कॉमरेड अजीत लाल नहीं रहे। उनके जाने से धमतरी में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास का एक अध्याय समाप्त होता है। उनके असामयिक निधन से छत्तीसगढ़ और खास तौर से धमतरी पार्टी तथा ट्रेड यूनियन आंदोलन को एक अपूरणीय क्षति हुई है, क्योंकि अपनी संघर्षशीलता तथा जीवटपन के कारण वे धमतरी के मजदूर आंदोलन की जीवंत शक्ति थे। इस शून्य को भरना आसान नहीं है। धमतरी में पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन को उनकी अनुपस्थिति लंबे समय तक खलती रहेगी।
उनका राजनीतिक जीवन लगभग चार दशकों तक फैला था। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह थी कि वे अपने संगी-साथी-मित्रों की खूबियों को पहचानते थे और इसका उपयोग वामपंथी आंदोलन के लिए कुशलतापूर्वक कर लेते थे। यही कारण है कि उनके राजनीतिक विरोधी तथा उनसे मत भिन्नता रखने वाले लोग भी उन्हें सम्मान की दृष्टि से देखते थे।
वे हंसमुख थे और उनकी तर्कशीलता सहज थी। उनमें यह तर्कशीलता स्व-अध्ययन और आंदोलन के अनुभवों से पैदा हुई थी। वह यारों के यार थे और कट्टर संघी मित्रों को भी पार्टी की आरएसएस विरोधी पुस्तिकाएं आसानी से बेच देते थे — और एक प्रति नहीं, 8-10 प्रतियां एक साथ! संघी मित्रों के सामने उनका सहज तर्क रहता था — “आरएसएस की विचारधारा के बारे में कम्युनिस्टों का क्या कहना है, यह नहीं जानोगे, तो अपने संघ की विचारधारा की रक्षा कैसे करोगे?” … और उनसे याराना के चलते कोई संघी मित्र उन पुस्तिकाओं को खरीदने से इंकार नहीं कर पाता था। वह इन पुस्तिकाओं के पूरे पैसे राज्य केंद्र पर अग्रिम ही जमा करवा देते थे। धमतरी को जो पुस्तिकाएं आबंटित की जाती थी, उससे दोगुनी मात्रा में पुस्तिकाएं मंगवाते थे और कभी शिकायत नहीं मिली कि फलानी पुस्तिका बिकी नहीं। पार्टी और प्रगतिशील-जनवादी साहित्य खरीदना-बेचना-पढ़ना उनके पार्टी जीवन की नियमित गतिविधियों का हिस्सा था। उनके पास राजनीतिक विषयों को भी जनसाधारण की भाषा में समझाने का जबरदस्त कौशल था। इसी तरह पार्टी व ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए चंदा इकट्ठा करने में भी वे माहिर थे और इस काम के लिए किसी से भी एप्रोच करने में उन्हें कभी कोई हिचक नहीं हुई।
वर्ष 1995 से 2005 तक का दशक धमतरी पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए जबरदस्त मजदूर आंदोलन का दौर था, जिसका नेतृत्व उस समय कॉमरेड लाल कर रहे थे। रेमन यादव, मनीराम देवांगन, रमेश यादव, अशोक मेश्राम, नरेश खापर्डे आदि इन आंदोलनों के अगुआ होते थे। इस दौर में मंडियों में काम करने वाले गाड़ीवानों, हमालों और रेजाओं का आंदोलन हुआ और उनकी मजदूरी की दरों में बड़ा इजाफा हुआ। इसी दौर में बीड़ी मजदूरों का आंदोलन भी विकसित हुआ। तब बीड़ी मालिकों द्वारा मजदूरों पर जबरदस्ती जोड़ी प्रथा लादी जाती थी, जो एक प्रकार का उजरती शोषण था। कॉ. लाल ने इस जोड़ी प्रथा में अंतर्निहित शोषण के तथ्य को उजागर किया। इसके बाद अविभाजित मध्यप्रदेश में सरकार पर इतना दबाव पड़ा कि उसे इस जोड़ी प्रथा को अवैध घोषित करना पड़ा और बीड़ी मालिकों को इस प्रथा को खत्म करने के लिए मजबूर होना पड़ा।
