डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक, 2016 में राज्य में भूस्खलन की 18 घटनाएं दर्ज की गई थीं जबकि 2020 में भूस्खलन की 973 घटनाएं दर्ज की गई हैं। साल 2021 में भूस्खलन की 244 घटनाएं हो चुकी हैं।

प्रदेश में मानसून की दस्तक के साथ ही भूस्खलन के कारण सड़कों के बंद होने का सिलसिला शुरू हो गया है। लैंड स्लाइड जोन ज्यादा दिक्कतें पैदा कर रहे हैं। शुक्रवार को चमोली जिले में सिरोहबगड़ में फिर मलबा आने से ऋषिकेश-बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग (एनएच-58) के बार फिर अवरुद्ध हो गया था, जिसे देर शाम खोल दिया गया। लोनिवि की ओर से जारी बुलेटिन के अनुसार प्रदेश भर में कुल 83 सड़कें बंद हैं इसी दिन कुल 81 सड़कों को खोलने का काम भी किया गया है । इसके अलावा नौ राज्य हाईवे, 10 मुख्य जिला मार्ग, चार अन्य जिला मार्ग, 40 ग्रामीण सड़कें और पीएमजीएसवाई के तहत 20 सड़कें पहाड़ियों से मलबा और बोल्डर आने से अवरुद्ध हो गईं हैं। बंद सड़कों को खोलन के काम में कुल 289 जेसीबी मशीनों को लगाया गया है। इनमें सबसे अधिक 113 मशीनों को नेशनल हाईवे पर लगाया है । इधर, राज्य आपातकालीन परिचालन केंद्र के अनुसार, भारी वर्षा से कुछ जिलों में पेयजल और विद्युत आपूर्ति बाधित हुई है, जिन्हें सुधारने का काम किया जा रहा है।

इसके अलावा नदियों के जलस्तर में भी बढ़ोतरी दर्ज की गई है। विभागाध्यक्ष एवं प्रमुख अभियंता लोनिवि ने बताया क्रॉनिक लैंड स्लाइड जोन बारिशों के साथ फिर सक्रिय हो गए हैं। विभाग की ओर से बंद सड़कों को कम से कम समय में खोलने के प्रयास किए जा रहे हैं। पिछले एक हफ्ते में, केदारनाथ और अन्य स्थानों में भूस्खलन और बारिश में चट्टानों के खिसकने से कम से कम पांच पर्यटकों की जान गई है। मुख्यमंत्री ने मामले का संज्ञान लेते हुए राज्य की तैयारियों के तहत अधिकारियों को कई निर्देश दिए हैं।संभावित आपदाओं की दृष्टि से अगले तीन माह को महत्वपूर्ण बताते हुए धामी ने जिलाधिकारियों को अपने स्तर पर अधिकतर फैसले लेने को कहा है।

हर साल खासतौर पर मानसून के दौरान उत्तराखंड को प्राकृतिक आपदाओं से जान-माल का भारी नुकसान झेलना पड़ता है। जून 2013 में केदारनाथ में आई जल प्रलय के दर्दनाक मंजर को लोग भूल भी न पाए थे कि पिछले साल ऋषिगंगा में आई बाढ़ ने एक बार फिर उत्तराखंड को हिलाकर रख दिया।वर्ष 2013 में केवल केदारनाथ आपदा में ही करीब 5000 लोगों की मौत हुई थी, जबकि 2021 में चमोली जिले में ऋषिगंगा नदी में आई बाढ़ से रैंणी और तपोवन क्षेत्र में भारी तबाही मची थी तथा 200 से ज्यादा लोग काल के गाल में समा गए थे। बाढ़ की वजह से दो पनबिजली परियोजना भी प्रभावित हुई थी।

उत्तराखंड में इतने लैंडस्लाइड क्यों हो रहे ?

