डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला

स्व. रामप्रसाद नौटियाल एक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ ही इस क्षेत्र के बड़े समाजसेवी और लोकप्रिय जननेता रहे। उन्होंने अपना पूरा जीवनकाल समाज को समर्पित करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किए।

एक अगस्त,1905 को उत्तराखंड के गढ़वाल जिले के एक छोटे से गांव ‘कांड़ा वीरोंखाल’ में गौरीदत्त और देवकी देवी के घर जन्मे रामप्रसाद नौटियाल बचपन से ही विद्रोही स्वभाव के थे। सातवीं कक्षा में विद्यालय में नारेबाजी करने की उदण्डता के कारण पहले तीन सप्ताह का कारावास मिला और फिर विद्यालय से निकाले दिए गए। वह डर कर घर जाने के बजाए मेरठ की ओर मुड़ गए जहां भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महायज्ञ में पहली आहुति पड़ी थी।

मेरठ पहुंचने के बाद उन्हें ब्रिटिश सेना के एक पहाड़ी रसोइए ने अपने साथ रख लिया और कुछ वर्ष बाद अंगरेज सेना से जुड़कर बलूचिस्तान पहुंच गए। यहां तोरखान नामक एक बलूच सरदार के हमले से कर्नल एबोट और तत्पश्चात अपदस्थ रुसी जार के भगोड़े सैनिकों से कर्नल वैली को बचाने पर उन्हें पदोन्नति मिली और लाहौर स्थानांतरण। लाहौर में देश दुनिया के समाचारों से पुन: जुड़ाव हुआ और भारतीयों पर अग्रेजों के अत्याचारों की खबरों से भरे पड़े अखबारों ने पुन: विद्रोह को सुलगाना आरंभ कर दिया।

वर्ष 1928 को लाला लाजपत राय की पुलिस लाठीचार्ज में मृत्यु से देशभर में गुस्से का माहौल था। तमाम युवा काम-धंधे छोड़कर स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े। रामप्रसाद ने भी नौकरी छोड़कर स्वाधीनता की लड़ाई में कूदने का निश्चय कर किया और सेवा दल का प्रशिक्षण लेने के लिए हुगली चले गए, प्रशिक्षण पूरा करने के पश्चात उन्हें लाहौर में अन्य सेवा दलों को प्रशिक्षण देने की जिम्मेदारी दी गयी, जिसके लिए इन्हें पुन: लाहौर आना पड़ा। इन्हीं दिनों में भगत सिंह व साथियों ने ‘लाला जी’ की निर्मम हत्या के प्रतिशोध में ब्रिटिश पुलिस अफसर सौंडर्स की गोली मार कर हत्या दी। अंग्रेज़ सरकार ने सभी क्रांतिकारियों को बिना जाने-पूछे हिरासत में लेना आरंभ कर दिया। गिरफ्तारी से बचने के लिए सारे क्रांतिकारी तितर-बितर होने लगे, रामप्रसाद भेष बदलकर हिमाचल प्रदेश के चम्बा पहुंचे और तत्पश्चात इन्हें शाहपुर के एक आर्य समाज मंदिर से गिरफ्तार कर लाहौर जेल भेज दिया गया।

लाहौर जेल में तरह-तरह की यातनाएं दी गईं और सौंडर्स मर्डर काण्ड में शामिल होने की बात कबूलने के लिए बाध्य करने की कोशिश की गई, बाद में इन्हें सरकारी मुखबिर बनने का लालच भी दिया गया किन्तु सारी कोशिशें असफल रहने के बाद ब्रिटिश सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। दिसम्बर, 1929 को जेल से रिहा होने के बाद ‘रामप्रसाद नौटियाल’ सीधे रावी नदी के किनारे चल रहे कांग्रेस के वार्षिक सम्मलेन में भाग लेने के लिए पहुंच गये । यहां इनको उत्तराखंड (तत्कालीन उत्तर प्रदेश) से आने वाले समूह के कैंप की देखरेख में लगाया गया; इस प्रकार उनकी मुलाकात गढ़वाल और कुमायूं से आए अन्य सत्यग्राहियों हरगोविन्द पन्त, बद्री दत्त पांडेय, विक्टर मोहन जोशी, देवी सिंह कोरिया, अनुसूया प्रसाद बहुगुणा, कृपाराम मिश्र ‘मनहर’ आदि से हुई।