यही वह दौर था, जब 1996-98 के बीच राइस मिल मजदूरों का आंदोलन विकसित हुआ और मजदूरों ने हड़ताल में जाने की घोषणा कर दी। यह हड़ताल दो वर्षों से अधिक चली और इसके नायक भी कॉ. लाल ही थे। छत्तीसगढ़ गठन के बाद एक बार फिर राइस मिल मजदूर हड़ताल के मैदान में उतरे। इस बार हड़ताल एक माह से ज्यादा चली और मिल मालिकों को मजदूरों की मांगें माननी पड़ी। सफाई कामगारों और सिनेमा हॉलों में काम करने वाले कर्मचारियों, वास्तव में मजदूरों, को भी उन्होंने इसी दौर में संगठित किया। आंदोलनों के इसी उफान में सीटू के झंडे तले तब पांच-पांच हजार मजदूरों की रैली निकलती थी और धमतरी की सड़कें जाम हो जाती थी और प्रशासन बेबस। प्रशासन की धमकियां और बीड़ी व राइस मिल मालिकों का प्रलोभन और उनके गुंडों की साजिश — किसी का भी असर कॉ. लाल पर नहीं पड़ा। धमतरी में मजदूर आंदोलन जब रूपाकार ले रहा था, तब छत्तीसगढ़ अविभाजित मध्यप्रदेश का हिस्सा था। इस आंदोलन को गढ़ने-सहेजने-संवारने में मध्यप्रदेश पार्टी और सीटू की भी बड़ी भूमिका थी। तब इन आंदोलनों को दिशा-निर्देशित करने कॉ. शैलेन्द्र शैली और बादल सरोज भी कई बार आये।
लेकिन उनके नेतृत्व में यह आंदोलन तब केवल मजदूरों तक ही सीमित नहीं रहा। इसी दौर में धमतरी में एसएफआई बनी, डीवाईएफआई बनी और फिर जनवादी महिला समिति भी। किसान सभा के निर्माण की भी कोशिशें हुई। वामपंथी आंदोलन के इस जतन के केंद्र में कॉ. लाल ही थे।
और यह सब जतन उन्होंने किया अपनी सीमाओं को लांघते-तोड़ते हुए। वह जीवन बीमा निगम के कर्मचारी थे और उसकी यूनियन के नेता भी। वे चाहते तो सार्वजनिक क्षेत्र की इस यूनियन के बड़े नेताओं में शुमार हो सकते थे, लेकिन ऐसा करने के बजाय उन्होंने असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को संगठित करना व उनके आंदोलन का निर्माण करना अपने जीवन का उद्देश्य बनाया। असंगठित क्षेत्र के आंदोलन का निर्माण करने के लिए संगठित क्षेत्र के आंदोलन की कई सुविधाओं व आदतों को छोड़ना होता है और रोजमर्रा के जीवन का ‘डी-क्लास’ करना होता है। उन्होंने इसे किया भी। वे किसी भी मजदूर के साथ बैठकर बीड़ी फूंक सकते थे — उनके घरों में, आंगन में बिना दरी के बैठ सकते थे और उनका भात भी नमक-मिर्ची के साथ मजे ले कर खा सकते थे। वे उनकी भाषा में बतिया सकते थे। यही कारण है कि मजदूरों ने उनमें कभी किसी ‘साहब’ की नहीं, हमेशा एक कॉमरेड की छवि देखी, जिसका एक हाथ उनकी मदद के लिए हमेशा बढ़ा होता था। मजदूरों के लिए वे केवल ट्रेड यूनियन लीडर नहीं, उनके संगी-साथी भी थे, जो उनके काम-पेशों के बारे में उनसे ज्यादा जानता था।
हिंदी भाषी क्षेत्रों में एक कमजोर वामपंथी आंदोलन की कुछ सीमाएं भी होती है और वे उन सीमाओं के बारे में भी हमेशा सचेत रहते थे। इन सीमाओं में एक वैकल्पिक नेतृत्व का निर्माण करना एक श्रम साध्य काम होता है। उन्होंने समीर कुरैशी को रायपुर से धमतरी लाया। ग्वालियर से आए समीर तब रायपुर राज्य कार्यालय में रहते थे तथा आजीविका के लिए छोटे-से स्वरोजगार में लगे थे। ग्वालियर के नौजवान सभा के आंदोलन से निकले इस युवा कार्यकर्ता की खूबियों को उन्होंने पहचाना। धमतरी लाकर उन पर चढ़े धूल और जंग को साफ किया और ट्रेड यूनियन आंदोलन में उन्हें सक्रिय किया। आज समीर धमतरी पार्टी के जिला सचिव है और असंगठित मजदूर आंदोलन के राज्य स्तरीय नेता। अपने जीते-जी कॉ. लाल ने एक वैकल्पिक नेतृत्व विकसित कर उसे स्थापित कर दिया है।
