हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर उत्तराखंड के विकास की मांग करने वाले उन तमाम टटपुन्जिये नेताओं/संगठनों को सबसे पहले तो यह समझना होगा कि हिमाचल आज जिस मुकाम पर है उसका श्रेय वहां के परमार राजा को जाता है, जिन्होंने अपने निजी स्वार्थों का त्याग कर स्वेच्छा से स्वयं को नवनिर्मित राज्य के विकास में झोंक दिया था। उनके द्वारा हिमाचल के लिए बनाई गई दूरदर्शी नीतियां ही थी जो आज वहां का निवासी समृद्धि से परिपूर्ण है। दूसरी ओर इस प्रदेश के स्वयंभू नेता जो अपने को उत्तराखंड का खेवनहार मानते हैं मगर सोच आज भी जातिवाद, क्षेत्रवाद से आगे नहीं पहुंच पाती और गलत-फहमी ऐसी कि राष्ट्रीय स्तर भी छोटा पड़ जाए। ऐसे नेताओं के कुकृत्यो को न तो बद्री–केदार ही माफ कर पाएंगे और ना ही गंगा–यमुना धुल सकेगी ।
9 नवम्बर 2000 को पृथक राज्य के अस्तित्व में आने के बाद सूबे के दूसरे मुखिया मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी के कार्यकाल में एक अध्यादेश पास हुआ था। जिसमें समूह ‘ग’ की सीधी भर्ती में मूल निवास की अनिवार्यता को दरकिनार करते हुए केवल सेवायोजन कार्यालय में पंजीकरण को ही मान्य कर दिया गया। यह पर्वतीय मूल के निवासियों के अधिकार पर पहली चोट थी। वास्तव में तत्कालीन भाजपा सरकार को मूल निवास या स्थाई निवास के विषय में स्पष्ट निर्णय ले लेना चाहिए था । बागेश्वर से विधायक व तत्कालीन सरकार में काबीना मंत्री रहे नारायण रामदास की अध्यक्षता में गठित कमेटी में आरक्षण और मूल निवास नीति पर महत्वपूर्ण निर्णय होना था किंतु विवेक व दूरदर्शिता के आभाव सामने आ गया और दोनों ही मुद्दे फाइल में बंद कर दिए गए। यदि उसी समय इन मुद्दों पर निर्णय ले लिया गया होता तो आज न यह अनिश्चय का वातावरण तैयार न होता और न ही जनता आंदोलित होती ।
राज्य स्थापना की प्रारंभिक वर्षों में सरकार ने पंतनगर विश्वविद्यालय व अन्य तकनीकी विश्वविद्यालय में प्रवेश के नाम पर स्थाई निवास प्रमाण पत्र की व्यवस्था की थी । उसमें पिछले 3 वर्षों (1998, 1999, 2000) से इस राज्य में रहने वाले व्यक्तियों को जिसकी उत्तराखंड में पिछले 3 वर्षों से अचल संपत्ति हो स्थाई निवासी मान लिया गया । यही मामूली से अनिवार्यता उत्तराखंड के पर्वतीय युवाओं के अरमानों को धराशाई करने को काफी थी । असल में यह व्यवस्था उत्तर प्रदेश सरकार के समय से लागू थी ।चूँकि राज्य की मांग के पीछे रोजगार (विशेषकर सरकारी नौकरी) एक महत्वपूर्ण प्रश्न था, जिस पर संशोधन करने की आवश्यकता थी । लेकिन मंजिले उनको मिली थी जो राहे हमसफर भी न थे, शायद तभी वह इस प्रश्न की गहराई में चाहकर भी न पहुंच पाए ।
तत्कालीन सरकार को मूल निवास, स्थाई निवास व अस्थायी निवास में विभेद करने में तकनीकी संकट हो रहा था। उन्होंने मूल निवास पर उसने चुप्पी साध रखी थी, किंतु स्थाई निवास को आधार बनाकर उन लोगों के लिए इतनी सरलता कर दी थी जो यहां के मूल निवासी नहीं थे। सरकार को चाहिए था कि वह नीतिगत निर्णय लेते हुए उन सभी लोगों को जो (1947 के विभाजन में के बाद से) यहां के संसाधनों व संस्कृति में रच-बस गए हों , को यहां का मूल निवासी मानकर नीति तैयार करती। बाकि उन लोगों को जिन्होंने राज्य निर्माण से मात्र तीन-चार वर्ष पूर्व, केंद्र अथवा राज्य सरकार के कर्मचारी रहते हुए, यहाँ आबोहवा से प्रभावित होकर देहरादून नैनीताल आदि अपने मकान बना लिए हो, को मूलनिवासी नहीं माना जाना चाहिए था। क्योंकि ऐसी स्थिति में वह अपने गृह जनपद व उत्तराखंड दोनों के ही मूल निवासी बन जाएंगे।
