दुनिया के बड़े जलवायु वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट का आख़िरी भाग, आईपीसीसी सिंथेसिस रिपोर्ट, जारी कर दिया है। इसमें क्लाइमेट क्राइसिस यानी जलवायु संकट को लेकर “फाइनल वार्निंग” है। हिंदू कुश हिमालय क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों ने इस बात को लेकर चिंता जताई है कि अगर पहाड़ और हिमनद यानी ग्लेशियर और ज़्यादा गर्म होते हैं तो तकरीबन 2 अरब लोगों की जिंदगी पर इसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव पड़ेगा।
पिछले आठ वर्षों के दौरान, साइंटिफिक बॉडी के कामकाज को इकट्ठा करने वाली आईपीसीसी एआर 6 सिंथेसिस रिपोर्ट में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि कम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन जैसी स्थितियों के बावजूद, इस सदी में ग्लोबल वार्मिंग के 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने की आशंका बनी हुई है। इससे खाद्य सुरक्षा को लेकर खतरा बढ़ेगा। लोगों को खतरनाक मौसम का सामना करना पड़ेगा। आपस में संघर्ष बढ़ेगा। तापमान के मौजूदा स्तर पर, पर्वतीय समुदाय पहले से ही भूस्खलन, आकस्मिक बाढ़ और झरनों के सूखने जैसी स्थितियों का सामना कर रहे हैं। जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है। साथ ही इससे निपटना इस समय सबसे बड़ी आवश्यकता बन गया है। सामान्यतः जलवायु से आशय किसी क्षेत्र में लंबे समय तक औसत मौसम से होता है। यदि औसत मौसम में परिवर्तन आ जाता है, तो उसे जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। पृथ्वी का तापमान पिछले 100 वर्ष में एक डिग्री फॉरेनहाइट तक बढ़ गया है। पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से कम हो सकता है, पर इसका सबसे अधिक प्रभाव मानव से लेकर जीव-जंतु और वनस्पति तक में देखने को मिलता है।
पर्वतीय क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन का असर बढ़ रही गर्मी, फसल चक्र में हो रहे परिवर्तन, उत्पादन के समय में परिवर्तन, साथ ही जंगलों में लगने वाली आग के रूप में महसूस किया जा सकता है। शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण लोगों के जीवन जीने के तौर-तरीकों में काफी परिवर्तन आया है। सड़कों पर वाहनों की संख्या काफी अधिक हो गई है। जीवन शैली में परिवर्तन ने खतरनाक गैसों के उत्सर्जन में काफी अधिक योगदान दिया है। इस संबंध में युवा बताते हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई चोरी-चुपके होती रहती है। वहीं बांज के पेड़, जो पर्वतीय परिवेश के लिए अत्यंत ही आवश्यक है, विलुप्ति की ओर अग्रसर हैं, जिसका एक प्रमुख कारण है पहाड़ों में चीड़ का विस्तार। चीड़ तापमान वृद्धि के साथ पहाड़ी क्षेत्रों में आग लगने का सबसे बड़ा कारण भी है। स्थिति ऐसा होती है कि यदि आप चीड़ के जंगलों के बीच से निकलते हैं, तो गर्मी के प्रकोप से पसीने से नहा जाते हैं। वहीं हर वर्ष चीड़ के जंगलों में भीषण आग लगती है, जिससे जीव-जंतु के नुकसान के साथ फसल व अन्य वनस्पति का नुकसान देखने को मिलता है। पावर प्लांट, ऑटोमोबाइल, वनों की कटाई व अन्य स्रोतों से होने वाले ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी को अपेक्षाकृत काफी तेजी से गर्म कर रहा है।
पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है। यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया और इसे कम करने के प्रयास नहीं किए गए, तो पृथ्वी की सतह का औसत तापमान तीन से 10 डिग्री फॉरेनहाइट तक बढ़ जाएगा। पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा व बारिश आदि की अनियमितता काफी अधिक बढ़ गई है। कहीं बहुत अधिक वर्षा हो रही है, तो कहीं सूखे की आशंका बन गई है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव मनुष्यों के साथ पशुओं पर भी देखने को मिल रहा है। अधिक गर्मी के चलते अक्सर जानवरों को हांफते व उनके मुंह से लार गिरते देखा जाता है, पर इसके साथ पशुओं की कार्य क्षमता में गिरावट आने के साथ उन पर कई बीमारियों का हमला भी हो रहा है। मौसम परिवर्तन का असर जानवरों के स्वास्थ्य, शारीरिक वृद्धि और उनकी उत्पादकता पर अधिक पड़ रहा है। मौसम में होने वाले तनावों से उनकी प्रजनन क्षमता कम हो रही है, गर्भधारण दर में काफी कमी आ रही है, साथ ही, जानवरों में थनैला रोग, गर्भाशय में सूजन व अन्य बीमारियों के जोखिम में वृद्धि हो रही है। अत्यधिक गर्मी जानवरों में जो तनाव बनाती है, उसे उष्मीय तनाव कहा जाता है, जिसमें जानवरों के शरीर में बाइकार्बोनेट तथा लौह तत्व की कमी से रक्त की पीएच कम हो जाती है। इस तनाव में जानवरों के शरीर का तापमान 102 से 103 डिग्री फॉरेनहाइट तक बढ़ जाता है, जिससे दुग्ध उत्पादन, दूध, वसा और प्रजनन क्षमता के साथ प्रतिरक्षा प्रणाली में कमी हो जाती है।
जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना का शुभारंभ वर्ष 2008 में किया गया था, जिसका उद्देश्य जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की विभिन्न एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समुदायों को जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरे और उससे मुकाबला करने के उपायों के बारे में जागरूक करना है। हम सचेत होंगे, तो परिवर्तन की रफ्तार घटेगी, क्योंकि इसकी रफ्तार बढ़ाने के जिम्मेदार हम स्वयं हैं।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)