इसके बाद वह कुमांऊ सत्याग्रह दल का पर्यवेक्षक बनकर ‘रानीखेत’ आए। उत्तखण्ड के दोनों मंडलों गढ़वाल व कुमाऊं में सत्याग्रह शिविर आरंभ किए और कई मालगुजारों व थोकदारों (गांवों में अंग्रेज़ सरकार के प्रतिनिधियों) को भी ब्रिटिश प्रशासन के विरुद्ध कर दिया। उसी दौरान रामप्रसाद नौटियाल ‘कप्तान’ उपनाम से प्रसिद्द हुए। एक बार सत्याग्रह प्रभात फेरी से लौटते समय लैन्सडाउन (गढ़वाल) स्थित अग्रेज़ सेना के कर्नल इब्ट्सन व उनके जवान आ धमके; और शांतिपूर्ण मार्च निकाल रहे ग्रामीणों से मारपीट आरंभ कर दी। रामप्रसाद ने क्रोधवश कर्नल इब्ट्सन पर हमला बोल दिया, जिसमें वह गंभीर रूप से घायल हो गया। रामप्रसाद को गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमे की सुनवाई के लिए कोटद्वार लाया गया। जज ने रामप्रसाद से कहा, ‘तुम्हे अपने पक्ष में कुछ कहना है?’ रामप्रसाद जान-बूझकर जोर-जोर से बोले, ‘मैं अपने आप को ब्रिटिश नागरिक नहीं मानता अत: इस ब्रिटिश कोर्ट में कुछ भी कहना मेरे लिए अपमानजनक होगा। जज महोदय ने सामान्य सजा के साथ एकांतवास भी जोड़ा और जिले से बाहर बरेली जेल भिजवा दिया। 

जेल से छूटने के बाद, वर्ष 1934 में तत्कालीन अंग्रेज गवर्नर मैलकाम हेली के पौड़ी आगमन पर रामप्रसाद ने पौड़ी जिला मुख्यालय जाकर उसे काले झंडे दिखाने का निर्णय लिया, जहां उन्होंने इस गवर्नर को काले झंडे दिखाए और ‘वन्देमातरम!’, ‘गवर्नर गो-बैक’ का उद्घोष करते हुए पुन: गिरफ्तारी दी। वर्ष 1942 में गांधी जी “भारत छोडो ” आंदोलन का श्रीगणेश कर चुके थे। “करो या मरो” की ललकारों से भारत वर्ष का कण-कण गूंज रहा था। देश भर में कई क्रांतिकारी वीरों ने जगह-जगह सरकारी व्यवस्था को उखाड़ फेंककर जनता का नियंत्रण स्थापित कर दिया था। ऐसी ही कुछ योजना रामप्रसाद और उनके साथियों ने भी बनाई। कर्णप्रयाग ब्रिटिश के स्टोर से डायनामाइट लूटकर विस्फोटक तैयार किए। 27 अगस्त 1942 को हजारों की संख्या में जनता व क्रांतिकारियों की भीड़ ने लैंसडौन पर धावा बोल दिया किन्तु इसकी खबर ब्रिटिश अफसर डी.सी. फर्नीड्स तक पहले ही पहुंच गई। फर्नीड्स ने लैंसडौन जाने वाले सारे मार्गों को सील करवा दिया। चौमासू पुल व बांधर पुल पर फौज तैनात कर दी। इसी बीच रामप्रसाद के पिता और उनके अपने पुत्र की मौत की खबर पहुंची तो उन्हें घर जाना पड़ा जहां से उन्हें गिरफ्तार कर पुन: बरेली सेंट्रल जेल भेज दिया गया।

