पर्यावरणीय दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड के जंगलों में हर साल एक से डेढ़ करोड़ पौधे लगाए जा रहे, लेकिन इनमें से जीवित कितने बचते हैं यह अपने आप में बड़ा प्रश्न है। यदि रोपे गए 50 प्रतिशत पौधे भी जिंदा रहते तो राज्य में वनावरण काफी अधिक बढ़ जाता, जो अभी भी 46 प्रतिशत के आसपास सिमटा है। देर से ही सही, अब उत्तराखंड वन विभाग को इसका एहसास हुआ है। विभाग पौधारोपण की मानीटरिंग के लिए प्रोटोकाल तैयार कर रहा है। यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि प्रतिकरात्मक वनरोपण निधि प्रबंधन एवं योजना प्राधिकरण (कैंपा) के अंतर्गत होने वाले पौधारोपण में 10 साल तक 70 प्रतिशत रोपित पौधे जीवित रहें।

पौधे बचाने में 12089 वन पंचायतों के साथ ही ग्रामीणों का सक्रिय सहयोग लिया जाएगा। वन क्षेत्रों में किए जाने वाले पौधारोपण में सौ में 70 पौधों का जीवित रहना आदर्श स्थिति मानी जाती है, लेकिन राज्य की तस्वीर बताती है कि ऐसा नहीं हो पा रहा। इसके पीछे प्राकृतिक आपदा, पौधारोपण क्षेत्रों में पशुओं का चुगान, जंगल की आग जैसे कारण जरूर गिनाए जाते हैं, लेकिन इससे विभाग अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकता है। जैसी परिस्थितियां हैं, वह बताती हैं कि मानीटरिंग के मोर्चे पर कहीं न कहीं खामी है। पौधे रोपित कर उन्हें अपने हाल पर छोडऩे की परिपाटी भारी पड़ रही है। वनों को पनपाने के मामले में विभाग आमजन का सहयोग उस अनुरूप नहीं ले पा रहा, जिसकी दरकार है। पौधारोपण को लेकर निरंतर उठते प्रश्नों के बीच अब विभाग ने नीतियों में बदलाव करने के साथ ही जन के सहयोग से वनों को पोषित करने की दिशा में कदम बढ़ाने का फैसला किया है। वन विभाग के मुखिया प्रमुख मुख्य वन संरक्षक के अनुसार पौधारोपण के लिए अलग से प्रोटोकाल तैयार किया जा रहा है। इसमें क्षेत्र का चयन, वहां लगने वाले पौधों की प्रजाति, पौधों के संरक्षण में जन भागीदारी, पौधों की निरंतर निगरानी जैसे बिंदु शामिल किए जा रहे हैं। इस बार से ही इसे लागू किया जाएगा।

उत्तराखंड देश का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां वन पंचायतें अस्तित्व में हैं। प्रदेश में 12089 वन पंचायतें हैं, जिनके सदस्यों की संख्या 108801 है। वन पंचायतें अपने अधीन वन क्षेत्रों की स्वयं देखभाल करती हैं। अब वन पंचायतों का सहयोग उनके नजदीकी आरक्षित वन क्षेत्रों में भी पौधारोपण में लिया जाएगा। ग्रामीणों को विभाग इसके लिए प्रेरित करेगा। 71.05 प्रतिशत वन भूभाग होने के कारण राज्य में विभिन्न योजनाओं, परियोजनाओं के लिए वन भूमि लेना विवशता है। जो वन भूमि हस्तांतरित की जाती है, उसमें खड़े पेड़ों का 10 गुना अधिक अन्य स्थानों पर क्षतिपूरक पौधारोपण किया जाता है। वन विभाग के मुखिया के अनुसार कैंपा में ये व्यवस्था की जा रही है कि क्षतिपूरक पौधारोपण की कम से कम 10 साल तक देखभाल हो। यह सुनिश्चित हो कि इस अवधि तक 70 प्रतिशत पौधे जीवित रहें।

औद्योगिक विकास की बड़ी कीमत प्रकृति को चुकानी पड़ी। हालात इस हद तक पहुंच गए हैं कि खासतौर से एशियाई देशों में वर्षा जनित नदियों पर सबसे बड़ा संकट आ गया है। जब से दुनिया में उद्योग क्रांति आई, हमने आधे से ज्यादा मिट्टी खो दी। वनों के अभाव में मिट्टी बहती चली गई। इससे एक तरफ जहां समुद्र को चोट पहुंची, वहीं दूसरी तरफ हमने उपजाऊ मिट्टी को खो दिया।

