डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला
बाघों की की बात हो और जिम कार्बेट का जिक्र न आये तो बात अधूरी रह जायेगी ! इसलिये इसे सिलसिले वार शुरू करते हैं …
सन 1936 में एशिया का पहला नेशनल पार्क बना और इसे हैली पार्क कहा गया क्योंकि उस वक्त के उत्तर प्रदेश या संयुक्त प्रांत के गवर्नर मैलकम हैली थे। आज़ादी के बाद जब नेशनल पार्कों का नाम बदलने की कवायद शुरू हुई तो 1954–55 में इसे रामगंगा नेशनल पार्क कहा गया। लेकिन एक साल बाद ही 1955–56 में इसे कॉर्बेट नेशनल पार्क कहा जाने लगा। यह नाम प्रसिद्ध प्रकृति मीमांसक, वन्यजीव विशेषज्ञ लेखक और शिकारी जिम कॉर्बेट के सम्मान में रखा गया।
जिम कॉर्बेट कौन था ?
एडवर्ड जेम्स जिम कॉर्बेट का जन्म 25 जुलाई 1875 को नैनीताल में हुआ था। नैनीताल में जन्मे होने के कारण जिम कॉर्बेट को नैनीताल और उसके आसपास के क्षेत्रों से बेहद लगाव था। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नैनीताल में ही पूरी की। अपनी युवावस्था में जिम कॉर्बेट ने पश्चिम बंगाल में रेलवे में नौकरी कर ली। लेकिन नैनीताल का प्रेम उन्हें नैनीताल की हसीन वादियों में फिर खींच लाया। जिम कॉर्बेट एक शिकारी और महान व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। उन्होंने साल 1907 से साल 1938 के बीच कुमाऊं और गढ़वाल दोनों जगह नरभक्षी बाघों व तेंदुओं के आतंक से निजात दिलायी थी।
इसके अलावा जिम कॉर्बेट ने 6 किताबें भी लिखी हैं। इनमें से कई पुस्तकें पाठकों को काफी पसंद आईं, जो आगे चलकर काफी लोकप्रिय हुईं। आज भी देश विदेश से सैलानी कॉर्बेट के गांव छोटी हल्द्वानी घूमने के लिए आते हैं। साल 1947 में जिम कॉर्बेट देश छोड़कर विदेश चले गए और कालाढूंगी स्थित घर को अपने मित्र चिरंजीलाल साहब को दे दिया। साल 1965 में चौधरी चरण सिंह वन मंत्री बने तो उन्होंने इस ऐतिहासिक बंगले को आने वाली नस्लों को जिम कॉर्बेट के महान व्यक्तित्व को बताने के लिए चिरंजी लाल साहब से ₹ 20 हजार देकर खरीद लिया और एक धरोहर के रूप में वन विभाग के सुपुर्द कर दिया। तब से लेकर आज तक यह बंगला वन विभाग के पास है।
वन विभाग ने जिम कॉर्बेट की अमूल्य धरोहर को आज एक संग्रहालय में तब्दील कर दिया है । हजारों की तादाद में देश-विदेश से सैलानी जिम कॉर्बेट से जुड़ी यादों को देखने के लिए आते हैं। जिम कॉर्बेट का नाम महान शिकारियों में जाना जाने लगा। कई आदमखोर बाघों का शिकार करने के बाद जिम के मन में वन्यजीवों के प्रति प्रेम बढ़ गया। जिम कॉर्बेट एक असाधारण और बेहद साहसिक नाम है। उनकी वीरता के कारनामे हैरत में डालने वाले हैं। जिम कॉर्बेट एक महान शिकारी थे। उनको तत्कालीन अंग्रेज सरकार आदमखोर बाघ को मारने के लिए बुलाती थी । गढ़वाल और कुमाऊं में उस वक्त आदमखोर बाघ और गुलदार ने आतंक मचा रखा था। उनके खात्मे का श्रेय जिम कॉर्बेट को जाता है। साल 1907 में चंपावत शहर में एक आदमखोर 436 लोगों को अपना निवाला बना चुका था। तब जिम कॉर्बेट ने लोगों को आदमखोर के आतंक से मुक्त कराया था । जिम ने 1910 में मुक्तेश्वर में जिस पहले तेंदुए को मारा था, उसने 400 लोगों को मौत के घाट उतारा था। जबकि दूसरे तेंदुए ने 125 लोगों को मौत के घाट उतारा था। उसे जिम ने 1926 में रुद्रप्रयाग में मारा था। जिम कॉर्बेट ने अपनी जान की परवाह न करते हुए एक के बाद एक सभी आदमखोरों को मौत की नींद सुला दिया था। कहा जाता है कि जिम कॉर्बेट ने 31 साल में 19 आदमखोर बाघ और 14 आदमखोर तेंदुओं को ढेर किया था । इस तरह उन्होंने कुल 33 आदमखोर बाघ और तेंदुओं को ढेर कर आम जन को राहत दिलाई थी ।
