2020 के गणतन्त्र दिवस जैसे पावन पर्व की परेड के लिए, दुनिया भर की भीड़ में अपनी ही “टाइप” के खास मेहमान की तलाश ख़त्म होती है जेयर बोल्सोनारो (jair bolsonaro)!! ऐसे चयन भी अनायास नहीं होते – यह भी उसी परियोजना का हिस्सा हैं जिसका मकसद मानवीय संवेदनाओं को कमतर साबित करना है, हिंसा और तानाशाही को स्थापित करना है ।
बर्बरता को सर्वमान्य बनाने की परियोजना
राजनीति की गहराई और असलियत को न समझने वाले भले-भोले लोग बेहूदगी और विद्रूपता, निर्ल्लजता और असभ्यता की जो भी निचली से निचली, नीची से नीची सीमा सोचते हैं, भाजपा-आरएसएस के कुटुम्ब के नेता-वक्ता-प्रवक्ता-कर्ताधर्ता उससे भी कहीं नीचे तक जाकर उन्हे भी गलत साबित कर देते हैं । स्त्रियॉं के यौन-उत्पीड़न को लेकर निर्लज्ज बयानों पर अभी देश ठीक तरह से अपनी हैरत भी नहीं जता पाता कि वे कुलदीप सेंगर के लिए जलूस निकालते दिखते हैं, इसकी कड़वाहट अभी मुंह से जाती भी नहीं है कि तब तक पूरा कुनबा आसाराम और गुरमीत राम रहीम का गुणगान करता व्यभिचार के चिन्मयानन्द सरोवर मे डुबकी लगाता नजर आता है ।
शुरू मे यह सब महीने मे एक की दर से होता था, फिर साप्ताहिक हुआ अब इसने 24 घंटे 7 दिन की आवृत्ति पकड़ ली है । यह हाशिये पर पड़े कुछ “भक्तों” का निजी प्रलाप नहीं है । सारे कुटुंब का तयशुदा आलाप है । यह अनायास नहीं है । यह अपमान को सम्मान, लानत को इज्जत, और तिरस्कारयोग्य को स्वीकार्य बनाने की मुहिम है ।
यह शब्दों के अर्थ बदल देने भर तक का मामला नहीं है बल्कि अत्यंत सुविचारित और योजनाबद्द तरीके से समाज और उसके सोचने समझने के तरीकों को हिंसक और बर्बर, नफरती और क्रूर बनाने की एक बड़ी परियोजना का हिस्सा है ।
इसे कारपोरेटी हिन्दुत्व या हिन्दुत्वी कारपोरेट – कुछ भी कह लें बात एक ही है । इनका प्रमुख अजेंडा सिर्फ आर्थिक या सामाजिक वर्चस्व नहीं है – उस तक सहजता से पहुँचने के लायक और अनुकूल वातावरण तैयार करने का भी है । इसीलिए पिछली 100 – 150 वर्षों का हासिल ही नहीं गुजरी 5-7000 वर्षों की सभ्यता मे जो भी सकारात्मक है वह उनके निशाने पर है । वे सारे जीवन मूल्य बदल देना चाहते हैं । अब तक के सीखे सिखाये को भुलवा देना चाहते हैं । अनैतिकता और बेशर्मी के इतने विराट हिमालयी उदाहरण प्रस्तुत कर देना चाहते हैं कि लोग उन्हे सामान्य आचरण का नियम मान लें और अचरज करना भूल जाएँ ।
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जिस देश मे एक विधायक के दलबदल पर क्षोभ और भर्त्सना की लहर उठा करती थी वहाँ थोक के भाव सांसद, विधायक, पार्टियां खरीदकर, राज्यपालों के सारे मुखौटे उतारकर उन्हे सत्ता पार्टी के द्वारपालों मे बदलकर संसदीय लोकतन्त्र को जितनी नीचाई पर पहुंचा दिया है और अपने माहौल बनवाने वालो ढिंढोरचियों के जरिये इसे “चाणक्य-नीति” और “चतुराई” के रूप मे प्रतिष्ठित कर दिया है, दसेक साल पहले तक इसकी उम्मीद करना भी अतिरंजना और अतिशयोक्ति होती । मगर आज जनता के एक बड़े हिस्से के लिए यह एक सामान्य सी राजनीतिक कुशलता बन कर रह गई है ।
संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों द्वारा ही संविधान के विरुद्द बोलना – खुद देश के प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री द्वारा एन आर सी सहित मौके-बेमौके खुलकर साम्प्रदायिक बातें और भड़काऊ बयानबाजी करना आम सी बात लगने लगी है ।
कुपढ़ समाज बनाने के लिए जरूरी है कि पढ़ा लिखा होना गुनाह और पढ़ने लिखने की मांग करना अपराध बना दिया जाये । इसलिए उनके निशाने पर विश्वविद्यालय हैं, स्कूल हैं, इतिहास है, किताबें हैं उन्हे लिखने पढ़ने वाले हैं । जे एन यू के छात्र-छात्राओं ने सिर्फ अपनी नहीं पूरे देश की शिक्षा को आम जनों की पहुँच मे बनाए रखने की लड़ाई छेड़ी तो उन्हे सिर्फ शारीरिक दमन का ही निशाना नहीं बनाया गया – उनके खिलाफ झूठ और कुत्सा का युद्द ही छेड़ दिया गया । समाज को संस्कारित और उसकी भाषा को सँवारने के सभी प्रमुख माध्यमो को उन्होने असभ्य और हिंसक बनाने के काम मे झोंक दिया है । मीडिया की भाषा और कुतर्की, हमलावर अंदाज अपने आप नहीं आए है – इसी परियोजना के हिस्से हैं । नेताओं के भाषण की डब्लू डब्लू एफ के पहलवानों वाली छिछोरी शैली भी इसी का भाग हैं ।
गरीबो, सामाजिक रूप से वंचितों और महिलाओं के प्रति पहले हिकारत और उसके बाद नफरत विकसित करना उनका मुख्य लक्ष्य है । लोकतन्त्र और संविधान के नकार के जिस मकसद को वे हासिल करना चाहते हैं उसके लिए मूल्यो के विखण्डन के लिए यह चौतरफा बमबारी जरूरी है ।
इस परियोजना मे छवि बिगाड़ने के साथ खराब छवि को असली छवि बनाना भी शामिल है । पचास के दशक मे उद्योगपति कनौडिया और साठ के दशक मे टाटा ने अफसोस जताया था कि “जनता के बीच कारपोरेट घरानों की छवि अच्छी नहीं है । वह इन्हे किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाने वाले, सत्ता और संपत्ति के खेल मे मशगूल धनपशु मानती है ।”
कारपोरेट की हिन्दुत्वी सरकार के सर्वेसर्वा ने भारतीय कारपोरेट के सर्वेसर्वा अंबानी के जियो के विज्ञापन का मोडल बनने से जो शुरुआत की थी वह अब कार्पोरेट्स को राष्ट्र और उनके मुनाफे को देशभक्ति साबित करने तक आ पहुंची है । बिना किसी लज्जा के सरकार अपने ही संस्थानों का कत्लेआम करके कार्पोरेटी गिद्दभोज के भंडारे पर भंडारे किए जा रही है ।
अर्थव्यवस्था के इस आत्म-संहार, आत्मनिर्भरता की हाराकीरी और कृषि-रोजगार के विनाश के खिलाफ बोलना देशद्रोह करार दिया जा रहा है । आई टी सैल और बाकी जगहों पर आपराधिक टिप्पणियाँ करने वालों को खुद मोदी द्वारा फॉलो करना भी इसी तरह की कोशिश है ।
