शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान माला
”पलटी जा रही हैं आजादी के आंदोलन की सभी उपलब्धियां” – विक्रम सिंह
“मौजूदा निज़ाम अपनी नीतियों से सिर्फ अवाम की मुश्किलें ही नहीं बढ़ा रहा है, वह स्वतन्त्रता आंदोलन की ढांचागत, राजनैतिक और वैचारिक – हर तरह की उपलब्धियों को भी पलट रहा है।” शैलेन्द्र शैली स्मृति व्याख्यान माला 2021 में “उदारीकरण के 30 साल और भारतीय युवा” विषय पर बोलते हुए एसएफआई के पूर्व महासचिव और अखिल भारतीय खेत मजदूर यूनियन के संयुक्त सचिव विक्रम सिंह ने कहा कि आजादी की लड़ाई के दौरान और जीतने के बाद यह सपना देखा गया था कि शिक्षा और स्वास्थ्य सबके लिए होना चाहिए, कि उद्योग और कृषि में ऐसी नीतियां लागू की जाएँ, जिनसे रोजगार पैदा हो सके, कि आयातो पर रोक लगे, भूमि सुधार हों, लघु उद्योगों का जाल बिछाया जाए, रणनीतिक उद्योगों में पब्लिक सेक्टर को प्राथमिकता दी जाए। तकरीबन इसी तरह की नीतियां भी बनी – जिन्हे पहले 1991 में नरसिम्हाराव-मनमोहन सिंह ने उलटा और अब मोदी राज में पूरी रफ़्तार से विनाश रथ दौड़ाया जा रहा है।
उन्होंने कहा कि यह सब अमरीका, ब्रिटेन द्वारा 1980 के दशक में रीगन और थैचर के काल में लागू की गयी उन नीतियों का अंधानुकरण था, जिन्होंने पहली मंदी के बाद से बनी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पूरी तरह त्याग कर, आर्थिक जगत में राज्य को भूमिका समेट कर, सब कुछ बाजार के भरोसे छोड़ दिया।
इन नीतियों को लेकर, इनका असर नीचे तक पहुँचने के “ट्रिकलिंग इफ़ेक्ट” के जितने दावे किये गए थे, नतीजा ठीक उसका उलटा निकला। अमरीका के 40 वर्षों के आर्थिक विकास का अध्ययन करने के बाद खुद वैश्वीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के समर्थक रहे नोबल सम्मानित अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ को मानना पड़ा कि विकास धीमा हुआ, सम्पदा का केन्द्रीयकरण, बजाय ऊपर से नीचे आने के, नीचे से ऊपर हुआ और फ़ायदा सिर्फ कुछ मुट्ठी भर लोगों को हुआ। दुनिया भर में सिर्फ 1 प्रतिशत के पास 44% संपत्ति इकट्ठा हो गयी।
उन्होंने कहा कि भारत में तो यह गति और भयानक थी। यहां सिर्फ 1 प्रतिशत लोग 73 प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा जमा बैठे। नतीजे में महामारी के आने के पहले ही आम भारतीय के औसत मासिक खर्च में 9 % की कमी आ गयी थी। भुखमरी, असमानता और गरीबी बढ़ी। निजीकरण के चलते स्वास्थ्य सुविधाएं आम आदमी की पहुँच से बाहर हो गयी और बीमारी भी गरीब बनाने का एक जरिया बन गयी। इस संबंध में उन्होंने निजी इलाज में हुए खर्च के चलते हर वर्ष 6 करोड़ भारतीयों के गरीबी रेखा के नीचे पहुँच जाने का हवाला दिया।
उन्होंने कहा कि बेरोजगारी खतरनाक तेजी से बढ़ी – इतनी तेजी से बढ़ी कि मोदी सरकार ने आंकड़े जारी करना तक बंद कर दिया। 45 वर्षों में बेरोजगारी 6.4% के उच्चतर स्तर तक पहुँच गयी। महामारी के बाद तो यह गति 7.17% हो चुकी है। हर तरह का निजीकरण और सिर्फ मुनाफे को आधार बनाने को उन्होंने इसका मुख्य कारण बताया।
शिक्षा, कृषि और उद्योग में इन नीतियों और उनके विनाशकारी असर के अनेक उदाहरण देते हुए विक्रम सिंह ने बताया कि इन सबके चलते जहां ग्रामीण युवाओं के लिए संभावनाएं पूरी तरह चूक गयी हैं, वहीँ सारे युवाओं का जीवन पूरी तरह अनिश्चित हो गया है। स्थिति यहां तक आ गयी है कि अब राजनीति भी बाजार तय कर रहा है। अम्बानी-अडानी का मोदी-शाह के माध्यम से जारी दरबारी पूंजीवाद इसका जीता जागता उदाहरण है।
विक्रम सिंह ने कहा कि उदारवाद अपने साथ अपने अनुकूल विचार और उसके मुताबिक़ लोगों की सोच को ढालने के औजार भी लेकर आया है। सामुदायिक और एक दूसरे का सहकार करने वाले मानवीय मूल्य बदल कर युवाओं को आत्मकेंद्रित और कैरियरिस्ट बनाया जा रहा है। मनुष्य को मशीन में बदलने के लायक शिक्षा प्रणाली, पठन-पाठन के तरीकों, छात्र-शिक्षक रिश्तों, यहां तक कि चर्चा और बहसों के जरिये सीखने और सवाल करने के बुनियादी मूल्य ध्वस्त किये जा रहे हैं। शिक्षा से लेकर साहित्य, संस्कृति और फिल्मों तक के क्षेत्र में ये बदलाव साफ़ दिखाई देते हैं।
जनसमस्याओं के प्रति आक्रोश को भौंथरा करने के लिए विभाजनों और खाईयों को बढ़ावा दिया जा रहा है। देशभक्ति तक के मूल्य और प्रतिमान बदल दिए गए हैं। अंदरूनी दुश्मन के रूप में अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और महिलाओं को चिन्हांकित किया जा रहा है।
विक्रम सिंह ने कहा कि इसके खिलाफ छात्र और युवा लड़ रहे हैं। जनता के संघर्ष आगे बढ़ रहे हैं। आईटी से लेकर विश्वविद्यालयों तक लड़ाईयां जारी हैं। उन्होंने इस दौर के मजदूर-किसान आंदोलनों को बड़ी आस बताया। इनमें युवतर भागीदारी को रेखांकित करते हुए उन्होंने बताया कि ये लड़ाईयां नए नायक, नए गीत और नए नारे गढ़ रहे हैं – सबसे बड़ी खूबी यह है कि ये सीधे नीतियों और सरकार से लड़ रहे हैं। उन्होंने भरोसा जताया कि ये संघर्ष उदारवादी नीतियों को पीछे धकेलेगा और युवा इसमें निर्णायक भूमिका निभाएंगे ।