विश्व प्रसिद्ध जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क देश-विदेश में बाघों के घनत्व के साथ ही अन्य वन्यजीवों के लिए चर्चित है. एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट को इस दुनिया से गए आज करीब 67 साल हो गए हैं. आज भी उनके नाम पर रामनगर व आसपास के क्षेत्रों में कई प्रतिष्ठान, रिजॉर्ट और यहां तक की सैलून की दुकानें भी चल रही हैं. आज भी व्यवसाय करने वाले कहते हैं कि जिम कॉर्बेट पार्क रामनगर में अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी हैं। इसलिए आज भी वे जिंदा हैं। एडवर्ड जेम्स कॉर्बेट के नाम से रखे गए पार्क से जोड़कर सैकड़ों लोग पर्यटन से अपने व अपने परिवार की आजीविका चला रहे हैं। इसमें ऐसे भी लोग हैं जो कॉर्बेट के नाम के सहारे अपनी दुकान चला रहे हैं. कॉर्बेट का नाम इतना प्रसिद्ध हो चला है कि कई लोगों ने अपने छोटे-बड़े प्रतिष्ठानों के नाम कॉर्बेट के नाम से ही रखे हैं। यहां तक कि पर्यटकों की बुकिंग करने वाले प्राइवेट लोगों ने भी अपनी साइटों के नाम कॉर्बेट के नाम पर रखे हैं। उत्तराखंड राज्य का वातावरण बाघों के लिए सबसे मुफीद है। यही कारण है कि देश में बाघों के आवास वाला एकमात्र राज्य है जिसके हर जिले में बाघ की मौजूदगी मिली है। साल 2014 में प्रदेश में बाघों की संख्या 340 थी, वहीं 2019 में यह आंकड़ा 442 पहुंच गया। 2022 का आंकड़ा जारी होना बाकी है, इसमें भी संख्या बढ़ने की उम्मीद वन्यजीव विशेषज्ञ जता रहे हैं। पगचिन्ह, ट्रैप कैमरे व ग्रामीणों द्वारा देखे गए आधार पर प्रदेश के सभी 13 जिलों में बाघ के होने के प्रमाण मिले हैं। अल्मोड़ा, नैनीताल, ऊधमसिंह नगर, चंपावत, पिथौरागढ़, देहरादून, टिहरी, हरिद्वार, रुद्रप्रयाग व पौड़ी गढ़वाल आदि जिलों में प्रमुखता से बाकि अन्य में यदाकदा बाघ की मौजूदगी देखी जा चुकी है। इन सभी जिलों में बाघ को वन विभाग ने कैमरों में कैद किया है। साथ ही जंगलों में बाघ के पंजों के निशान और मृत जानवरों में बाघ के हमले के सबूत मिले हैं। 12वां विश्व या अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस मनाने जा रहे हैं। वैश्विक स्तर पर बाघों के संरक्षण व उनकी लुप्तप्राय हो रही प्रजाति को बचाने के लिए जागरूकता फैलाना ही इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य है। जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क और इससे सटे दूसरे वन प्रभाग में बीते कुछ सालों में बाघों के व्यवहार में कई बदवाल हो रहे हैं. इसकी वजह से वनाधिकारी भी हैरान हैं। वहीं कॉर्बेट के सर्पदुली और दूसरे रेंज में एक बाघिन और दो शावकों के कई लोगों के पालतू जानवरों को अपना शिकार बनाने की घटना सामने आई थी।
बताया जा रहा है कि इन बाघों के साथ एक व्यवस्क बाघ भी देखा गया है। आमतौर पर दो साल का होते ही शावक अपने परिवार से अलग होकर अपना इलाका बांटकर रहते हैं, लेकिन इन शावकों की उम्र ढाई साल से अधिक होने के बाद भी बाघिन के साथ रह रहे हैं। जो वनाधिकारियों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। रामनगर के वन्यजीव विशेषज्ञ एजी अंसारी ने बताया कि बीते 15 सालों में बाघों के व्यवहार में सबसे बड़े दो बदलाव देखे गए हैं। पहला कॉर्बेट में बाघों के शावकों की मृत्यु दर 40 फीसदी तक कम हुई है। इसके चलते अगर एक बाघिन तीन बच्चों को जन्म दे रही है तो तीनों ही बच्चे जंगल की परिस्थियों में खरे उतर रहे हैं इससे कॉर्बेट में बाघों की संख्या तेजी से बढ़ रही है और जंगल का क्षेत्र बाघों के लिए छोटा पड़ रहा है। देश-दुनिया में किए गए अध्ययन बताते हैं कि एक बाघ का इलाका कम से कम 20 किलोमीटर तक होता है। लेकिन पिछले दिनों फतेहपुर रेंज और कॉर्बेट में बाघों के आस-पास रहने के मामले चौंकाते हैं, इससे खतरा भी बढ़ रहा है। उन्होंने बताया कि दूसरे बदलाव बाघों में यह देखा गया कि शावकों के मां के साथ रहने की उम्र करीब एक साल तक बढ़ गई है। पहले नर शावक दो साल, जबकि मादा शावक ढाई साल के होते ही परिवार से अलग होकर अपने इलाके का बंटवारा करते थे। लेकिन अब शावक बाघिन के ढाई से तीन साल तक रह रहे हैं। बाघों के व्यवहार में हो रहे यह बदलाव कॉर्बेट प्रशासन के लिए भी एक बड़ा शोध का विषय है ।
यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं ।
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