देहरादून, मुकेश नौटियाल की यात्रा वृतांत ‘कालड़ी से केदार’ का लोकार्पण दून विश्वविद्यालय के सभागार में किया गया। लोकार्पण समारोह में मुख्य अतिथि के रुप में शामिल उच्च शिक्षा राज्य मंत्री डॉ धन सिंह रावत ने अपने संबोधन में कहा कि भारतवर्ष के दक्षिण छोर का सांस्कृतिक संबंध उत्तर भारत अवस्थित हिमालय से जोड़ने वाली यह पुस्तक भारत की राष्ट्रीय एकता को ऐतिहासिक ऐतिहासिक तथ्यों के जरिए मजबूती से स्थापित करती है आदि गुरु शंकराचार्य के जन्म स्थान केरल स्थित गांव कालड़ी से चलकर लेखक उनके निर्माण स्थल केदारनाथ तक पहुंचते हैं और इस दरम्यान दक्षिण के सामुद्रिक इलाकों का सामाजिक सांस्कृतिक संबंध उत्तर के बर्फीले हिमालयन से जोड़ते हैं । यह पुस्तक उत्तराखंड के हिमालय अंचल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सामने लाने के अलावा पर्वत वासियों के उत्कट संघर्ष को भी सामने लाती हैं जो उनको तमाम भौगोलिक चुनौतियों के बीच अपनी जगह बनाने और सफलताओं के शिखर छूने के लिए मानसिक और शारीरिक तौर पर तैयार करती है।

कवि और समीक्षक असीम शुक्ल पुस्तक की समीक्षा प्रस्तुत करते हुए कहा कि यात्रा वृतांत प्रायः घुमक्कडों की निजी अनुभव और स्थानों की चर्चाओं पर केंद्रित देखे जाते हैं लेकिन ‘कालड़ी से केदार’ इस प्रेम का विस्तार करते हुए स्थानों की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी खंगालता है इसके अलावा इसके लेखक ने इस पुस्तक में कथा तत्व को भी शामिल कर मसलों को प्रस्तुत करने की नई तरकीब आजमाई है। इस यात्रा वृत्तांत में लेखक ने अपने यात्रा के अनुभवों को शामिल किया ही है दक्षिण भारत की अनेक शहरों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी आधुनिक परिपेक्ष में दी गई है। यही पुस्तक की विशेषता भी है कि यह पाठक के मन में दक्षिण भारत के प्रति गहरा खिंचाव पैदा करने की ख़ासियत रखती है

उच्च शिक्षा विभाग की पूर्व निदेशक डॉक्टर सविता मोहन ने अपने संबोधन में कहा की आदि गुरु शंकराचार्य को प्राय एक धर्माचार्य के रूप में सामने लाया जाता रहा है लेकिन ‘कालड़ी से केदार’ पुस्तक उनको एक सांस्कृतिक राजदूत के रूप मे स्थापित करती है । इतना ही नहीं , इस किताब के जरिये उनकी छवि चीनी यात्री हवेनसांग ओर फाइयान की भांति आकंठा से भरे एक साहसी यात्री की बनती है ।

अपने अध्यक्षीय सम्बोधन में वरिष्ठ कवि एवं पद्मश्री लीलाधर जगुड़ी ने कहा कि उस की शुरुआत इस पुस्तक की शुरुवात, जिस पाठ “फ़्यूली के देश में वसंत” से होती है वह पाठक को हिमालय मे ग्रीष्म ऋतु के आरंभ का जीवंत अनुभव को करने में सर्वथा सक्षम है। अगर यात्रा यात्राओं में आम जन के सीधा संवाद कायम किया जाए घुमक्कडियों के लिए सांस्कृतियों से जुड़ने की नये अवसर खुल सकते हैं ।

औऱ क्या कहा लीलाधर जगूड़ी जी ने देखने के लिए क्लिक करें

दक्षिण भारत की अपनी दो यात्राओं में , लेखक स्वयं भी होटलों के कर्मचारियों, टैक्सी ड्राइवरों, स्थानीय दुकानदारों और आम कामगरों से बातचीत कर वहां के समाज की नब्ज पकड़ने की चेष्टा करता हैं , संवाद की यही शैली उनको दक्षिण में उत्तर भारतीय मजदूरों की समस्याओं की जानकारी देती हैं और इसी से वह जान पाते हैं कि दक्षिण में हिंदी का विरोध दरअसल किन वजहों से होता है भारतवर्ष के दक्षिणी छोर का सांस्कृतिक संबंध उत्तर भारत स्थित हिमालय से जोड़ने वाली यह पुस्तक भारत की राष्ट्रीय एकता को ऐतिहासिक तथ्यों के जरिए मजबूती से स्थापित करती है। लोकार्पण के अवसर पर अपनी बात रखते हुए मुकेश नौटियाल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को साझाकरते हुए कहा कि समूचे उत्तराखंड को, आदि गुरु शंकराचार्य के प्रति कृतार्थ होना चाहिए क्योंकि उन्होंने आठवीं सदी में पर्वत प्रांत में बद्री विशाल की स्थापना कर, शेष भारत से कटे इस दुर्गम प्रदेश को जोड़ने का कार्य किया है। उनकी यही पहल कालांतर में इस अंचल की आर्थिकी का मुख्य जरिया बनी

लोकार्पण कार्यक्रम में दून विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ चंद्रशेखर नौटियाल, कुलसचिव मंदरवाल, सूचना आयुक्त जे पी ममगाईं, विध्यक केदार मनोज रावत ,मदन पंचवाल , सत्यानंद बडोनी, रमाकांत बेंजवाल, नंदकिशोर अग्रवाल ,डॉक्टर मुनीराम सकलानी, राकेश जुगरान ,सोमवारीलाल उनियाल, शशि भूषण बड़ोनी,संजय कोठियाल,शिव प्रसाद सेमवाल ,अंबुज शर्मा , राजेश थपलियाल, कल्पना बहुगुणा, मंजू काला आदि समेत अनेकों गणमान्य व्यक्ति मौजूद रहे कार्य कार्यक्रम का संचालन बिना बेंजवाल द्वारा किया गया

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