यह मामला सरकार के ख़िलाफ़ था जिसे बचाना उनका नैतिक दायित्व था मगर इच्छा शक्ति के आभाव में आज वही लोग हाशिये में हैं जिनके खून- पसीने से इस राज्य का निर्माण हुआ ।

देहरादून, 2 मई : सयुंक्त मंच द्वारा शहीद स्मारक देहरादून में,राज्य आंदोलनकारियों को राज्याधीन सेवाओं में देय 10% क्षैतिज आरक्षण की बहाली को लेकर चल रहा धरना 32वें दिन व क्रमिक अनशन 22वें दिन भी जारी रहा।

संयुक्त मंच के अम्बुज शर्मा ने बताया कि 30 जून को आंदोलनकारियों के संदर्भ में सचिवालय में हुई बैठक में कुछ विभागों के सचिवों के न आने के कारण अपर सचिव ने एस.एस. वल्दिया ने कड़ी प्रतिक्रिया वयक्त करते हुए सभी विभागों को अगले एक सप्ताह के भीतर उनके यहाँ कार्यरत उत्तराखंड आन्दोलनकारी श्रेणी के समस्त कर्मचारियों कि सूची प्रस्तुत करने के निर्देश दिये हैं।

क्या है ये पूरा मामला

2002 में प्रदेश की पहली निर्वाचित सरकार के मुखिया एन.डी.तिवारी की ने राज्य आंदोलनकारियों को राज्य-निर्माण में उनके महत्वपूर्ण योगदान का सम्मान करते हुए 2004 में दो आदेश निकाले गए थे।

आदेश संख्या 1269 : जिसके तहत राज्य आन्दोलन के दौरान 7 दिन से ज्यादा जेल गये या गंभीर रूप से घायल हुए (किसी सरकारी डाक्टर की मेडिकल रिपोर्ट के आधार पर ) आन्दोलनकारी को राज्याधीन सेवाओं में उनकी शैक्षिक योग्यता के आधार पर सीधी नियुक्ति देने की व्यवस्था की गई थी।

आदेश संख्या 1270 : जिसके तहत राज्य आन्दोलन में प्रतिभाग करने वाले आन्दोलनकारी को राज्याधीन सेवाओं में 10% क्षैतिज आरक्षण की व्यवस्था की गई थी।

इसके बाद हल्द्वानी के किसी करुणेश जोशी ने जिलाधिकारी नैनीताल को अपना राज्य आन्दोलन के दौरान बना मेडिकल सर्टिफिकेट दिखाते हुए आदेश संख्या 1269 के तहत नियुक्ति देने की गुजारिश करी। मगर जिलाधिकारी ने उक्त सर्टिफिकेट को प्राइवेट डाक्टर का होने के कारण नियुक्ति देने असमर्थता जता दी । उसके बाद करुणेश सचिवालय से होते हुए को उच्च न्यायलय पहुँच गया। जहाँ उसकी याचिका को माननीय उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि शासनादेश संख्या 1269 का कोई वैधानिक आधार नहीं है, साथ ही न्यायालय ने वह शासनादेश भी निरस्त कर दिया।

इसके बाद उत्तराखंड की तत्कालीन सरकार हरकत में आई और उन्होंने अपनी गलती को सुधारते हुए 20 मई 2010 को एक नया गजट नोटिफिकेशन निकाल कर अपने फैसले को दुरुस्त करने का प्रयास किया। मगर करुणेश ने उसके ख़िलाफ़ भी पुनर्विचार याचिका दायर कर दी। उसके बाद सरकार के वकील उक्त गजट नोटिफिकेशन में सरकार की मंशा को सही तरीके से प्रस्तुत नहीं पाए जिसके चलते न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लेते हुये 2 अगस्त 2010 को इस मामले में एक जनहित याचिका दाख़िल करने का आदेश दे दिया और उसके बाद 26 अगस्त 2013 को यह केस पी.आई.एल. (संख्या -67/2011) में परिवर्तित हो गया।

26 अगस्त 2013 के पी.आई.एल. दाख़िले की मात्र अखबारी सूचना के आधार पर दो अजीबोगरीब घटनाएँ हुईं। पहली यह कि 14 मार्च 2014 को दो (02) व 20 अगस्त 2014 को एक (01) राज्य आन्दोलनकारी कोटे के तहत विगत 04 माह से 09 माह नौकरी कर चुके लोगों को नौकरी से बेदखल कर दिया गया, जबकि उन्ही के साथ परीक्षा पास करने वाले राज्य आन्दोलनकारी साथी आज भी सेवारत है।

