फिर से विद्यालय जाना है।
रोज सवेरे जल्दी उठ,मुर्गे सी बांग लगाना है-
उठ जाओ बच्चों,उठ जाओ
उठ जाओ, अब तो हो गई भोर।
चिढ होती है बच्चों को भी
सुबह-सवेरे कैसा शोर।
जल्दी-जल्दी बना नाश्ता,
लंच की करती तैयारी।
टिफिन में सबके क्या रखूं ?
यही समस्या हो भारी।
एक तरफ सिक रहा परांठा,
एक और सब्जी जलती।
दूध उफन कर काम बढाता
होती है जब भी जल्दी ।
मम्मा मेरी साॅक्स कहाँ है,
कहाँ गई मेरी टाई।
किचन छोड़ फिर दौड़ लगाती,
आई बेटा, अभी आई।
बैग लगाकर बाय बोलते
तब तक बस आ जाती है ।
हाॅर्न बजा-बजा बच्चों की
अच्छी दौड़ लगवाती है।
तब तक बच्चों के पापा भी नहा धोकर आ जाते हैं।मेरी बस का समय हुआ,फिर से याद दिलाते हैं।
तब इनका भी लगा नाश्ता,
भरकर पेट खिलाती हूँ।
चाबी, पर्स,फोन लिया क्या?
रोज याद दिलाती हूँ।
बच्चों का दोपहर का खाना
टेबल पर रख देती हूँ।
और जरूरी निर्देशों को
कागज पर लिख देती हूँ।
फिर जाता है ध्यान घड़ी पर,
अरे! मुझे भी देर हुई।
टिफिन, बैग,बोटल भी ले ली
और चाबी को ढूँढ रही।
बंद किए खिड़की,दरवाजे,
लाइट, नल सब चैक किए।
फिर सामान उठाकर भागी,
जल्दी में जो पैक किए।
सफर रोज विद्यालय तक कुछ ऐसा ही होता है।
हर महिला टीचर के घर का
दृश्य यही कुछ होता है।
-एक महिला अध्यापक