सरकारें अक्सर ‘खेल’ किया करती हैं। फैसले राजधर्म पर नहीं बल्कि सियासी ‘नफा नुकसान’ की कसौटी पर लेती हैं । इसी फेर में फंसी सरकारें छोटी-छोटी समस्याओं से भी मुंह फेरती चली जाती हैं, और आखिरकार वह विकराल रूप धारण करती हैं । तब किसी न किसी को इसकी बड़ी कीमत चुकानी होती है । कभी यह कीमत समाज चुका रहा होता है तो कभी कोई शहर । सालों से सरकारों के नकारेपन, सफेदपोशों की बदनीयती और नौकरशाहों की मनमानी की कीमत इन दिनों देहरादून शहर भी चुका रहा है । अनियोजित निर्माण, अवैध बस्तियां, अतिक्रमण और सरकारी जमीनों पर कब्जों के चलते एक ऐतिहासिक शहर देहरादून खत्म हो चुका है । आबादी का दबाव लगातार बढ़ रहा है लेकिन शहर की कोई प्लानिंग नहीं । कहने को देहरादून राज्य की राजधानी है लेकिन हालात मलिन बस्ती सरीखे हैं । राज्य बनने के बाद हजारों करोड़ रुपया खर्च करने के बावजूद हालात दिनोंदिन बदतर होते गए हैं । तकरीबन तीन दशक से इस शहर की ‘बर्बादी’ की जो पटकथा लिखी जा रही है, हाल ही में उसमें एक नया मोड़ आया है । नैनीताल हाईकोर्ट के एक आदेश के बाद शहर में हर ओर इन दिनों हाहाकार है । जगह-जगह लग रहे लाल निशान पुराने ‘पापों का प्रायश्चित’ करने को मजबूर कर रहे हैं । सालों पुराने निर्माण इन दिनों ध्वस्त हो रहे हैं, नालियां, फुटपाथ, सड़कें एक तरफ से सब खाली करने का फरमान है । जगह जगह मलवे के ढेर ‘बर्बादी’ की कहानी बयां कर रहे हैं। कई जगहों पर पचास साठ साल से भी पुराने निर्माण अतिक्रमण की जद में हैं । इसमें कोई शक नहीं कि उच्च न्यायालय का यह आदेश दम तोड़ते शहर के लिये नयी उम्मीदें लेकर आया है, बशर्ते सरकार कोई ‘खेल’ न करे । सरकार की ओर से कोई ‘खेल’ न हुआ तो यकीन मानिये, थोड़ा तकलीफ जरूर होगी लेकिन अगले छह महीने इस शहर के भविष्य के लिए बेहद अहम और कारगर साबित होंगे।
नैनीताल उच्च न्यायालय के जिस आदेश ने उम्मीद की किरण जगायी है, उसके मुताबिक तो तीन महीने के भीतर देहरादून की सूरत बदल जानी चाहिए । सब सही रहा तो आने वाले नब्बे दिनों में न सही साल भर में देहरादून की रिस्पना पुनर्जीवित हो उठेगी । रिस्पना और बिंदाल नदियों के किनारे अतिक्रमण खत्म हो चुका होगा। शहर में जो भी अतिक्रमण और अवैध कब्जे हैं, वह सब हट चुके होंगे। शहर की तमाम सड़कें अपने मूल स्वरूप में लौट चुकी होंगी । न जगह जगह जाम होगा न गंदगी के ढेर नजर आएंगे । घर व्यवसायिक उपयोग में तब्दील नहीं हुए होंगे और व्यवसायिक भवनों में पार्किंग की कोई दिक्कत नहीं होगी । जिन आवासीय भवनों में व्यवसायिक प्रतिष्ठान होंगे और जिन व्यवसायिक भवनों में पार्किंग नहीं होगी वह सील हो चुके होंगे । फुटपाथ खाली मिलेंगे और नालियां खुली होंगी । कोई भी बिल्डिंग बनाने से पहले स्ट्रक्चर इंजीनियर की रिपोर्ट जरूरी होगी। अवैध निर्माण पूरी तरह से गैरकानूनी होगा, एमडीडीए से उसके कंपाउंडिंग की कोई गुंजाइश नहीं रहेगी । लेकिन यह सिर्फ तभी संभव है जब सरकार नैनीताल उच्च न्यायालय के आदेश का अक्षरश: पालन करेगी । हालांकि इसके लिये सिर्फ आम जनता को ही नहीं सरकार को भी बड़ी कीमत चुकानी होगी । अतिक्रमण व अवैध कब्जे की जद में तकरीबन डेढ़ सौ तो मलिन बस्तियां ही हैं । इसके अलावा सरकारी बिल्डिंगे हैं, बिजली के पोल हैं, तमाम सरकारी योजनाएं हैं जिन पर लाखों करोड़ों रुपया खर्च हो चुका है । अब देखना यह है कि सरकार इस फैसले को व्यापक रूप से अमल में लाती है या फिर एक सीमा के बाद ‘खानापूर्ति’ कर छोड़ देती है । 