विशेषज्ञों का मानना है कि हिमालय के पर्वत नए होने के कारण बेहद नाजुक हैं, इसलिए ये बाढ़, भूस्खलन और भूकंप के प्रति काफी संवेदनशील हैं, खासतौर पर मॉनसून के दौरान, जब भारी बारिश के चलते इन प्राकृतिक आपदाओं की आशंका बढ़ जाती है। देहरादून स्थित हिमालय भूविज्ञान संस्थान में भूभौतिकी समूह के पूर्व अध्यक्ष ने बताया कि अपेक्षाकृत नए पर्वत होने के कारण हिमालय की 30 से 50 फुट की ऊपरी सतह पर केवल मिट्टी है, जो थोड़ी सी छेड़छाड़ होते ही, खासतौर पर बारिश के मौसम में, अपनी जगह छोड़ देती है और भूस्खलन का कारण बनती है। हर मौसम में चालू रहने वाली सड़क परियोजना के लिए पहाड़ों की कटाई, चारधाम यात्रा के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं के आगमन और टिहरी बांध जैसे बड़े बांधों से नदियों के जल ग्रहण क्षेत्र में वृद्धि के कारण ज्यादा बारिश ने भी प्राकृतिक आपदाओं में इजाफा किया है।

राज्य में अतिवृष्टि और बाढ़ की घटनाएं को रोकने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं पर बहुत सोच-समझकर आगे बढ़ना होगा।। भूगर्भशास्त्री का मानना है कि सड़क निर्माण के कारण भूस्खलन होने की दो-तीन प्रमुख वजह हो सकती हैं। ऐसी परियोजना के लिए पूरे पहाड़ी ढलान का ऊपर से नीचे तक जियोलॉजिकल सर्वे होना चाहिए। अक्सर जितनी जगह पहाड़ काटा जाना है सिर्फ उसी जगह का सर्वे होता है। चट्टानों की प्रकृति और भूसंरचना को समझे बगैर गलत कोण से पहाड़ को काटना भी भूस्खलन का कारण बन सकता है। कई बार समय और खर्च बचाने के लिए अनियंत्रित विस्फोट की वजह से भी भूस्खलन होता है। पहाड़ कटने के बाद स्लोप के स्थिर होने में समय लगता है। इसलिए नई सड़कों पर भूस्खलन की घटनाएं बढ़ जाती है। इन स्थितियों से निपटने के लिए भूस्खलन संभावित क्षेत्रों की निरंतर निगरानी जरूरी है।

प्राकृतिक आपदाओं से जूझ रहे उत्तराखंड में बड़ी इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं के प्रभाव का आकलन किए बिना आगे बढ़ने की गलती को बार-बार दोहराया जा रहा है। चारधाम परियोजना इसका ताजा उदाहरण है। हिमालय की संवेदनशीलता, पर्यावरण मानकों और सुरक्षा उपायों को नजरअंदाज करते हुए जिस तरह ऑल वेदर रोड के लिए पहाड़ों को काटा गया, हजारों पेड़ों का कटान हुआ और मलबे को नदियों में डंप किया गया, उसने एक बड़ेे पर्यावरण संकट को जन्म दिया है। ऑल वेदर रोड किस तरह की तबाही लेकर आई है, उसके भयावह दृश्य सबके सामने हैं। जिन सड़कों पर पहले एक-दो जगह भूस्खलन होता था वहां भूस्खलन के नए-नए क्षेत्र बन गए हैं। ऑल वेदर रोड के सारे दावे खोखले साबित हुए हैं। इस परियोजना में पहले दिन से ही पर्यावरण मानकों के साथ खिलवाड़ हुई, जिसकी कीमत राज्य और यहां की जनता को चुकानी पड़ रही है। मौसम के बदले मिजाज, बादल फटने और भारी बारिश के कारण भी उत्तराखंड में भूस्खलन जैसी आपदाओं का खतरा बढ़ा है।

