मिलॉर्ड.. यह कैसा न्याय है ?
देहरादून में अतिक्रमण के मुद्दे पर सरकार आखिरकार ‘खेल’ कर ही गयी । राजनैतिक नेतृत्व बैकफुट पर है और नौकरशाही को मनमानी की खुली छूट मिली है । उच्च न्यायालय के फैसले की आड़ में सरकार के अफसर तानाशाह बन अपने मंसूबों को अंजाम देने में लगे हैं । जिस तरह शहर की तकरीबन हर दीवार पर लाल निशान नजर आ रहे हैं उससे ऐसा लगने लगा है कि शहर का हर दूसरा बाशिंदा ‘जमीन चोर’ है । दिलचस्प यह है कि जो चोरी में बराबर के भागीदार हैं वही कोतवाल बने घूम रहे हैं । खुलेआम पक्षपात हो रहा है लेकिन न्यायालय के खौफ के चलते सबकी बोलती बंद है । जो पीढ़ियों से वैध हैं वे उच्च न्यायालय के फैसले के बाद एक झटके में अवैध करार दिये जा रहे हैं, जिन्हें आज तक कोई नोटिस नहीं मिला वे 24 घंटे के अल्टीमेटम पर हैं । जो सिरे से अवैध हैं, सरकार उन्हें वैध ठहराने का हर जतन करने में जुटी है । सार्वजनिक स्थलों, सरकारी भूमि और नदियों से कब्जा हटाने संबंधी उच्च न्यायालय के फैसले पर सरकार के रुख ने तो न्याय के सिद्धांत की परिभाषा ही बदल डाली है । न्यायालय के फैसले पर अमल उसकी मूल अवधारणा के अनुरूप हो रहा है या नहीं, यह देखने जांचने वाला कोई नहीं है । सरकार की तानाशाही का आलम यह है कि आम आदमी की न कोई सुनवाई है न दलील । सरकार का ‘दोगलापन’ देखिये, एक ओर तो सरकार न्यायालय के आदेश की मजबूरी और भय दिखाकर आजादी पूर्व नक्शे के हिसाब से सड़कों को चौड़ा कर रही है, दूसरी ओर अवैध बस्तियों को बचाने के लिये उन्हें एक अध्यादेश का ‘कवच’ ओढ़ा रही है । आज शहर चीख-चीख कर पूछ रहा है कि यह कैसा न्याय है ? इसके बाद भी बेशर्मी देखिये कि सरकार इस ‘दोगलेपन’ के लिए सार्वजनिक रूप से अपना अभिनन्दन करा रही है। जो सफेदपोश अवैध बस्तियों के ‘गुनहगार’ हैं उन्हें ‘हीरो’ बताया जा रहा है ।
बहरहाल देहरादून शहर को अतिक्रमण मुक्त करने के लिए दिया गया उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला कारगर हो पाएगा, इस पर संदेह अब गहराने लगा है । निसंदेह न्यायालय का फैसला देहरादून के लिए परिवर्तनकारी फैसला है, लेकिन सरकार के अध्यादेश के बाद इस फैसले की मूल अवधारणा खत्म होती नजर आ रही है । हर कोई चाहता है कि देहरादून अपने खोये स्वरूप में वापस लौटे । शहर साफ सुथरा, व्यवस्थित और नियोजित हो, नदियां सदानीरा हों । वास्तिवकता यह है कि देहरादून में आज अतिक्रमण हटाये बिना व्यवस्थित दून की कल्पना की भी नहीं जा सकती । संभवत: उच्च न्यायालय के साहसिक निर्णय की मूल अवधारणा भी यही है । इसीलिये न्यायालय ने अपने फैसले में सरकार को शहर के सार्वजनिक स्थलों से सख्ती से अतिक्रमण हटाने, नदियों को मूल स्वरूप में लाने और उनके किनारों को कब्जा मुक्त कराने को कहा है । दुर्भाग्य है कि सरकार इस फैसले पर ईमानदारी के साथ अमल करने को तैयार नहीं है।
सरकार को चाहिए था कि न्यायालय के इस फैसले पर शहरवासियों को विश्वास में लेते हुए पूरी पारदर्शिता के साथ अमल कराती । देहरादून की समस्याओं पर लकीर पीटने के बजाय स्थायी समाधान निकाला जाता । नये सिरे से सड़कों और नदियों की चौड़ाई तय की जाती ।  व्यवहारिक दिक्कतों से निपटने के लिए न्यायालय से समय लिया जाता । लेकिन सरकार ने ऐसा करना उचित नहीं समझा । नदियों की चौड़ाई सरकार तय नहीं कर पायी और सड़कों की चौड़ीकरण का कोई मानक नहीं है । सरकारी तंत्र एक ओर तो सड़कों के किनारे मनमाफिक तोड़फोड़ में जुटा है और दूसरी ओर नदी-नालों पर अवैध कब्जाधारियों को संरक्षण देने में लगा है । बस्तियों के लिए सरकार के अध्यादेश के बाद तो पूरी कार्यवाही ही संदिग्ध नजर आने लगी है । प्रचंड बहुमत वाली डबल इंजन सरकार ‘बेपर्दा‘ हुई है। यह साबित हुआ है कि सरकारों का मूल चरित्र एक ही है । अतिक्रमण पर उच्च न्यायालय के आदेश को अतिक्रमित कर सरकार ने एक बार फिर यह साबित किया है कि सरकार चाहे तो क्या नहीं कर सकती । न्यायालयों से लाख आदेश होते रहें लेकिन उस पर अमल कब और कितना करना है, यह आखिरकार सरकार की मर्जी पर ही निर्भर करता है । खैर यह कोई पहला मौका नहीं है, इसके तमाम उदाहरण हैं ।  