राजधानी में अवैध कब्जों और अतिक्रमण की समस्या पर उच्च न्यायालय ने यह क्रांतिकारी फैसला वरिष्ठ पत्रकार मनमोहन लखेड़ा की जनहित याचिका, और कोर्ट कमिश्नर नियुक्त किये गए तत्कालीन देहरादून बार एशोसिएशन के अध्यक्ष राजीव शर्मा की रिपोर्ट पर दिया है । अक्सर सरकारों को उच्च न्यायालय के इस तरह के क्रांतिकारी आदेश रास नहीं आते। इसे खेल कहिए या सियासी दबाव सरकार ऐसे आदेशों को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देकर उन पर स्थगन हासिल कर लेती है । इस बार सकरात्मक यह है कि सरकार नैनीताल उच्च न्यायालय के इस फैसले को बड़ी अदालत में चुनौती देने के बजाय फिलहाल उस पर अमल कर रही है । इस लिये भी सरकार की मंशा पर शक किया जा रहा है । यह भी माना जा रहा है कि सरकार इस आदेश का फायदा उठाकर अपनी आगे की राह आसान करना चाहती है। दरअसल शहर में अतिक्रमण और अवैध कब्जे आज सरकार के लिये भी बड़ी मुसीबत बने हुए है । बेशक सरकारों की ही इसमें बड़ी भूमिका रही है, लेकिन यह भी सच है कि केंद्र की स्मार्ट सिटी योजना हो या फिर सड़कों के चौड़ीकरण की योजना हर जगह अतिक्रमण और अवैध कब्जे आड़े आने लगे हैं। न्यायालय के आदेश का असर यह है कि जिन संस्थाओं की शह पर शहर भर में कब्जे हुए हैं, वही आज फीता लेकर गरज बरस रहे हैं । सरकार ने सबकुछ नौकरशाहों के भरोसे छोड़ दिया है। सरकारी मशीनरी 1938 का राजस्व नक्शा लेकर सड़कों पर लाल निशान लगाने उतरी है । पूरे बीस दिन बीत चुके हैं फिलहाल न सरकार साथ है, न कोई माफिया और न अफसर, हर कोई आंख मूंदे हुए है । कहीं कोई सुनवाई न होने के चलते आम आदमी अविश्वास और भय के साये में है ।
सरकार फिलहाल उच्च न्यायालय के फैसले पर अमल करा रही है तो ऐसा नहीं है कि सरकार पर सवाल नहीं है । सरकार इस बार भी कठघरे में है,  सरकार जिस तरह एक्शन में है उसको लेकर सवाल भी उठ रहे हैं । अतिक्रमण हटाओ अभियान में पक्षपात की बात भी उठने लगी है । पक्षपात की गवाही तो दीवारों पर बनते बिगड़ते लाल निशान खुद देने लगे हैं। अतिक्रमण हटाओ अभियान में लाल निशान तो हर बार लगते रहे हैं, लेकिन इस बार तो लाल निशान लोगों के घरों के अंदर तक पहुंच चुके हैं । कई ऐसे इलाकों मसलन पलटन बाजार आदि जहां पहले अभियान चल चुका है, वहां फिर से लाल निशान लगे हैं । क्या सही है और क्या गलत किसी को कुछ नहीं मालूम । अफसरों का तानाशाह रवैया भी आम लोगों को खल रहा है ।कोई यह बताने वाला नहीं है कि लाल निशान का आधार क्या है ? एक बड़ा सवाल यह भी है कि जिस 1938 के नक्शे के आधार पर लाल निशान लग रहे हैं, उसका विधिक आधार क्या है । जिस एमडीडीए और नगर निगम के अधिकारी आज तानाशाह बने हुए हैं उनके मंजूर किये नक्शों की वैधता क्या है ? इसका कोई जवाब किसी के पास नहीं है । सिर्फ न्यायालय के आदेश का भय दिखाकर कार्यवाही को अंजाम दिया जा रहा है । जहां तक सरकार का सवाल है तो सरकार आज भी राजधर्म पर नहीं है। सरकार के प्रति आम लोगों में नाराजगी है। नाराजगी अभियान को लेकर नहीं बल्कि सरकार के रवैये को लेकर है । सरकार चाहती तो उच्च न्यायालय के फैसले पर अमल आम नागरिकों और व्यापारियों को विश्वास में लेकर भी कर सकती थी। व्यापक स्तर पर प्रभावित होने वाले लोगों के लिए कोई योजना तैयार कर सकती थी, उन्हें भरोसा दे सकती थी । लेकिन सरकार ने यह सब जरूरी ही नहीं समझा ।
बहरहाल अब शुरुआत हो चुकी है। बीस दिन के अभियान के बाद शहर भी सांस लेने लगा है । ऐसे में अहम यह है कि न्यायालय के निर्देश पर शुरू हुई मुहिम अपने मुकाम तक पहुंचे । न्यायालय के आदेश की मूल भावना पूरी होने तक यह अभियान जारी रहे । अभी भले ही सरकार का खेल शुरू न हुआ हो, लेकिन सरकार कोई खेल न करे इसकी कोई गारंटी नहीं। अभी तो अभियान से सरकार के हित भी सध रहे हैं, लेकिन सवाल उठ रहा है कि कब तक ? माना जा रहा है कि सरकार का खेल तो तब शुरू होगा जब वोट बैंक पर चोट होगी । जब अभियान नदियों में बसी बस्तियों तक पहुंचेगा तब सरकार का गुणा भाग शुरू होगा । जब अभियान नदियों और सरकारी जमीन पर खड़ी बड़ी बिल्डिंगों तक पहुचेंगा तब सरकार की धड़कनें बड़ेगी। खेल तब शुरू होंगे जब यह जिम्मेदारी तय करनी पड़ेगी कि किसने नदियों पर अवैध कब्जे कराए, किसने शहर की सूरत बिगाड़ी । उस वक्त न्यायालय का आदेश सरकार और सरकार के अफसरों के लिये बड़ी चुनौती साबित होगा, जब न्यायालय के आदेश के मुताबिक उन सभी दोषियों को दंड देना होगा। कुल मिलाकर सरकार को उच्च न्यायालय के आदेश पर अभी ‘अग्निपरीक्षा’ के दौर से गुजरना होगा । आगे जाकर सरकार ने कोई ‘खेल’ किया तो आने वाली पीढ़ियां कभी माफ नहीं करेंगी ।
साभार : योगेश भट्ट