इसके बाद 14 मार्च 2014 से शुरू हुआ ये मामला सरकारी वकीलों की लचर पैरवी के बाद 7 मार्च 2018 को खत्म हुआ। जिसमे मा0 उच्च न्यायलय की ट्रिपल बेंच ने आंदोलनकारियों की सभी नियुक्तियों को पश्चगामी प्रभाव, यानि जिस दिन (11-8-2004) से यह लागू हुआ रद्द करने के आदेश दे दिए।

7 मार्च 2018 को कोर्ट का फैसला आने के बाद, मुख्य सचिव उत्तराखंड ने 5 दिसम्बर 2018 को समस्त विभागों के सचिवों/विभागाध्यक्ष को मा0 उच्च न्यायालय की फैसले की प्रति नत्थी करते हुए लिखा कि वह उक्त आदेश के अनुपालन सुनिश्चित करते हुए यथावश्यक अग्रेत्तर कार्यवाही करे। मगर पत्र की भाषा गोलमोल होने के कारण वह पत्र फाइलों में दबकर रह गया और अगले 2 सालो तक करोना काल के चलते वह पत्र फाइलों में ही दबा रहा।

इसके बाद 24.2.2021 को पुनः मा0 उच्च न्यायालय द्वारा मुख्य सचिव को नोटिस भेजते हुए अपने पूर्व फैसले के अनुपालन में की गई कार्रवाई के लिए पूछा करोना की दूसरी लहर ने सरकार को राहत दिला दी और मामला एक बार फ़िर दब गया। मगर सरकार को अंदेशा था कि यह मामला देर सवेर फिर आयेगा सो उत्तराखंड विधि विभाग के विद्वान लोग 05 अप्रेल 2022 को एक मोडिफिकेशन एप्लीकेशन लेकर उच्च न्यायालय पहुँच गये, जिस पर कार्यवाहक मुख्य न्याधीश न्यायमूर्ति संजय कुमार मिश्रा व आरसी खुल्बेकी खंडपीठ ने सरकार के नुमाईनदों को लताड़ लगाते हुए कहा कि क्या उन्हें इतना भी ज्ञान नहीं है कि यह एप्लीकेशन फैसले के 30 दिन के भीतर डालनी होती है और अब तो आदेश को जारी हुए 1403 दिन हो चुके हैं । ऐसे में इस एप्लीकेशन का कोई मतलब नहीं रह गया ।

मा0 उच्च न्यायालय कि इस झाड़ के बाद सचिवालय एक बार फिर सक्रिय हुआ और उसने समस्त विभागों से अपने दिसंबर 2018 के पत्र के अनुपालन में की गई कार्रवाई का जवाब मांग रहा है। एक तरह से यह मामला अपने गले का सांप समस्त विभागाध्यक्ष के गले में डालने की कवायद ज्यादा लग रहा है समाधान का कम। अब देखना रोचक होगा की उच्च न्यायालय में आगामी तारीख में सरकार की तरफ़ से क्या क्या जवाब दाखिल होता है ।

यहाँ एक बात बतानी बतानी बेहद महत्वपूर्ण है कि 02 नवंबर 2015 को आंदोलनकारियों के आरक्षण संबंधी विधेयक को तत्कालीन हरीश रावत सरकार ने गैरसैंण विधानसभा सत्र के दौरान पारित कर राज्यपाल डॉ. के.के.पाल के हस्ताक्षरों के लिए राजभवन भेजा था । लेकिन आज तक इस विधेयक को न तो मंजूरी ही मिली और न ही वापस लौटाया गया ।

इसी मसले को लेकर विगत 1 माह से शहीद स्मारक में संयुक्त मंच के तत्वाधान धरना प्रदर्शन चल रहा है। आज क्रमिक अनशन में उत्तरकाशी के पंकज सिंह रावत व देहरादून के विमल जुयाल बैठे। वहीं आज के धरने में कौशल्या डबराल संघर्ष समिति की दमयंती बहुगुणा, सुनीता देवी, एकादशी, राजेश्वरी देवी, लक्ष्मी बिष्ट, राष्ट्रीय उत्तराखंड पार्टी के केंद्रीय अध्यक्ष नवनीत गुसाईं, प्रभात डंडरियाल, अम्बुज शर्मा, प्रेम सिंह नेगी, उत्तरकाशी से जगवीर सिंह रावत, देवप्रयाग से हरि कृष्ण भट्ट, देहरादून से वीरेन्द्र रावत, हरि प्रकाश शर्मा आदि बैठे थे

#10% horizontal reservation of agitators: this is a strange story #आंदोलनकारियों का 10% क्षैतिज आरक्षण: अजीब दास्तां है ये