1757 भारतीय इतिहास का विडंबना वर्ष है। इसी साल प्लासी का लगभग अनहुआ युद्ध जीत कर ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपने राज की शुरुआत की थी। रानी एलिजाबेथ से भारत से व्यापार की 21 साल की अनुमति लेकर ईस्ट इंडिया कंपनी बन तो 1600 में ही गयी थी। इसका पहला जहाज और दूत भी 1608 में ही आ गया था। मगर कंपनी राज की शुरुआत प्लासी की लड़ाई के बाद ही हुयी। बाद में सीधे विक्टोरिया के राज में बदल कर यह गुलामी अगली 190 वर्ष तक इस महान देश को अपनी बेड़ियों में जकड़े रही।
कहते हैं कि इस युद्ध में बंगाल के हारने की कोई वजह नहीं थी। जीत इतनी तय थी कि नवाब सिराजुद्दौला जंग शुरू होने के पहले ही मीर जाफर के भरोसे सेना और लड़ाई को छोड़कर वापस चल दिए थे। जिस ग़द्दारी के लिए मीर जाफर एक उपमा बन गए, उसकी वजह से क्लाइव की फौजें जीत गयीं और अक्खा बंगाल, बिहार और काफी हद तक ओडिसा उनके हाथ में आया। फिर करने को ज्यादा कुछ नहीं बचा था। मराठाओं को हराना था – यहां भी अंग्रेज शूरवीरता से नहीं, तिकड़म और लेन-देन से जीते। यह प्रसंग हाल के दिनों में फिर से ताजा हुआ था, जब उस लड़ाई के मीर जाफर कहे जाने वाले एक वंश ने सामयिक राजनीति में तख्ता पलट कर विभीषण विशेषण हासिल किया था ; मगर यहां प्रसंग वे नहीं हैं। प्लासी में हुआ यह कि नबाब सिराजुद्दौला को आश्वत करके मुर्शिदाबाद वापस भेजने के बाद मीर ज़ाफ़र ने कम्पनी बहादुर से पैसा लिया और बंगाल की तोपों – जिनकी तादाद अंग्रेजों की तोपों से कहीं ज्यादा थी – में भरी जाने वाली बारूद गीली कर दी/हो जाने दी। अंग्रेजो की तोपों ने निशाना बांधकर गोले दागे – हिन्दुस्तान की तोपें फुस्स होकर रह गयीं।
कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। पहले एक त्रासदी की तरह, फिर एक स्वांग और मजाक की तरह। इन दिनों हमारा समाज ठीक इसी इतिहास के दोहराव के चरण में हैं।
अब चूंकि, युद्धों के पारम्परिक तरीकों की जगह अनेक नूतन जरिये ढूंढें जा चुके हैं – इसलिए अब क्लाइव तोपें लेकर आये, यह जरूरी नहीं। सीधे कब्जा करके राज चलाये – यह भी जरूरी नहीं। वित्तीय और आर्थिक आधिपत्य करके सारी मलाई हड़पी जा सकती है और राज चलाने का डर्टी काम स्थानीय रंग-रूप, बोल-चाल वालों को थमाया जा सकता है। इसी तरह का एक तरीका बुद्धिमत्ता और मेधा को कब्जाने का भी है।बौद्धिकता भी एक संपत्ति और इस तरह पूंजी का एक रूप हो गयी है, जिससे सरप्लस – मुनाफ़ा – कमाया जा सकता है।
कम-से-कम इस मामले में – बौद्धिकता के रॉ मटेरियल या कहें तो मेधा और बुध्दि के जेनेरिक उत्पाद के मामले में भारत कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं है। सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली ने इस बीच जितनी पीढ़ियां तराशी, उनका कितना लाभ इस देश को मिला यह बाद की बात है। मगर विकसित देशों सहित दुनिया के अनेक देशों में इसके व्यक्तिरूपी उत्पादों ने धूम मचाकर रख दी है। इंजीनियरिंग, सायबर – सॉफ्टवेयर, हार्डवेयर दोनों – मैनेजमेंट, वाणिज्य और फील्ड वर्क जैसे बाकी प्रोफेशनल्स की गिनती भूल भी जाएँ और सिर्फ चिकित्सा को ही ले लें, तो भारतीय मूल के अनगिनत डॉक्टर्स विकसित से लेकर विकासशील देशो में छाये हुए हैं। मोटे अनुमान के हिसाब से ब्रिटैन में कोई 50 हजार और संयुक्त राज्य अमरीका में करीब डेढ़ से दो लाख भारतीय डॉक्टर हैं – अनेक शीर्ष पर हैं। सप्ताह भर से टीवी चैनल्स पर लाइव आकर बता रहे हैं कि वे “अपने-अपने देशों” में कोरोना वायरस आपदा से किस तरह जूझ रहे हैं। इनमे से कई तो अपने-अपने देशों की इस लड़ाई का नेतृत्व भी सम्हाले हैं।