अजीत लाल ऐसे बिरले कॉमरेड थे, जिन्होंने पार्टी पर कभी अपने को हावी नहीं होने दिया और उसके अनुशासन से बंधे रहे। वे एकमात्र ऐसे कॉमरेड थे, जिन्होंने अपने बोनस पर भी लेवी दिया। पार्टी साथियों को दी गई मदद वे कभी याद भी नहीं रखते थे। पार्टी के विकसित होने के दौर में जिन साथियों ने भी धमतरी में पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में काम किया, उनका मानदेय देने की जिम्मेदारी उन्होंने हमेशा अपने कंधों पर ली और अपने वेतन से भी इसे देने में वे कभी हिचकिचाये नहीं। किसी मजदूर साथी के परिवार को आर्थिक संकट से उबारने में भी उनका हाथ खुला ही रहता था।
धमतरी में पार्टी कार्यकर्ता के रूप में मजदूर आंदोलन से जुड़कर उन्होंने अपना राजनैतिक काम शुरू किया था। वे वर्षों माकपा और सीटू के जिला सचिव रहे और आगे चलकर सीटू के राज्य महासचिव और माकपा के राज्य सचिवमंडल सदस्य बने। जीवन बीमा निगम से सेवानिवृत्ति के बाद वे एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता की तरह पूरे राज्य में पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन को आगे बढ़ाने के अपने प्रिय काम मे जुट गए। दो साल पहले वे साइब्रोसिस नामक गंभीर बीमारी की चपेट में आये, लेकिन बीमारी को ठेंगा दिखाते हुए अपने काम में वे जुटे रहे। लेकिन उनके फेफड़ों ने शरीर का साथ देना छोड़ दिया था और उन्हें गंभीर हालत में 26 जून को रायपुर एमएमआई में भर्ती कराना पड़ा, जहां से वे अपनी मृत देह के साथ 6 जुलाई को ही बाहर आ पाए।
वामपंथी आंदोलन का हर साथी अपने जाने के साथ ही अपने पीछे एक शून्य छोड़ जाता है। यह शून्य ही उस दिवंगत साथी की खूबियों की याद शिद्दत से दिलाता है, जिसके बारे में शायद हम पहले कभी ध्यान नहीं देते। आज कॉ. अजीत लाल याद आ रहे हैं उन खूबियों के साथ, जिसे उनकी अनुपस्थिति से बने शून्य को भरने का जतन वे पहले से कर गए हैं। उनकी याद को अक्षुण्ण बनाते हुए उनके जतन को सहेजने-बढ़ाने का काम पार्टी और ट्रेड यूनियन आंदोलन के संगी-साथियों को मिलकर करना होगा। धमतरी में एक स्थायी पार्टी कार्यालय का निर्माण उनका एक बड़ा सपना था। वामपंथी आंदोलन के निर्माण में पार्टी कार्यालय की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में वे हमेशा बात करते थे और धमतरी में हमेशा एक अस्थायी, लेकिन सक्रिय कार्यालय मौजूद रहे है। आंदोलन के एक स्थायी केंद्र का निर्माण और एक एकजुट मजदूर-किसान आंदोलन को विकसित करके ही हम उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित कर सकते हैं।
माकपा की छत्तीसगढ़ राज्य समिति उनके शोक संतप्त सभी परिवारजनों के साथ और उनसे जुड़े सभी संगी-साथियों और मजदूर आंदोलन के कार्यकर्ताओं के साथ अपनी संवेदना का इजहार करती है और उनके शोषणविहीन, जातिविहीन और समतामूलक समाज की स्थापना करने के संघर्ष को आगे बढ़ाने का संकल्प लेती है।
कॉमरेड अजीत लाल को लाल सलाम!!
आलेख : संजय पराते, राज्य सचिव (छत्तीसगढ़ माकपा)