही उन्होंने मुझसे एक सिगरेट की फरमायश की. दिन्नु ने सिगरेट देते हुए कहा ,कि मामू आजकल ईधर गन्दी –मक्खी बहुत घूमती रहती हैं . टिहरीवालों के, डिक्सनरी से परे हटके कुछ अपने प्राइवेट शब्द भी रहते थे, मसलन —- औखई , पथेरी, टिक्की ठिंग और कुछ अन्य स्थानों में भी प्रचलित शब्द. जैसे कि , लुक्कर या ठुल्ला या जैसे “ एक ( रुपये ) का डॉलर ”. जिसे सुनकर ओबामा तो चकराए ही पर डोनाल्ड ट्रम्प भी चक्कर में पड़ जाएँगे ?
बाजार की शुरुआत दरसल में यहीं दिन्नू की दुकान अर्थात सुमन चौक से होती थी लेकिन सुमन चौक बाजार के मुहाने पर स्थित होकर भी, ग्राहकी का जोर न होने के कारण बाजार की अवधारणा में फिट नहीं बैठता था ? दिन्नू का खोखा ,शिव मंदिर की सीढियों के पास तथा उसके बड़े भ्राता कम्मू मामू की किताबों की दुकान से सटा हुवा था. कम्मू मामू राज परिवार की निगाह में भगवती राजराजेश्वरी के पुजारी थे तो बाकी जनता के लिए एक किताब विक्रेता और कुछ-कुछ के लिए बुध को शुक्र से मिलाने वाले नजूमी का काम भी करते थे. उनके मालिक ए मकान, मंदिर के महंत थे. रामचंदर गिरी ने दिन्नू के बाजू में कुछ समय तक “ कोपा –कबाना ” नाम का एक होटल भी चलाया था पर होटल तो महज एक बहाना था . एक बार वो बिल्लू और डिप्टी के साथ बंबई भाग गया था तो शायद कोपा –कबाना नाम वहीँ से आया था ? उसके बाजु में सुशील भाई के मकान में एक ड्राईक्लीन की दुकान थी, जिसके बाजु में महाबीर टेलर्स था और उसकी बगल में किसी सरकारी विभाग का स्टोर जैसा कुछ था. महावीर के यहाँ शुरूआत में लड़कों का जमघट लगा रहता था और वो भी आल्टरेशन के काम के लिए.
नीचे बाजार की तरफ बढ़ने पर रामेश्वर भट्टजी की कपड़े की एक छोटी सी दुकान थी. उनकी पुलिसवालों से काफी छनती थी और अक्सर अपने बेटे हंसराम को पुकारते नजर आते थे. कभी इसी दुकान में वर्षों तक भाई कमल सिंह असवाल के पिताजी ने भी स्वर्णकार का व्यवसाय किया था . उनके सामने एक किसी सरकारी विभाग का छोटा गोदाम था तो कभी वहां साइकल की कोई दुकान होती तो कभी जग्गू –बार्बर आदि खुलते बंद होते रहते थे ? भट्टजी के बाजू में एक सांप जैसी पतली गली थी और उससे सटा मामू हर्षु का मकान था , जिसके निचले ताल पर कई साल तक प्रेस की लौंड्री व साइकिल मरम्मत की दुकान भी रही. उसे रामकुमार के भाई चलाते थे और हम भी कई बार वहां प्रेस करवाते थे. उसके आगे जगतु का होटल था,जो मूलरूप से चाटवाला था .शहर में श्रीनंद भाई, उनका भाई सत्तू, यही सब भौन्याडावाले चाट कंपनी के कर्ताधर्ता थे . जगतु भाई की उस ज़माने में एक लाख की लाट्री लगने की भी चर्चा थी. उसके आगे भाई थेपडराम सेमवाल की परचून की दुकान थी, दुकानदारी का हुनर उसने पंजाबी दमीर परिवार से सीखा था और फिर खुद –मुख़्तार बन बैठा. हमारे मोहल्ले की बीटीसी स्कूल की बिल्डिंग उसी की थी, थेपडु भाई बड़ा मजाकिया आदमी था. उसकी बगल में एक टेलर मास्टर और फिर सतपाल भाई की सोने –चांदी की दुकान थी ,जो निवासी तो भोगपुर के थे पर ससुराल के लिए उन्हें टेहरी पसंद आ गई . ये सब सतीश सेमवाल के किरायेदार थे.
सतपाल भाई के सामने पुंडीरजी थे, बड़ा ही मसखरा स्वभाव, मालदार खानदान लेकिन उनका तकिया कलाम “ गरीब ” था . दुकानदार बनने के पहले वो सैनिटरी –इंस्पेक्टर थे. बात –बात पर उन्हें बात-बात में “ अजी — गरीब ” कहने और साथ ही गले पर अंग्रेजी के “ वी ” आकार में दो ऊँगली रखकर ,फांसी का फंदा बनाने की आदत थी .वो कहते थे कि, उनके दिमाग के कंपूटर में टेहरी के बाबर –अकबर से लेकर, सूर्यवंशी ठाकुरों के वंशजों तक की जानकारी फीड है और वो इस डाटा को ह्रदय में समेटकर रखने के लिए स्वयं को धन्य मानते थे. किसी का भी जिकर हो, वो कहते, “ अजी इस गरीब को पूछो, थपलियालजी ” ? उन्हें दुकान दवा की बिक्री कोई खास चिंता नहीं रहती थी, पैसे भी — वो कहते थे ,बाद में आ जायेंगे ? उनकी मनोरंजक बातों को सुनने और अपना मूड फ्रेश करने के लिए कई लोग उनकी दुकान में जाया करते थे . दुबली पतली काया, बंद गले का कोट , पतला चेहरा ,गोरी रंगत सुतवा नाक , उस पर चश्मा और सर के आधे बाल गायब — काश कोई स्थानीय अख़बार होता और उन पर कोई कार्टून छापता ? वो नरेन्द्रनगर को नंगा नगर कहकर संबोधित करते और सुमन चौक को सूना– चौक कहकर पुकारते ,क्योंकि ये चौक हमेशा भीड़-विहीन रहता था . वैसे व्यवसाय के हिसाब से देखा जाय तो यह दरसल में, सुवर्ण –नगरी था जहाँ खरे को खोटा और खोटे को खरा किया जाता था ? सारे स्वर्णकार / सुनार इसी के इर्दगिर्द और आसपास में ही थे, जैसे कि सतपाल भाई के ससुर चिरंजी भाई ,जिनकी दुकान में बाद में मसीह वाचनालय खुला था .
