डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)

पर्यटन के नाम पर असमय लाखों लाख लोग गाडियों में भरे धमाचौकड़ी मचाते चले आ रहें हैं । अंग्रेज ने भी पहाड पर टूरिज्म का समय तय किया हुआ था कि कब आना है- कब जाना है। मगर आज टूरिज्म के नाम पर जिस अराजक और अवैज्ञानिक तरीके से पहाडो में जंगल काटकर भारी भरकम इमारते, होटल रिसोर्ट बन रहें हैं, आने वाले दिनों में भूकंप या दूसरी प्राकृतिक आपदाओ में इनका जमींदोज होना तय है।

आपदा की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड में आपदा प्रभावित गांवों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। अब तक यह आंकड़ा 411 तक पहुंच चुका है।शासन की ओर से सभी जिलों से मांगी गई रिपोर्ट में इसमें वृद्धि की संभावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत राज्य में आपदा प्रभावित गांवों के पुनर्वास की रफ्तार तेजी नहीं पकड़ पाई है। वर्ष 2012 से अब तक 88 गांवों के 1496 परिवारों का पुनर्वास ही हो पाया है। शेष गांवों का इसका इंतजार है।अपनी भौगोलिक विभिन्नता के कारण उत्तराखंड राज्य में पर्यावरण व प्राकृतिक आपदा पहले से ही बड़ी चुनौतियां हैं, लेकिन जोशीमठ में भूधंसाव के मामले ने एक और नई चुनौती खड़ी कर दी है। इस चुनौती से निपटने के लिए सरकार को तीन स्तर पर न केवल व्यापक रूप से कार्य करना होगा, बल्कि जोशीमठ से सबक लेते हुए उत्तराखंड के विकास का मॉडल भी तैयार करना होगा।

सरकार को विस्थापन की महत्वकांक्षी योजना पर गंभीरता से कार्य करना चाहिए, क्योंकि सरकार के अधिकारिक बयान के अनुसार अभी तक जोशीमठ भूधंसाव के प्रभावित केवल 385 नागरिकों के पुनर्वास की व्यवस्था हो पाई है। यह जोशीमठ की कुल आबादी का मात्र तीन से चार प्रतिशत है।जोशीमठ के घटनाक्रम से सीख लेते हुए भूधंसाव की व्यापक स्तर पर उच्च स्तरीय जांच करे। क्या यह भूधंसाव एनटीपीसी की सुरंग के बनने से हुआ है, क्या आल वैदर रोड की कटिंग इसका कारण हो सकता है या फिर जोशीमठ में बिना प्लानिंग के बने बड़े-बड़े होटल भी इसकी एक वजह हो सकती है।

बदरीनाथ यात्रा मार्ग के अहम पड़ाव कर्णप्रयाग में भूधंसाव और पहाड़ियों से हो रहे भूस्खलन ने स्थानीय निवासियों की चिंता बढ़ा दी है। प्रभावित भवनस्वामियों ने स्थानीय प्रशासन सहित शासन से समय रहते स्थिति का आंकलन कर वर्षाकाल से पूर्व सुरक्षा की गुहार लगाई है। सिंचाई विभाग के चीफ इंजीनियर ने कहा विशेषज्ञ विज्ञानियों द्वारा सर्वे के बाद सुरक्षा के इंतजाम होंगे। उन्होंने कहा कि भूधंसाव वाले क्षेत्र का फिर से सर्वे कराया जाएगा। इस दौरान प्रभावितों की समस्याएं सुनते हुए उन्होंने स्वहित को दरकिनार कर प्रकृति से छेड़छाड़ को खतरे की घंटी बताया।

बीते एक दशक से अधिक समय से रानीखेत राजमार्ग पर मुख्य बाजार से लगी अपर बाजार मस्जिद से रामलीला मैदान तक पहाड़ी से हर वर्षाकाल में होने वाला भूस्खलन वाहनों की आवाजाही बाधित करता है।यहां पचास से अधिक भवनों के नीचे दीवार और समुचित नाली निकासी की व्यवस्था न होने से भूस्खलन का दायरा बढ़ जाता है। हांलाकि वर्षा थम जाने के बाद भूस्खलन थम जाता है। लेकिन, आए दिन पत्थरों के गिरने से आवाजाही बेहद जोखिमभरी बनी रहती है।दरअसल, नगर क्षेत्र की आंतरिक सड़कों सहित राजमार्ग पर जिम्मेदार विभागों द्वारा समय पर निकासी व्यवस्था न बनाए जाने और स्कवरों से समुचित पानी के लिए नाली निर्माण नहीं किया जा सका है। जिससे लगातार क्षेत्र में पानी का रिसाव अब भूंधसाव को बढ़ा रहा है।