वर्ष 1945 में रिहा होने के बाद स्वतन्त्रता आंदोलनों के साथ-साथ दलित उद्धार, छुआ-छूत उन्मूलन व डोला-पालकी (बेगार प्रथा) जैसी पुरानी परम्पराओं को समाप्त करने के लिए व्यापक जन-जागरण के कार्यक्रम चलाए। वर्ष 1946 अंग्रेजी शासन की जनता विरोधी नीतियों के कारण पहाड़ी क्षेत्रों में अकाल की स्थिति पैदा हो गई। प्रशासन की मनमानी पर लगाम के लिए रामप्रसाद व उनके साथियों ने प्रशासन में स्वाधीनता के समर्थक कतिपय अधिकारियों के साथ मिलकर करीब 52 सहायता समूह स्थापित किए और अंग्रेज समर्थक व्यापारियों से व्यापार छीनकर छोटे व मंझोले व्यापारियों के लिए बाज़ार का रास्ता खोल दिया, जिससे स्थानीय बाज़ारों पर प्रशासन का एकाधिकार समाप्त हो गया।

रामप्रसाद नौटियाल न केवल एक निर्भीक क्रांतिकारी थे बल्कि एक दूरदर्शी नायक भी थे। अपनी साहित्यिक यात्रा की शुरूआत 1927 में कलकत्ता से प्रकाशित ‘सरोज’ पत्रिका में प्रकाशित एक कहानी के साथ की। लगभग 50 वर्ष तक चली इस साहित्य यात्रा में उनके 19 कहानी संग्रह तथा 3 उपन्यास प्रकाशित हुए। जीवन का कठोर यथार्थ उनके कथा साहित्य की भावभूमि रहा। उनकी प्रगतिशील कहानियों की प्रेमचन्द तक ने सराहना की थी। बंगाल के अकाल के जीवन्त वर्णन के लिये समालोचक उन्हें आज भी याद करते हैं। पाठ्य पुस्तकों में भी उनकी कहानियों को स्थान मिला। उन्होंने बच्चों के लिये भी प्रचुर साहित्य की रचना की। तीस के दशक में उन्होंने टाइम्स ऑफ इंडिया, स्टेट्समैन और अमृत बाजार पत्रिका के लिये संवाद प्रेषण का कार्य भी किया और 1940 में लखनऊ के ऑल इंडिया रेडियो से जुड़े। लेकिन बाद के वर्षों में उन्होंने आजीविका के लिये प्रकाशन व्यवसाय को अपना लिया। 1947 में देश को स्वाधीनता प्राप्त हुई तो जनता के सहयोग व श्रमदान से देश निर्माण के कार्य में जुट गए; रामनगर-मरचूला-बीरोंखाल-थलीसैण मोटर मार्ग और डेरियाखाल-रिखणीखाल-बीरोंखाल मोटर मार्ग बनवाया।

उन्होंने वर्ष 1956 में ‘गढ़वाल यूजर्स ट्रांसपोर्ट सोसाइटी लिमिटेड’ की नींव रखी। रामप्रसाद नौटियाल ने 1950 के दौर में ही ‘वित्तीय समावेश’ के महत्व को समझ लिया था, इसके लिए उन्होंने गढ़वाल व कुमाऊं में कई कोआपरेटिव बैंक्स खुलवाए। छोटी-छोटी कीमत के शेयर्स चलाये, सबसे पहले खुद शेयर खरीदे व जनता को हिस्सेदार बनाकर इस सुदूरवर्ती क्षेत्र के वित्तीय सशक्तिकरण का दूरदर्शी कार्य करने का प्रयास किया। रामप्रसाद की बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित होकर ‘भारत रत्न’ गोविन्द बल्लभ पन्त ‘कप्तान रामप्रसाद नौटियाल’ को ‘लोहा’ कहा करते थे, ‘जिससे समय आने पर हथौड़ा बनाया जा सकता है तो बंदूक भी बनाई जा सकती है।’ राम प्रसाद नौटियाल उत्तराखंड की पवित्र भूमि में पैदा होने वाले प्रमुख स्वन्त्रता सेनानियों में से एक थे। उनके संघर्षों का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष था कि उन्होंने  दिल्ली,कोलकत्ता,लाहौर आदि बड़े शहरों से लौटकर उत्तरांखंड के गढ़वाल एवं कुमाऊं क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया और न केवल देश की स्वतंत्रता के लिए लडे बल्कि स्थानीय जनता के संघर्षों को भी आवाज दी।उन्होंने 24 दिसंबर 1980 को भारतभूमि से अंतिम विदा ली।

लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं !

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