आज समुद्र भी बेहतर स्थिति में नहीं कहे जा सकते। 400 डार्क जोन समुद्र में हो चुके हैं। इसका मतलब है कि वहां जीवन नहीं बचा। दुनिया के सारे समुद्रों के सामने यह संकट है।मनुष्य जनित कचरा समुद्र में पहुंचकर उसे प्रदूषित करता है। समुद्र पूरे कार्बन उत्सर्जन को 60 प्रतिशत तक सोखता था, पर प्रदूषण के दुष्प्रभावों से उसकी क्षमता घट गई। जब प्रकृति के संसाधन संकट का सामना कर रहे हैं तो स्पष्ट ही है कि हम पृथ्वी में एक बड़े बदलाव की तरफ अपने आप को धकेल रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में तेजी से जलवायु परिवर्तन हुआ है और लगातार तापमान में अंतर आया है। वायुमंडल में बढ़ती नमी पूरी मौसम व्यवस्था पर प्रतिकूल असर डालती है। उसने बारिश के रुख को बदल दिया है। वह चाहे दक्षिणी मानसून हो या पश्चिमी विक्षोभ, सभी में बड़े अंतर आए हैं।

हिमखंडों के हालात बढ़ती गर्मी के कारण वैसे ही गंभीर स्तर तक पहुंच चुके थे, लेकिन अब समय पर वर्षा न होना, खासतौर से पश्चिमी विक्षोभ के समय पर न आने के कारण हिमखंडों के निर्माण पर भी प्रतिकूल असर पड़ा है। प्रकृति संरक्षण दुनिया का साझा दायित्व है। पर्यावरण बचाने के दृड संकल्प से ही यह पृथ्वी बचेगी। अभी समय है कि पृथ्वी को मिलकर समझें और समाधान ढूंढ़े तो हम कुछ हद तक नियंत्रण कर पाएंगे। भारत ने भी नेट जीरो कार्बन उत्सर्जन का वर्ष 2070 तक का संकल्प लिया है। यह सीमा पहले 2050 की थी। इसमें वृद्धि करने के समुचित कारण हैं।

दरअसल भारत में ऊर्जा उत्पादन का मुख्य स्रोत कोयला है। अन्य विकल्पों की उपलब्धता सीमित हैं। हर घर को रोशन करने की चुनौती अभी बनी हुई है। पृथ्वी, प्रकृति और पर्यावरण को बचाने के लिए हमें वैकल्पिक ऊर्जा के क्षेत्र में स्वावलंबन बढ़ाना होगा। ऊर्जा के लिए जंगल काटने नहीं, उन्हें फिर से उगाना होगा। साथ ही यह भी आवश्यक है कि दुनिया में अब किसी भी देश के कार्बन उत्सर्जन को प्रदूषण का सूचकांक न बनाते हुए देश विशेष की जीवनशैली को आधार बनाना चाहिए। जीवनशैली सूचकांक के आधार पर ऊर्जा के स्रोतों के उपयोग की अनुमति होनी चाहिए।

बड़े देश जैसे यूरोप और अमेरिका पहले ही विकसित हो चुके हैं, वहां औसतन जीवनशैली दुनिया के अन्य देश से बेहतर है। एशिया, अफ्रीका के देश जिनकी जीवनशैली आज भी निम्नतम है, वे कोयले पर ही ऊर्जा के लिए निर्भर हैं। उन्हें कोयले के उपयोग की मनाही नैतिकता नहीं मानी जा सकती, पर वैकल्पिक ऊर्जा की ओर प्रोत्साहित किया जा सकता है। हम एक पृथ्वी के मंत्र को गंभीरता से लेते हुए समानता के साथ सबकी भागीदारी और सबको अवसर प्रदान करें, ताकि विश्व की आर्थिकी-पारिस्थितिकी को एक ही पैमाने पर मापा जा सके।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने हाल ही में एक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठी में देश और दुनिया को जोड़ने के लिए ‘एक सूरज’ का मंत्र दिया था। अर्थ यह था कि हम सबके लिए अगर एक सूरज हो सकता है तो विश्व के कल्याण में भी हमारी एकता होनी चाहिए। पृथ्वी को बचाने के लिए इतना पुरुषार्थ तो करना ही होगा। तब ही “एक पृथ्वी व एक सूरज” का नारा खरा उतर सकेगा। वनों के लगातार नाश और प्राकृति पर मानवी हस्तक्षेप से पर्यावरण को काफी क्षति पहुंच रहीं हैं। लगातार जंगलों का ह्रास होने से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। वहीं इसका सीधा प्रभाव जलवायु में हो रहे परिवर्तन, मृदा से नदारद होती नमी आदि हैं। अब भी पर्यावरण संरक्षित नहीं हो सका तो 2030 में पृथ्वी का तापमान 2.7 डिग्री तक बढ़ने की भी आशंका है।जंगलों की आग और प्रकृति पर मानवी हस्तक्षेप से पर्यावरण को नुकसान पहुंच रहा है। जंगलों के बड़े पैमाने पर जलना और मिट्टी में नमी कम होना चिंता का विषय है। इससे भविष्य में काफी समस्या हो सकती है।

लेखक के निजी विचार हैं !

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )

https://jansamvadonline.com/forest-and-environment/this-plastic-waste-pile-can-cause-havoc/

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