कर्णप्रयाग-नैनीसैंण मोटर मार्ग पर निकासी नाली का रूख बहुगुणा नगर, प्रेम नगर, आइटीआइ की ओर आबादी क्षेत्र में होने से खतरा बरकरार है। जबकि मंडी समिति भवन निर्माण के दौरान जेसीबी मशीनों से की गई खोदाई से आवासीय भवन अब खतरे की जद में आ गए हैं। राज्य में अतिवृष्टि, भूस्खलन, नदियों की बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं के कारण प्रभावित गांवों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। पर्वतीय क्षेत्र में ऐसे गांवों की संख्या सर्वाधिक है। इसे देखते हुए आपदा प्रभावित गांवों के पुनर्वास के लिए वर्ष 2011 में पुनर्वास नीति आई, लेकिन शुरुआत में इसकी गति बेहद धीमी रही।पुनर्वास से संबंधित प्रस्ताव लंबित पड़े हैं। शासन स्तर पर यद्यपि, शासन का कहना है कि इन प्रस्तावों पर जल्द निर्णय लेने के साथ ही पुनर्वास की गति को अब तेज किया जाएगा।

उत्तराखंड सहित अन्य हिमालयी राज्य आर्थिक रूप से इतने सक्षम भी नहीं हैं कि अपने दम पर इन आपदाओं से निपट सकें। इस पर इन्हें 2030 तक सतत विकास लक्ष्य (गरीबी उन्मूलन, महिला सशक्तिकरण, जोखिम को सहन करने वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास, शहरों और मानव बस्तियों को सुरक्षित बनाना, वन प्रबंधन के लक्ष्य भी हासिल करने हैं। ऐसे में इन राज्यों के सामने एक दूसरे की मदद करने के अलावा कोई अन्य विकल्प भी नहीं है। पूरी दुनिया में कुदरत की सौंदर्यता के लिए जाना जाने वाला राज्य होने के साथ ही उत्तराखंड प्राकृतिक और मानवजनित आपदाओं के लिए भी जाना जाने लगा है, इसे इस राज्य का दुर्भाग्य ही कह सकते हैं।

उत्तराखंड में आईं ये आपदाएं राज्य को गहरे प्राकृतिक जख्म दे गईं। इस राज्य ने बहुत हद तक खुद को संभाला लेकिन इन त्रासदियों से सरकारों ने सबक नहीं लिया। वैज्ञानिक अध्ययन की कई चेतावनी भरी रिपोर्ट आज धूल फांक रही हैं। नतीजे आज जोशीमठ के तौर पर सबके सामने हैं और हुकुमतें बेपरवाह हैं और जिंदगियां एक और त्रासदी का इंतजार करने को मजबूर, लाचार हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि अब बहुत देर हो चुकी है। साथ ही वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अब लोगों की जिंदगी बचाना प्राथमिकता होनी चाहिए। पहले ही काफी देर हो चुकी है, जोशीमठ में हो रहे भू धंसाव से अब उत्तराखंड की बड़ी आपदाओं का जिक्र छिड़ गया है कि क्यों सरकारों ने समय पर सबक नहीं लिया और विकास के नाम पर अधांधंंध निर्माण से इस पहाड़ी राज्य के पहाड़ों का छलनी कर दिया। परिणाम ये हुए कि आज एक शहर डूब रहा है।

जोशीमठ के बहाने आज उत्तराखंड की उन बड़ी त्रासदियों के जख्म फिर से हरे हो गए, मगर हुकुमतें आज भी बेखबर है। अभी भी सरकार न चेती तो प्रदेश के कई नगर भूस्खलन की जद में हैं । समय रहते जोशीमठ प्रकरण की गहनता से पड़ताल न की गई तो कल उनका नंबर आना भी तय है।

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