साभार – व्योमेश जुगरान जी की वाल से
प्रसन्ना रेड्डी की श्रीनगर बिजली परियोजना में जब धारीदेवी डूब रही थी तो इसके विरोध में उमा भारती, प्रो. जीडी अग्रवाल और भरत झुनझुनवाला जैसे लोग कल्यासौड़ में धरने पर बैठने आए थे। लेकिन याद करें, इन लोगों से निकटवर्ती धारी गांव और स्थानीय वाशिंदों ने क्या सुलूक किया! उनके मुंह पर कालिख पोती गई और यह कहते हुए पत्थर मार-मार कर भगाया गया कि वे हमारे बच्चों का रोजगार छीनने आए हैं। यह घटना हमें आत्मावलोकन की ओर ले जाती है। खासकर इसलिए भी कि कल्यासौड़ में अलकनंदा की अटूट चट्टान पर विराजमान जिस धारी भगवती के बारे में कहा जाता था कि वह अपने ऊपर कोई छत नहीं सहती, उसकी हिफाजत को आए गंगा रक्षकों के ऊपर चांदी की चमक से चौंधियाए “पुजारियों” ने ही गारे-घंतर चलाए। यही नहीं, क्षेत्र के तत्कालीन विधायक आसपास के ग्रामीणों से भरी दर्जनभर एसी बसों को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर आ धमके। ये लोग संबंधित बांध परियोजना पर लगी रोक के खिलाफ संसद की चौखट पर बेमियादी अनशन के इरादे से आए थे। गनीमत यह रही कि पहाड़ के तत्कालीन ‘केंद्रीय नेता’ सतपाल महाराज ने शाम होते-होते भाड़े के इन अनशनकारियों को जूस पिला कर विधायक महोदय की इज्ज़त बचा ली।
बांध की ऊंचाई समेत कई तरह के नियमों को तार-तार कर बनी इस परियोजना का काम चल पड़ा तो प्रोमोटरों ने उन स्थानीय नौजवानों को सड़क का रास्ता दिखाना शुरू कर दिया जिनके बूते वो अलकनंदा नदी पर निर्द्वन्द राज करने लगे थे। सनद रहे कि यह लड़ाई भी पहाड़ लगभग हार चुका है। ऊपर से श्रीनगर में अलकनंदा की दयनीय हालत देखने लायक है। यह पूरी तरह बांध परियोजना के प्रमोटरों की कृपा पर निर्भर है कि वो जब पानी छोड़ेंगे तो नदी बहेगी, वरना अपने रेतीले किनारे पर टेंसू बहाती नजर आएगी। आज हम लोग औली में धनकुबेरों की शादी को लेकर चिल्लपौं मचा पहाड़ के पर्यावरण का रोना रो रहे हैं। अरे भई, जब सारा देश हमारे साथ था और मुंबई का एक साधारण टैक्सी वाला भी केदारनाथ आपदा को धारी देवी के मंदिर से की गई छेड़छाड़ का नतीजा मान रहा था, (मैं उन दिनों मुंबई में था और अचंभे में था कि साधारण टैक्सीवाला भी धारी देवी का नाम जप रहा था..) तब, पूरे विश्व को पर्यावरण का संदेश देने वाले अंतरराष्ट्रीय अवार्डी- सुंदरलाल बहुगुणा, चंडीप्रसाद भट्ट, अनिल जोशी, शेखर पाठक इत्यादि भी अलकनंदा को बंधने/बिकने से नहीं बचा सके। सो, अब औली पर विलाप कैसा?
हां, यह प्रश्न जरूर है कि करोडों के तमाशे से खड़ी की गई औली से पहाड़ को क्या मिला? इस प्रश्न का उत्तर हमारे उन यशस्वी और लगभग अनाम पत्रकारों की लेखनी से मिलता है जिनके भीतर पहाड़ की वास्तविक पीड़ा थी। करीब तीन दशक पहले नभाटा में छपी नवीन धूलिया की इस रिपोर्ट में पूरी परियोजना का सटीक विश्लेषण है। यह कितनी समाचीन सिद्ध हुई, आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। इसमें लिखा है- ‘साल के चंद दिनों चल सकने वाला यह ऐरियल रोपवे अमीरों के आनंद का साधन मात्र बनकर रह जाएगा। यहां के आम यात्री को इससे कोई लाभ नहीं होने वाला….।
इस रिपोर्ट के दिवंगत नवीन धूलियाजी को भी बारंबार सलाम !..