क्या प्रदेश की जनता के करीब 11 प्रतिशत ब्राह्म्ण योगी से नाखुश हैं? आप जमीन पर किसी शर्मा, त्रिपाठी, मिश्रा, गौड, तिवारी से बात कीजिए, तो सब साफ हो जाएगा. ये तमाम लोग योगी के होने भर से ही गद्गद हैं. ब्राह्म्णों का बहुत बड़ा वर्ग योगी के लिबास और विचारों से सुकून पाता है. पिछले पांच सालों में प्रदेश के गांव-गांव और शहर-शहर योगी की लोकप्रियता कई गुना बढ़ी है
क्या जितिन प्रसाद नेता (जमीनी) हैं? क्या कोई छोटा संगठन चलाकर एक जाति/वर्ग के नेता होने का दंभ भरा जा सकता है? या इसे नेता बनने की शुरुआत या किसी और उद्देश्य के रूप में लिया जाए? क्या देश के सबसे बड़े प्रदेश के आम ब्राह्मण मानुस या वर्ग (बहुमत या विशाल संख्या में) को अब से कुछ समय पहले तक पता था कि जितिन प्रसाद उनकी ही जाति से संबद्ध हैं? क्या जितिन प्रसाद के नाम के आगे शर्मा, गौड त्रिपाठी, मिश्रा, तिवारी लगा था क्योंकि उत्तर प्रदेश में इन्हीं जैसे सरनेम के जुड़े होने से जमीनी वर्ग तक मैसेज जाता है कि कोई व्यक्ति विशेष फलां वर्ग/जाति से है? ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जितिन को प्रदेश मंत्रीमंडल में विधान परिषद के रास्ते जगह देने की तैयारी हो रही है. ऐसे में जमीनी नेता की बात के क्या मायने रह जाते हैं? फिर ये एकदम से ही प्रसाद के माथे पर ब्राह्मणों के नेता होने का “स्टिकर” किसने लगा दिया? एकदम से ही यह नैरेटिव (कथा, कहानी, लंबी कहानी, वगैरह, वगैरह) किसने खड़ा करने की कोशिश की कर दी गयी कि उत्तर प्रदेश में एकदम से ही कोई ब्राह्मण नेता “जन्मा” है. इस नैरेटिव के पीछे का असल गणित क्या है? क्या ब्राह्मण नैरेटिव उछाल कर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को कोई संदेश देने की कोशिश की गयी है? क्या वास्तव में करीब बीस करोड़ की आबादी वाले प्रदेश के तकरीबन 11-12% ब्राह्मण मुख्यमंत्री से नाखुश हैं? वास्तव में सवाल अनगिनत हैं. कुछ जायज, कुछ भ्रमित करने वाले. और भ्रमित सवालों के जवाबों की भी कोई मंजिल नहीं होती.
बहरहाल, जो शख्स अपनी पैतृक विरासत (शाहजहांपुर) में पिछले दो लोकसभा के चुनाव अच्छे-खासे वाटों से हारा हो, जिसकी पकड़ जिला कार्यकारिणी पर भी न हो चली हो, उसे नेता (जमीन का/जनता का) का कैसे कहा जा सकता है. समझा जा सकता है कि कांग्रेस ने उन्हें बंगाल का प्रभारी बनाकर ‘बलि का बकरा’ बनाकर ‘हलाल’ करने का एजेंडा काफी पहले बना लिया था. इससे पहले की और किरकिरी होती, जितिन ने ‘पिच’ को अच्छी तरह से भांपते हुए बीजेपी का दामन थाम लिया. भारतीय राजनीति में यह अनेकों बार हो चुका है और आगे भी होता रहेगा. लेकिन इस “ब्राह्मण सुर” ने एकदम से कैसे ध्वनि पकड़ ली? नैरेटिव गढ़ना एक प्लानिंग हो सकती है, इसका उद्देश्य (जैसा दिख रहा है या जैसी राष्ट्रीय बीजेपी की “वॉक एंड टॉक” रही है) कुछ और हो सकता है. लेकिन ज्यादातर टीवी चैनलों ने इसे लपकने और इस पर पॉलिश कर सजा-संवारकर ‘इस कथा’ में जान फूंकने का ही काम किया.
क्या प्रदेश की करीब 20 करोड़ जनता में करीब 11-12 प्रतिशत ब्राह्मण योगी से नाखुश हैं? वास्तविक तस्वीर यह है कि आप जमीन पर किसी शर्मा, त्रिपाठी, मिश्रा, गौड, तिवारी या और ब्राह्मण उपजाति से बात कीजिए, ज्यादातर जिलों में बात कीजिए. पान वाले से, परचून की दुकान वाले से ब्राह्मण वकील सहित ज्यादातर पेशो से जुड़े ब्राह्मणों से बात कीजिए, तो सब साफ हो जाएगा. ये तमाम लोग योगी के मुख्यमंत्री होने भर से ही गद्गद हैं. इनकी मनोदशा कुछ ऐसी हो चली है कि मुख्यमंत्री की पोशाक (पहनावे), मंदिर में पूजा करने और गायों का चारा खिलाने की तस्वीरों में ही ये खुद को देखते हैं. जमीनी ब्राह्मण को योगी में ठाकुर नजर नहीं आता. पिछले पांच सालों में प्रदेश के गांव-गांव और शहर-शहर योगी की लोकप्रियता कई गुना बढ़ी है. कई बड़े मंचों ने उन्हें लगातार साल का सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री चुना है. इसके पीछे योगी की त्वरित गति से काम करने की शैली, कड़े फैसले लेना, अपनी जिद के लिए अदालत तक से भिड़ जाना कई बातें रही हैं. और ब्राह्मण ही नहीं, कई वर्ग उन्हें हिंदुत्व के नए ब्रांड एंबेसडर के रूप में देख रहे हैं. एक ऐसा नेता, जो कड़े फैसले लेने से नहीं रत्ती भर भी हिचकिचाता. और जहां तक जमीनी ब्राह्मणों की बात है, तो यह वर्ग मिजाज से एक तरह से ये “योगी” हो चुका है! इनके जहन में यह ‘चिपक’ सा गया है कि न तो पहले ही इनके लिए सरकारी कागजों में कुछ था और न ही आगे कुछ होने जा रहा है. इनकी वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों को जो कुछ करना होगा, अपने बूते ही करना होगा.
