“मैं कोई मूक दर्शक नहीं हूं, मैं संघर्ष का हिस्सा हूं। इसके लिए मैं कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हूं, कुछ भी कीमत।”
“चर्च अपने गिरेबान में झांके और देखें कि किस तरह वह काम करता है। हम अगर गरीबों के लिए काम कर रहें है, तो हमें गरीबों की तरह और गरीबों के साथ रहते हुए दिखना चाहिए। हम विदेशों से आनेवाले मोटे पैसों के बल पर आराम से काम करते हुए नहीं दिख सकते। हमें सोचना चाहिए कि क्या हमें विदेशी संस्थानों से पैसा लेना चाहिए या नहीं।”
“हमारी खुद की मुक्ति ( liberation) हमारे वंचित लोगों की मुक्ति के साथ जुड़ी है। “
फादर स्टेन द्वारा कही गयी उपरोक्त बातें उनके व्यक्तित्व को सामने लाती है।अब यह सर्वज्ञात तथ्य है कि किन परिस्थितियों में उनकी मौत हुई और इसका जिम्मेदार कौन है।
8 अक्टूबर 2020 को उन्हें रांची के नामकुम स्थित उनके घर से एनआईए ने भीमा-कोरेगांव मामले में हिंसा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किया था। जेल में उन्हें अमानवीय यातना दी गई। वे पार्किंसंस नामक रोग से पीड़ित थे, इसके बावजूद उन्हें पानी पीने के लिए एक सिपर और स्ट्रॉ की सुविधा पाने के लिए अदालत में 50 दिनों तक लड़ाई लड़नी पड़ी। मोदी सरकार की नजरों में वे इतने बड़े आतंकी थे कि 84 वर्षीय इस मानवाधिकार कार्यकर्ता को अंत तक जमानत नहीं दी गई और जेल में कोरोनाग्रस्त होने के बाद भी उचित स्वास्थ्य संवंधित सुविधा मुहैया नहीं हो पाया । एक मानवाधिकार कार्यकर्ता अपने मानवाधिकारों के लिए लड़ते हुए शहीद हो गया।
मोदी सरकार उनकी हत्या के लिए सीधे-सीधे जिम्मेदार है। अब यह स्थापित तथ्य है कि भीमा-कोरेगांव मामले में सरकार ने उनके खिलाफ झूठे सबूत गढ़े। मैसाच्युसेट्स स्थित आर्सेनल कंपनी ने अपनी जांच में पाया कि भीमा-कोरेगांव मामले में अभियुक्त कुछ व्यक्तियों के कंप्यूटर में मैलवेयर के जरिये झूठे मेल डाले गए। वाशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट इसका विस्तृत खुलासा करती है। पहले तो उन्हें इन झूठे सबूतों के आधार पर गिरफ्तार किया गया, फिर इसका खुलासा होने और आयु-संबंधित बीमारियों के बावजूद और इस आशंका के बावजूद भी कि जेल में कोरोना संक्रमण के चलते उनके भी कोरोना पीड़ित होने का खतरा है, उन्हें जमानत नहीं दी गई। सरकार के झूठे तर्कों पर अदालत ने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। अंतिम समय में झारखंड में अपने आदिवासी लोगों के बीच रहने का उनका सपना अधूरा रह गया।
फादर स्टेन का न्यायिक हिरासत में 270 दिनों के बाद जान गंवाना हमारी आपराधिक न्याय व्यवस्था, पुलिस, जेल व्यवस्था तथा सरकारी जांच एजेंसियों के क्रियाकलापों पर गम्भीर प्रश्न खड़ा करने के साथ-साथ मोदी सरकार के गैर-कानूनी एवं गैर-संविधानिक, घृणित व अलोकतांत्रिक तौर-तरीके को भी उजागर करता है। यह बात सही है कि सत्ता पक्ष ने पहले भी ऐसा अलोकतांत्रिक रबैया अपनाया था, लेकिन जिस तरह वर्ष 2014 के बाद सत्तासीन आक्रामक-असामाजिक-हिंदुत्ववादी-नव उदारवादी ताक़तों के द्वारा “रूल ऑफ लॉ” के बदले “रूल बाय लॉ” (यूएपीए का 2019 में संशोधन) के सिद्धान्त को अपनाते हुए सारे शासकीय-अर्ध शासकीय संस्थानों की कार्यप्रणाली को खोखला