मगर ठीक इसी समय पूरे विश्व को इतने काबिल विज्ञानकर्मी देने वाले देश में उलटे बांस बरेली की तरफ लादे जाते दिख रहे हैं। अंधविश्वास, टोना-टोटका, थाली-लोटा-ग्लास उपचार और दीया-बाती से कोरोना वायरस के सर्वनाश का दावा किया जा रहा है। कोई गौमूत्र और गोबर से कोरोना-संधान कर रहा है, तो कहीं किसी धार्मिक किताब की आठ-दस लाईने पढ़ने से कोरोना संहार की बात कही जा रही है। इस तरह के अंधविश्वासी आव्हानों में, मीडिया और समाज के नेताओं की आवाज के जुड़ जाने का तात्कालिक नतीजा बढ़ी-चढ़ी हिस्सेदारियों में साफ़ दिख रहा है। किन्तु चिंता की बात इतनी भर नहीं है। चिंता की बात इस की दम पर किसी नेता या पार्टी का दो-चार चुनाव जीतना या हराना भी नहीं है। फ़िक्र की बात यह है कि इसके जरिये सोचने-विचारने का जो आधार बनाया जा रहा है, जिस तरह का नजरिया या माइंडसैट विकसित हो रहा है, वह अतीत की सारी उपलब्धियों और भविष्य की समस्त संभावनाओं पर पानी फेरने वाला है।
बहुत ही तेजी से देश तीसरे चरण में पहुँच गया है। महामारी से मुकाबले के लिए जरूरी सामूहिक चेतना के तीसरे चरण की बजाय – इस महामारी से उबरने के लिए जिस विज्ञान की सर्वाधिक आवश्यकता है, उस विज्ञान के धिक्कार और सामूहिक तिरस्कार के तीसरे चरण में आ चुके हैं हम। बैंड-बाजों, ढोल-धमाकों के साथ सामूहिक अज्ञान के तीसरे चरण में दाखिल हो चुके हैं!! यह कोरोना-वायरस के हमले से कहीं ज्यादा गंभीर और चिंताजनक स्थिति है। यह गुजरे पांच हजार वर्षों की सभ्यता द्वारा हासिल ज्ञान, मेधा और कौशल का तिरस्कार है। यह बुध्द के निजी चिकित्सक जीवक कुमारभच्छ से लेकर सुश्रुत, चरक, धन्वन्तरि, नागार्जुन,अत्रेय, अग्निवेश, वाग्भट, अश्विनी, दृधबाला जैसे आरंभिक और डॉ. आनंदीबेन जोशी से लेकर आज जिलों, तहसीलों के अस्पतालों में जोखिम उठाकर मानवता को बचाने जूझ रहे उनके डॉक्टर, नर्स, पैरा मेडिकल स्टाफ रूपी बेटे-बेटियों आदि महानतम चिकित्सकों के श्रम का अपमान है। यह इन सहित हजारों अन्वेषकों, भैषजों, शल्यक्रिया पारंगतों, नानियों-दादियों के औषधि अनुसंधान, शरीर विज्ञान, प्रसूति विज्ञान, नेत्रचिकित्सा विज्ञान, जीव विज्ञान और हाईजीन के क्षेत्रों में अपने समय से कहीं आगे बढ़कर की गयी खोजों और योगदान का नकार है। “विश्वगुरु” होने के स्वयं के दावे का स्वयं ही किया गया बहिष्कार है! अपने अंतिम निष्कर्ष में यह दुनिया और भारत की मानवता की हासिल बौद्धिकता और मनुष्यता दोनों का अंतिम संस्कार है। ठीक इसीलिए यह कोरोना की महामारी से ज्यादा गंभीर और चिंताजनक है।
