डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)

उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है। यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य, शीतल हवा दूर दूर तक फैले पर्वत और सघन वन ह्रदय को शांति देते हैं।  ऐसा लगता है मानो आप स्वर्ग में हैं। यहाँ की प्राकृतिक रमणीयता, नयनाभिराम भव्यता अनायास ही किसी के भी अंदर कवि की आत्मा जाग्रत कर देती है। देवभूमि उत्तराखंड में कई महान साहित्यकारों ने जन्म लेकर हिंदी, व क्षेत्रीय भाषा (कुमाउनी, गढ़वाली) साहित्य को समृद्ध किया है जन कवि चंद्र कुंवर बर्त्वाल का जन्म रुद्रप्रयाग जिले के ग्राम मालकोटी, पट्टी तल्ला नागपुर में 20 अगस्त 1919 को हुआ था। वह स्थान उडामण्डा जहाँ उन्होंने प्राथमिक शिक्षा ली, नागनाथ का वह मिडिल स्कूल जो अब इंटरमीडिएट कॉलेज है जिसके छात्रावास में वे रहे, अंग्रेजों का बनाया हुआ डाक बंगला था जिसके कि अब केवल अवशेष बाकी हैं। इसके अलावा चन्द्रकुंवर ने पोखरी और अगस्तमुनि में अध्यापन भी किया था।

हिंदी के कालिदास के रूप में जाने जाने वाले प्रकृति के चहते कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल को प्रकृति प्रेमी कवि माना जाता है। उन्होंने मात्र 28 साल के जीवन में एक हज़ार अनमोल कविताएं, 24 कहानियां, एकांकी और बाल साहित्य का अनमोल खजाना हिन्दी साहित्य को दे दिया था। मृत्यु पर बेहद आत्मीयता और विस्तार से लिखने वाले चंद्रकुंवर बर्त्वाल कालिदास को अपना गुरु मानते थे। उनकी कविताओं में हिमालय, झरनों, नदियों, फूलों, खेतों, बसन्त का वर्णन तो है ही साथ ही उपनिवेशवाद का विरोध भी दिखता है।

आज उनके काव्य पर कई छात्र पीएचडी से लेकर डी-लिट् कर रहे हैं। कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल प्रमुख कृतियों में विराट ज्योति, कंकड़-पत्थर, पयस्विनी, काफल पाक्कू, जीतू, मेघ नंदिनी हैं। युवावस्था में ही वह तपेदिक यानी टीबी के शिकार बन गए थे और इसके चलते उन्हें पांवलिया के जंगल में बने घर में एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़ा था। मृत्यु के सामने खड़े कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कविताओं को लिखा। 14 सितम्बर, 1947 को हिन्दी साहित्य को बेहद समृद्ध खजाना देकर यह युवा कवि दुनिया को अलविदा कह गया। कवि चन्द्र कुंवर बर्त्वाल की मृत्यु के बाद उनके सहपाठी रहे शंभु प्रसाद बहुगुणा ने उनकी रचनाओं को प्रकाशित करवाया तब जाकर यह दुनिया के सामने आ पाईं।

चंद्र कुंवर बर्त्वाल बेशक प्रकृति के कवि पहले थे मगर उनकी कविताएं मानवता को समर्पित थीं। उन्होंने हिमालय, प्रकृति व पर्यावरण के साथ-साथ मनुष्य की सुंदर भावनाओं और संवेदनाओं को अपनी कविताओं में पिरोया। उनकी कविताएं हिमालय व प्रकृति-प्रेम की साक्षी रही हैं।

यह इस प्रदेश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि आजतक कोई भी स्कूल, संस्थान का नाम इस महान साहित्यकार के नाम पर नहीं है। नारायण दत्त तिवारी ने अगस्त्यमुनि इंटर कालेज का नाम इस साहित्यकार के नाम पर रखने की घोषण तो की थी, मगर वह भी आज तक पूरी नहीं हो पायी।

हिमवंत कवि चन्द्रकुंवर बर्त्वाल की कर्मस्थली पंवालिया आज भी वीरान पड़ी है। बीमार होने के बाद उन्होंने अपने जीवन के सात वर्ष यहीं पर गुजारे व कविताएं, रचनाएं, गद्य भी यहीं पर लिखे। रुद्रप्रयाग के पंवालिया (भीरी) खंडहर व बंजर पड़ा हुआ है। यह भूमि 16.50 हेक्टेयर, जो कि अब कृषि विभाग के पास है। लेकिन, विभाग भी इसे सही उपयोग नहीं कर रहा।

कई बार सामाजिक संगठनों से जुड़े लोगों ने सरकारों से मांग की कि कवि के खंडहर पड़े घर को एक संग्रहालय के रूप में बनाया जाए। ताकि उनके संषर्षों से जुड़ी यादें, कविताएं व रचनाओं को यहां पर संजो कर रखा जा सके। 2017 में राज्य के पर्यटन मंत्री सतपाल महाराज ने पोखरी मेले में कवि के पंवालिया स्थित भवन को संग्रहालय के रूप में विकसित करने की घोषणा की थी ,जो आज तक हवा में ही है ।

उम्मीद है कि मानवीय संवेदनाओ से परिपूर्ण उत्तराखंड के हित के लिए दूरदर्शी सोच रखने वाले प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी उत्तराखड इस जनकवि को वह सम्मान दिला पायेगा जिसके की वह हकदार है।

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