कर दिया है, इसकी मिसाल पहले नहीं मिलती। वर्ष 2014 के बाद अल्पसंख्यको के ऊपर हमला, शैक्षणिक संस्थानों, छात्र संघो पर हमला, जन-अधिकारों की रक्षा के लिए लोकतांत्रिक तरीके से काम करनेवाले कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित करना (सीएए-एनआरसी), मज़दूर-किसान-दलित-आदिवासियों के अधिकारों को कुचलना आम बात हो गई है। भीमा-कोरेगांव मामला को देखें, तो स्पष्ट समझ मे आता है कि महाराष्ट्र में जैसे ही सत्ता परिवर्तन हुआ एवं नई सरकार ने भीमा-कोरेगांव मामले को पुनः जांच करने का एलान किया, इसके तुरंत बाद ही केंद्र सरकार ने इस मामले को एनआईए के सुपुर्द करने का एलान कर दिया। हालांकि आतंकवादी विरोधी कानूनों के तहत जितने भी लोगों पर केस दर्ज हुआ है, आरोप सिद्ध होने और सजा मिलने की दर मात्र 2% ही रही है।
सत्तर के दशक में क्रिस्चियन जगत में उदयमान विचार “लिबरेशन थियोलॉजी” से प्रेरित तमिलनाडु (त्रिची) के एक नवयुवक का जन-आधारित लोकतांत्रिक तरीके से समाज परिवर्तन के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देना और उसके बाद वर्ष 1991 में झारखंड आ कर आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों के संघर्षों में सतत भागीदार बनना क्या आतंकवादी और माओवादी होना है? जब झारखंड सरकार लैंड-बैंक के नाम पर आदिवासियों के संविधानमान्य सीएनटी एवं संथाल परगना टेनेंसी एक्ट को खारिज़ करती है और उनकी 20 लाख एकड़ ज़मीन पर कब्जा करके पूंजीपतियों को देने की साजिश करती है, इसके विरोध में जन-संघर्षों में साथ देना गुनाह है? माइनिंग-बांध-प्रूफ रेंज-वृक्षारोपण आदि के नाम पर लोगों की सहमति के बिना ज़मीन-जंगल पर कब्जा कर लोगों को विस्थापित करने की नीति के खिलाफ आवाज उठाना संवैधानिक अधिकार नहीं है? क्या फ़र्ज़ी केस में जेल में लंबे समय से पीड़ित आदिवासियों के मामलों के बारे में हाइकोर्ट में पीआईएल करना माओवाद है? आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों को — 5वीं अनुसूची, पेसा कानून, वन अधिकार कानून की क्रियान्वयन के संबंध में — पत्थर पर लिखना राष्ट्रद्रोह है? अपनी लिखी हुई 74 किताबों के जरिये लिखकर संविधान तथा अन्य कानूनों की जानकारी एवं प्रशिक्षण देते हुए जन-जागृति में हाथ बंटाना गैर-लोकतांत्रिक कार्य है? फादर स्टेन ने झारखंड के गांवों में घूमते हुए और कार्यकर्ताओं का आवश्यक प्रशिक्षण करते हुए जनवादी-संविधान सम्मत कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने में मददगार और मुखर भूमिका निभाई।
इस तरह की जनवादी कार्यकर्मों एवं कार्यकर्ताओं से लोकतंत्र आगे बढ़ता है। लेकिन पूंजीवादी-फासिस्ट सत्ता ऐसे लोकतांत्रिक तत्वों से घबराती है। नव-उदारवादी पूंजी के आक्रमक मुनाफा इकठ्ठा करने की रास्ते मे सबसे ज़्यादा खौफ इन्हीं से होता है। इसलिए सत्ता अपने हर इंस्ट्रूमेंट ( पुलिस, कोर्ट, गैर-संविधानिक कानून और गोदी-मीडिया) के ज़रिए झूठा प्रचार करके लोकतंत्र को कुचलना चाहती है।
फादर स्टेन लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी थे। ऐसे लोगों की जमात के ज़रिए ही भारत मे लोकतंत्र मज़बूत होगा।
(आलेख : विजय भाई, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन)
?