यूपी के इतिहास में तीसरा सबसे बड़ा वोट बैंक ‘ब्राह्मण’ जिसकी तरफ खड़ा हुआ, अक्सर सत्ता भी उसके पास होती रही है. यूपी के 21 मुख्यमंत्रियों में 6 ब्राह्मण रहे. एनडी तिवारी तो तीन बार सीएम रहे. ब्राह्मणों ने 23 साल तक यूपी पर राज किया, जब सीएम नहीं भी रहे तो भी मंत्री पदों पर उनकी संख्या और जातियों की तुलना में सबसे बेहतर रही, लेकिन मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद 90 के दशक बाद से उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण बैकफुट पर आ गए. वोट बैंक के नए समीकरणों ने ब्राह्मणों का नुकसान ही किया. ओबीसी/दलित गठजोड़ ने इन ब्राह्मणों को जमीनी से लेकर उच्च स्तर तक बहुत कुछ सहने पर मजबूर किया. मायावती ने थोड़ा खुश करने की कोशिश की, लेकिन यह बात उनके अपने सत्ता के समीकरणों को साधने के लिए ब्राह्मणों को टिकट देना और उन्हें मंत्रिमंडल में जगह देने तक सीमित रही. प्रदेश के आम ब्राह्मणों को क्या मिला? संविधान भी उन्हें कुछ “विशिष्ट” प्रदान नहीं करता. या क्या करता है??
बहरहाल, जितिन प्रसाद के रूप मे ब्राह्मण नेता का नैरेटिव उछालने का मकसद क्या है? प्रदेश के 312 बीजेपी सांसदों में करीब 45 विधायक ब्राह्मण हैं. यह संख्या करीब 15 प्रतिशत है. ऐसे में क्या इन ब्राह्मण विधायकों की नाराजगी इस बात को लेकर तो नहीं कि प्रदेश कैबिनेट के 25 मंत्रियों में सिर्फ 5 ही ब्राह्मण हैं, जो कि 20 फीसद है? या फिर नाराजगी इस बात को लेकर है कि राज्यमत्रियों को मिलाकर 47 मंत्रियों में ब्राह्मण मंत्री लगभग आठ या नौ ही हैं, जो कुल मंत्रीमंडल का करीब 19 प्रतिशत (जो ठीक-ठाक है या अच्छी है) बैठता है, या फिर नाराजगी इस बात को लेकर है कि इन ब्राह्मण मंत्रियों के काम या “मलाईदार” काम नहीं हो रहे? क्या ब्राह्मण विधायकों को “मनचाहा” नहीं मिला रहा? और अगर ऐसा है, तो प्रदेश के ब्राह्मण और ब्राह्मण विधायक/मंत्रियों की नाखुशी और करीब 11 प्रतिशतक ब्राह्मणों की खुशी एकदम जुदा बातें हैं. क्या ऐसा नहीं है?
इन तमाम ब्राह्मण मंत्रियों/ विधायकों ने अपने समुदाय के लिए पिछले करीब चार सालों में क्या किया है? इन सहित तमाम लोगों को 2019 में लोकसभा चुनाव में मोदी के नाम पर वोट मिला और 2017 के प्रदेश चुनाव में भी. इनकी जगह कोई और होता, तो भी परिणाम आज जैसा ही रहता. क्या ऐसा नहीं है? यह सार्वभौमिक है चुनाव के परिणाम बाद कैसे ‘स्लॉग ओवरों’ में योगी आदित्यनाथ की इंट्री हुई थी. हां तब के योगी और आज के योगी में कई गुना अंतर है. कद, लोकप्रियता और छवि तमाम लिहाज से. यह हो सकता है कि योगी आदित्यनाथ अपने अंदाज में काम कर रहे हों? यह हो सकता है कि इनकी न सुनी जा रही हो? पर इनकी न सुने जाने से जमीनी ब्राह्मणों की खुशी/नाखुशी का कोई लेना-देना नहीं है.
सवाल फिर यही है कि जितिन प्रसाद को ब्राह्मण रूपी नेता का नैरेटिव क्यों गढ़ा गया? क्या यह कुछ बड़ा छिपाने के लिए किया गया? क्या यह ध्यान भटकाने के लिए किया गया? वजह यह है कि बीजेपी का राष्ट्रीय नेतृत्व दिखाता कुछ और है, करता कुछ और है. पीएम मोदी की की नीति बहुत ही चौंकाने वाली रही है. फिर चाहे नोटबंदी का ऐलान हो या फिर सर्जिकल स्ट्राइक. तो क्या ब्राह्मण नैरेटिव के पीछे कुछ बड़ा छिपा है? योगी आदित्यनाथ की मोदी और जेपी नड्डा के साथ करीब चार घंटे की मीटिंग के पीछे कुछ बड़ा छिपा है? इसका जवाब अगले कुछ दिनों के भीतर मिल जाएगा. लेकिन एक बात साफ है कि जितिन प्रसाद के ब्राह्मण नेता का नैरेटिव एक खोखला नैरेटिव है. इससे “कथा” से जमीनी ब्राह्मणों पर कोई असर नहीं है.
साभार मनीष शर्मा
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