कुछ ताजा प्रकरणों को ही लें, सरकार पर न्यायालय का दबाव होता तो प्रदेश में पांच हजार से अधिक होमगार्डों के साथ इंसाफ हो चुका होता।  यह अपने आप में आश्चर्यजनक है कि उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के आदेश के बावजूद सरकार प्रदेश में होमगार्ड को पुलिस के समान वेतन देने को तैयार नहीं है। सरकार ने न्यायालय के आदेश पर अमल करने के बजाय हाल ही में होमगार्ड के दैनिक वेतन में मात्र 50 रुपए बढ़ाने की मंजूरी दी है । कैबिनेट का पहला तर्क यह था कि होमगार्ड को पुलिस के समान वेतन देने से राज्य पर 66 करोड़ रुपये का वित्तीय बोझ बढ़ेगा । सरकार का यह तर्क कितना वाजिब है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस निर्णय से पहले विधायक निधि बढ़ा कर लगभग दोगुनी की ।उसके बाद मंत्री विधायकों के वेतन भत्तों में बंपर बढ़ोतरी भी की । न्यायालय का सरकार को भय होता तो प्रदेश में राजस्व पुलिस और सिविल पुलिस को लेकर आज असमंजस की स्थिति न बनी हुई होती । उच्च न्यायालय के निर्देश के मुताबिक प्रदेश में राजस्व पुलिस को समाप्त करते हुए प्रदेश की कानून व्यवस्था पूरी तरह सिविल पुलिस के हाथों में सौंप दी गयी होती। न्यायालय के आदेश के बावजूद अभी तक न तो राजस्व क्षेत्र सिविल पुलिस के हवाले ही हुए और न ही राजस्व पुलिस को सरकार ने मजबूत किया है । नतीजा प्रदेश के तकरीबन साठ फीसदी राजस्व क्षेत्र में कानून व्यवस्था भगवान भरोसे है। चलिये अब जरा उस पहलू पर भी गौर करें, जहां सरकारें उच्च न्यायालय के निर्देश से बचने के लिए अध्यादेश का सहारा लेती है । यह कहना बेमानी है कि सरकार ऐसा मानवीय आधार पर करती है । सरकार यह स्वार्थवश व अपने नफे-नुकसान को देखकर करती है। शराब की दुकानों का प्रकरण तो किसी से छिपा नहीं है । न्यायालय के आदेश पर दुकानें न हटानी पड़ें इसके लिए अंतत: सड़कों का नोटिफिकेशन ही बदल दिया गया । क्या इस फैसले के पीछे कोई मानवीय आधार नहीं था ? ठीक इसी तरह अतिक्रमण पर लाये गए अध्यादेश का भी मानवीय आधार नहीं है । इसके पीछे सरकार के स्वार्थ निहित हैं । मानवीय आधार महत्वपूर्ण होता तो सरकार को यह भी दिखायी देता कि उच्च न्यायालय प्रदेश की सेवाओं में राज्य आंदोलनकारियों को दिया जाने वाले आरक्षण को अवैध घोषित कर चुका है । संविदा पर कार्यरत आंदोलनकारियों को 2016 में तैयार की गयी नियमावली भी उच्च न्यायालय से निरस्त हो गई है । मानवीय आधार पर दोनो ही प्रकरणों में प्रभावितों को सरकार की ओर से अध्यादेश की दरकार है। अफसोस है कि सरकार को इनमें मानवीय आधार नजर नहीं आता।
जहां तक अवैध बस्तियों को लेकर अध्यादेश का सवाल है तो सरकार ने इसके जरिये एक तीर से कई निशाने साधे हैं । पहली नजर में सरकार का यह फैसला जरूर सियासत और वोटो के गणित से जुड़ा भले ही नजर आता हो, लेकिन तस्वीर का एक स्याह पक्ष और भी है । मसला सिर्फ वोटों के गणित का ही नहीं है, बल्कि मसला सफेदपोशों की काली कमाई और जमीनों के खेल से भी जुड़ा है । गलतफहमी में हैं वो लोग जो यह मान रहे हैं कि बस्तियों को उजड़ने से बचाने के लिये सरकार अध्यादेश लायी है । सच तो यह है कि बस्तियों की आड़ में सफदेपोशों ने अपना उल्लू सीधा किया है । सफेदपोश नहीं चाहते कि इन अवैध बस्तियों का कोई स्थायी समाधान निकले। क्योंकि इन नदियों के किनारे सिर्फ बस्तियां ही नहीं हैं। इनके किनारे बड़े व्यवसायिक प्रतिष्ठान, आलीशान भवन, आवासीय परियोजनाएं और निजी शिक्षण संस्थान आदि स्थापित है । नदियों के किनारे बड़े पैमाने पर सफेदपोशों का कब्जा है। बारी-बारी से सरकार में आने वालों के इनसे निजी हित जुड़े हुए हैं।
काश, उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय सरकार का यह खेल समझ पाते। न्यायालय समझ पाता कि उसके फैसले में कहीं थोड़ा व्यवहारिक चूक रह गयी है। फिलवक्त तो हालात यह हैं कि आम लोगों के बीच न्याय और शासन व्यवस्था के प्रति अविश्वास घर कर रहा है ।
साभार :- योगेश भट्ट