चारधाम हाईवे पर भूस्खलन से तबाही को इस संकट की आहट माना जा सकता है। भूस्खलन रोकने के उद्देश्य से करोड़ों रुपये की लागत से थल-मुनस्यारी सड़क में हरड़िया नया बस्ती में किए गए कार्यों की पोल हल्की सी बारिश में खुलने लगी है। मानसून से पहले ही पहाड़ी के दरकने से करोड़ों की लागत से किए गए कार्यों की गुणवत्ता पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं। साढ़े पांच करोड़ की लागत से जून 2021में नदी तल पर 120 मीटर लंबाई पर आरसीसी ब्लॉक, दीवारों और जियोमेट्रिकल संरक्षण कार्य शुरू किया गया था। कार्य पूरा होते ही सड़क के ऊपर पूर्वी भाग में बने ढांचे हल्की बारिश से दरकने लगे हैं। निर्माण स्थल से 200 मीटर दूरी पर रहने वाले भैसखाल गांव के उपप्रधान धन राम ने बताया कि इस स्थान पर सरकार ने धन की बर्बादी की है। जमीन दरकने से इस स्थान पर बरसात में और अधिक भूस्खलन होने का खतरा बढ़ गया है। वहीं लोनिवि खंड डीडीहाट के ईई ने बताया कि सड़क सुरक्षा के लिए 120 मीटर लंबे क्षेत्र में रामगंगा और हरड़िया के कटाव को रोकने के लिए आरसीसी वर्क में ठोस कार्य हुआ है। सड़क से ऊपर जिस जगह पर भूस्खलन हो रहा है उस स्थान पर दो हेक्टेयर क्षेत्र में जियोमेट्रिकल वर्क (वानस्पतिक संरक्षण कार्य) हुआ है, उसमें किसी भी तरह का जो भी निर्माण क्षतिग्रस्त होगा उसे ठेकेदार दोबारा करेेगा।

प्रकृति के इस रौद्र रूप और हादसों की आशंकाओं के बीच फंसे जीवित रहने की विवशताओं ने लोगों को अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य के प्रति गहरी चिंताओं में डुबो दिया है। मुश्किल यह भी है कि सुदूर क्षेत्र सामरिक दृष्टि और राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से भी बेहद संवेदनशील हैं। सबसे बड़ी चिंता यह है कि हिमालय के तात्कालिक और दीर्घकालिक संरक्षण के लिए राष्ट्रीय व उत्तराखंड में राज्य स्तर पर सरकारों की ओर से कोई गंभीर चिंताएं नहीं दिखतीं।हिमालय का यह पर्वतीय अंचल भूकंप, भूस्खलन, बादल फटने, साथ ही ऊंची चट्टानों के गिरने, नदी-नालों के प्रलयंकारी कटाव, ग्लेशियरों के पिघलने और लुप्त होने के साथ ही गर्मियों में यहां के जंगलों में भीषण आगजनी एक स्थानीय समस्या विकराल रूप ले रही है।सबसे बड़ी चिंता इन आपदाओं के कारण प्रकृति की होने वाली क्षति के साथ ही बेशकीमती जानें जा रही हैं। विशेषज्ञ बादल फटने की घटनाओं से होने वाले हादसों में एकाएक बढ़ोतरी से खासे चिंतित दिखते हैं।

दरअसल, सत्ता में बने रहने के लिए वोट की राजनीति का सबसे अहम रोल हो गया है। पैसा, हैसियत और बाहुबल के बूते सत्ता तक पहुंचने की जद्दोजहद में पर्यावरण संरक्षण और हिमालय को आपदाओं से बचाने जैसी गंभीर बहस में न तो राजनीतिक लोग और न ही सरकारें पड़ना चाहती हैं और पहाड़ विरोधी मानसिकता के नौकरशाहों का इस तरह के मामलों से कोई सरोकार कभी हो भी नहीं सकता।आपदाओं और प्राकृतिक हादसों की इस जद्दोजहद में साधन संपन्न और मैदानी क्षेत्रों में ज़मीन और मकान खरीदने और बनाने की हैसियत वाले लोग ही खुद को सुरक्षित करने की जुगत में सफल हो रहे हैं। इसके उलट साधनहीन, बेबस, बेरोज़गार लोग सुदूर गांवों में जीवन बसर करने को अभिशप्त हैं.बहरहाल इन प्राकृतिक आपदाओं पर 2-4 दिन तक बहस और खबरें कुछ टीवी चैनलों और अखबारों के पन्नों तक सीमित रहती हैं और उसके बाद वक्त बीतते ही इन सारी विभीषिकाओं को हमेशा के लिए भुला दिया जाता है।अगली बार खबरों और बहस के लिए नई तरह की आपदाओं और हादसों के इंतज़ार में ही यहां के सुदूर क्षेत्रों के लोगों के दिन कट जाते हैं।

लेखक के निजी विचार हैं ।