देश भर मे ही नहीं दुनिया भर से अपने जैसे ढूँढ ढूंढकर लाये जा रहे हैं । इस बार 26 जनवरी की परेड के खास मेहमान ब्राजील के राष्ट्रपति जैर बोलसोनारो होने जा रहे हैं । दुनिया की फासिस्टी कलुष कोठरी के नवरत्नों मे से एक ये वही बोलसोनारो हैं जो हाल ही में तब चर्चा में आये थे जब इन्होने प्राकृतिक संपदा पर कारपोरेट का कब्जा आसान बनाने के लिए दुनियाँ का फेंफड़ा कहे जाने वाले अमेज़न के जंगलों को महीनो तक धधकने दिया था । उन्हे बुझाने के लिए आई दुनिया भर की मदद की पेशकशों को ठुकरा दिया था । अपनी हिंसक, बर्बर और फासिस्टी मनोवृत्ति को पूरी बेशर्मी से कहते भी रहते हैं । अपने चुनाव प्रचार अभियान मे इन्होने पोस्टर पर छापा था कि ” हिटलर और मुसोलिनी के बारे में लोग कुछ भी कहें लेकिन वो भ्रष्ट नहीं थे ” । एक टीवी इंटरव्यू में बोले थे कि “ब्राजील में परिवर्तन के लिए तीस हजार लोगों का क़त्ल करना पड़ेगा और इसकी शुरुआत (तब के) राष्ट्रपति फर्नांडो हेनरिक कारडोसो के क़त्ल से होनी चाहिए । ”
महिलाओं के बारे मे इनकी सोच क्या है यह अपनी साथी महिला सांसद से ” मैं तुम्हारा बलात्कार नहीं करुंगा क्योंकि तुम यह डिजर्व नहीं करती हो ” कहकर और ”महिलाओं को पुरुषों के समान वेतन नहीं मिलना चाहिए क्योंकि महिलाएं गर्भवती हो जाती हैं जिससे उत्पादकता पर प्रतिकूल असर पड़ता है ।” बोलकर जाहिर कर दिया ।
दुनिया भर के अनेक गैरों की भीड़ में अपने जैसों की तलाश में मोदी सरकार को मिला भी तो जैर !! ऐसे चयन भी अनायास नहीं होते – यह भी उसी परियोजना का हिस्सा हैं जिसका मकसद मानवीय संवेदनाओं को कमतर साबित करना है, हिंसा और तानाशाही को स्थापित करना है ।
एक बुंदेलखंडी कहावत है कि “जैसे जाके नदी नाखुरे तैसे ताके भरिका/जैसे जाके बाप महतारी वैसे ताके लरिका” मार्क्स ने इसे “लोगों के लिए माल पैदा करने के साथ साथ माल के लिए लोग पैदा करने” के रूप मे दूसरे तरीके से कहा था ।
कारपोरेट पूंजी और हिन्दुत्व – जिसका हिन्दू धर्म या परम्पराओं के साथ कोई रिश्ता नहीं है उस हिन्दुत्व – का यह काकटेल, मौजूदा समय के दो सबसे सांघातिक विषों का मेल है । दोनों की कामना है कि बाकी सबको इसे बर्दाश्त करने लायक बना दिया जाये ।
मगर हुक्मरानों की मुश्किल यह है कि ऐसा करना उतना आसान नहीं है जितना कि वे समझते हैं । बिना हिचके लगातार जूझ रहे जेएनयू और उन्नाव मे किसानों पर चली लाठी-गोली के खिलाफ बीएचयू सहित उत्तर प्रदेश के छात्रों का प्रतिवाद अंधेरे की कोशिशों के विरुद्द उजाले की जिद हैं ।
आने वाले दिनों मे ये जिदें बढ़ेंगी । मजदूर-कर्मचारियों की 8 जनवरी की देशव्यापी हड़ताल और उसके समर्थन मे किसानों, महिलाओं सहित सभी मेहनतकशों की कार्यवाहियों के रूप मे प्रतिरोध के नए कीर्तिमान रचेंगी ।
संजय पराते- अ.भा.किसान सभा के संयुक्त सचिव