राज्य बनने के बाद से देहरादून के बरसाती नालों-खालों, नदियों के किनारे हजारों की संख्या में पक्के मकान बन गए। वोटों की गणित ने इन्हें पानी-बिजली के कनेक्शन, राशन-कार्ड आदि भी उपलब्ध करवा दिए। इन इलाकों को मलिन बस्ती के रूप में घोषित कर विकसित भी कर दिया गया। यह कौन लोग थे ? कहां से आए थे ? क्या करते थे ? किसी भी सरकार के पास यह जानने का, ना तो कभी समय था और ना ही कभी होगा। राज्य गठन से लेकर अब तक मूलनिवासी के मुद्दे पर उत्तराखंड के आन्दोलनकारियों छात्रों व महिलाओं ने कई बार आंदोलन किए, किंतु किसी भी राजनीतिक दल ने आज तक बेरोजगारी से जुड़े इस ज्वलंत मुद्दे पर कोई भी नीतिगत निर्णय नहीं लिया। फ़िर चाहे वह कोई राष्ट्रीय दल रहा या फिर अपने को पृथक राज्य श्रेय देने वाला क्षेत्रिय दल। प्रदेश की प्रथम मनोनीत सरकार ने तो राज्य गठन से पूर्व के 3 वर्षों (1998, 1999, 2000) को आधार बना कर इस मुद्दे से इतिश्री कर ली। मगर इस मुद्दे पर आन्दोलनकारी संगठन भी किसी समय सीमा को तय करने की स्थिति में नहीं दिख पाए।
उत्तराखंड संघर्ष समिति के संयोजक व पूर्व विधायक रणजीत सिंह वर्मा का मानना है प्राकृतिक रुप से विषम भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले मनुष्य रुपी जीव, जिन्होंने जीवन की मौलिक सुविधाओं, स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली, पानी आदि की सुचारु व्यवस्था के सपने को सजों कर इस राज्य की निर्माण में अपनी आवाज बुलंद किया था। अगर आज भी हम उनका तुलनात्मक अध्ययन करें, तो पाएँगे कि उसकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति उत्तर-प्रदेश अथवा अन्य राज्य के पिछड़ों की तुलना में ज्यादा बद्तर है। आज भी सुदूर प्रवृत्ति क्षेत्रों में रह रहे उस मूल निवासी को राजधानी में बैठे तथाकथित मूल निवासी भी उपेक्षत ही मानते हैं। यह इस प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि 22 साल बाद भी पिछड़े क्षेत्रों में रह रहे लोगों के साथ सरकार कोई भी सकारात्मक रुख नहीं अपना सकी।
राजनीतिक समीक्षकों का तो यहाँ तक मानना है कि सरकार जानबूझकर ऐसा माहौल बना रही है कि जिससे महसूस हो कि वह राज्य की मूल निवासियों के विषय में चिंतित जरूर है किंतु कुछ करने में अक्षम है। इस तरह से वह उन लोगों को जिनका इस राज्य से कुछ भी लेना देना नहीं रहा है को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाने का कार्य कर रही है।
राज्य आंदोलनकारी संगठन सरकार के निर्णय के खिलाफ धरना प्रदर्शन कर सकते हैं और वह ऐसा कर भी रहे हैं। अब सरकार को देखना चाहिए कि आर्थिक एवं सामाजिक रुप से पिछड़े समाज को आगे कैसे बढ़ाया जाए। अभी भी वक्त है कि कोई रोजगार देने से पहले मूल निवास के संबंध में ऐसी नीति तय करें जो राज्य की मूल भावना की अनुरूप हो। आखिर यह प्रश्न मूल निवासियों के हितों के संरक्षण इस राज्य के उज्ज्वल भविष्य व खुशहाली से जुड़ा है। ऐसे में सरकार को पारदर्शिता अपनानी होगी। शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर नौकरियों में आवेदन करने का सवाल सिर्फ मूल निवास प्रमाण पत्र को वैध ठहराया जाना चाहिए। अन्यथा नए परिसीमन के बाद होने वाले चुनाव में विधान-सभा की सूरत कैसी होगी ? कुछ कहा नहीं जा सकता।
नोट : यह लेख अप्रैल 2009 को पर्वतवाणी में छपा था सिर्फ़ समयान्तर का ध्यान रखते हुए 9 वर्ष पूर्व की जगह 22 वर्ष पूर्व किया गया है !
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