पुंडीरजी की बगल में एक ज़माने में कोआपरेटिव बैंक वाले रावतजी ने “ रॉयल ” होटल भी खोला था और उसके बाजू में खादी भंडार का गोदाम था. जि सकी बगल में ही कभी बहुत साल पहले, हमारे बचपन में जमना मास्टरजी का बच्चों का स्कूल भी था और बाद में उसी में दिन्नू के बड़े भाई मामू बुद्धि घिल्डियाल ने बरसों सब्जी की दुकान भी चलाई थी और बाद में आई.टी आई. में मास्टर बन गया . इन सब दुकानों के मालिक नरेंदर ,सुरेंदर पुंडीर बंधु थे और राजू भाई की तो किसी को याद भी क्या होगी, उसे बड़ा छित्ता / छिद्दर होने के कारण, लोग राजू-मदारी भी बुलाते थे ? तब फिर वंशीलाल पुंडीरजी, वकील साब का तिमंजिला आलिशान भवन था, उनके पिता ठाकुर अमरसिंह थे, जिन्हें लोग शाहजी कहते थे. वो स्वर्णकारी के पेशे में राजा के ज़माने से थे और साहूकारी,रेहान व बंधक का काम भी करते थे . उनके किरायेदार हाफीजी थे ,वे नगीना –धामपुर के वासी थे , उनके सैलून में जंगली जानवरों की ढेरों तस्वीरें थी ,जिन्हें हम “ सीनरी ” कहते थे . वे संभ्रांत लोगों के बाल काटते थे . पता नहीं बचपन में कितनी बार उनके उस्तरे से मेरे कान के पीछे भी कटा होगा ? हाफिजी बड़ी नफासत से उर्दू बोलते और साथ ही हमारे चाचा –ताऊ को बड़े मनोयोग से अंग्रेजी मेमों के किस्से भी सुनाते थे . उनका बीचवाला लड़का रफीक हमारा हमउम्र था . उनके बड़े लड़के अतीक ने कुछ दिन सुमन चौक में ही एक अलग केशकर्तनालय भी खोला था , सेमवालजी के पास में . उसे जब चाय मगानी होती थी, तो भाई चायवाले की दुकान में एक बड़ा शीशा चमकाता, कभी –कभी तो सीधा उसके मुंह पर और फिर चायवाले के देखने पर , एक की दो या दो की तीन का इशारा करता था . हाफिजी की विरासत को बाद में लईक ने संभाला था .
लईक की बगल में हमारे शहर की सबसे चर्चित, हमारे मोहल्ले के लल्लू चिचा की अंग्रेजी शराब की दुकान थी . दुकान शहर में लल्लू ब्रांडी के नाम से मशहूर थी. वह जमाना शर्म –लिहाज का जमाना था तो हमारे बड़े –बुजुर्ग भी उस दुकान पर दो मिनट खड़े रहने में कतराते थे , कि कहीं देख न ले ? कोई –कोई तो स्वयं दूर खड़े रह कर, किसी होटल के नौकर को एक –दो रुपये देकर, उनसे मंगाते थे . क्या परदे और परहेज का जमाना था वो ? बोर्ड की परीक्षा के समय में हम जैसे लड़के भी एक्जामिनर का नाम लेकर चले जाते थे , कोई डर –भय नहीं क्योंकि खुद तो पीनी नहीं थी और दसवीं –बारहवीं के बच्चों को प्रैक्टिकल में पास भी होना था ? बाद में वहां वकील –साहब के लड़के वीरेंदर ने प्रिंटिंग प्रेस डाल दी और भागीरथी प्रकाशन गृह खोल दिया. सबसे आखिर में सत्तेसिंहका खोखा था. हट्टा –कट्टा नौजवान, पुट्टापूर्थी के साईं बाबा जैसे बाल पर हम हरामी लोग उसे खाडू बोलते थे. उसके सामने कुछ दिन डॉक्टर मोहन भट्ट ने अपना क्लीनिक भी खोला था पर काफी बाद में .उनके आगे नत्थू –टीटू के पिता, गोपी सुनार की दुकान थी. ये लोग मुजफ्फर नगर के वासी थे ,पिता की मृत्त्यु के बाद टीटू ने पिता की गद्दी संभाली जबकि उसके भाई नत्थू ने सुमन चौक में पहले ही एक स्वतंत्र दुकान खोल ली थी. टीटू के बाजु में, अठूर के नारायणसिंह सुनार की दुकान थी फिर एक सुनार और थे उनका नाम तो याद नहीं पर लोग उन्हें थनवा सुनार कहकर बुलाते थे , दुकान में पिता –पुत्र काम करते थे .
राकेश मोहन थपलियाल