ठीक यही स्थितियां थीं जिनके चलते दो शताब्दी की गुलामी भर नहीं भुगतनी पडी थी, बल्कि जिन्होंने भारतीय विज्ञान, तकनीक, कौशल और मेधा के विकास को कोई हजार डेढ़ हजार साल पीछे धकेल दिया था। आविष्कारों, अनुसंधानों, खोजों, जिज्ञासाओं और सवालों के ऊपर ग्रन्थ और किताबें रखकर उन्हें राष्ट्र और धर्म विरोधी करार दिया था। मुक्ति आंदोलन के लड़ाकों ने इस जड़ को पकड़ा था और ठीक यही वजह थी कि उन्होंने संविधान में वर्णित नागरिकों के बुनियादी कर्तव्यों को निर्धारित करने वाली धारा 51 (ए) में देश के नागरिक का यह कर्तव्य निर्धारित किया कि वह “अपने और देश के अंदर वैज्ञानिक स्वभाव, मानवतावाद और जांच और सुधार की भावना विकसित करेगा। ” {धारा 51 (ए) (एच)} भारत के संविधान की खासियत में से एक है यह धारा, जिसे सिर्फ भुलाया नहीं जा रहा, उलटा जा रहा है।
अंधविश्वास की यह आंधी दरअसल आजादी की लड़ाई, उसके हासिल सबकों और भारत के संविधान का विलोम और नकार है। यह हमेशा याद रखे जाने की आवश्यकता है कि बवंडरों और चक्रवातों से, वे भले कितने शक्तिशाली क्यों न रहे हों, ध्वंस ही हुए हैं। पृथ्वी हरी भरी कभी नहीं हुयी।
आलेख : बादल सरोज
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1757 is the irony year of Indian history. This year, the East India Company started its rule in India by winning the Battle of Plassey almost anhua. With the permission of 21 years of trade from India to Queen Elizabeth, she became the East India Company in 1600. Its first ship and messenger also arrived in 1608 itself. But Company Raj started only after the Battle of Plassey. Later, directly under the rule of Victoria, this slavery held this great country in its fetters for the next 190 years.It is said that there was no reason for Bengal to lose in this war. The victory was so certain that Nawab Siraj-ud-daulah left the army and fighting in the back of Mir Jafar before the war started. The Gaddari for which Mir Jafar became a metaphor led to Clive’s forces winning and Akha Bengal, Bihar, and to a large extent Odisha. There was not much left to do then.Marathas had to be defeated – even here, the British won not by valor, but by tactics and dealings. This incident was revived in recent times, when a dynasty called Mir Jafar of that battle overthrew topical politics and acquired the adjective adjective; But they are not the subject here. It took place in Plassey that Mir Zafar took money from Company Bahadur after assuring Nabab Siraj-ud-daula back to Murshidabad andThe gunpowder in the Bengal cannons – which had more than the British guns – was wet / allowed to be loaded. The cannons of the British fired at the targets – the cannons of Hindustan were stuck.
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It is said that history repeats itself. First like a tragedy, then a farce and joke. These days our society is in a repeating phase of the same history.Now, since many new methods have been found in place of traditional methods of warfare – now Clive brought guns, it is not necessary. Capture directly and rule – it is not necessary. By the financial and economic hegemony, all the rubbish can be captured and the dirty work of running the rule can be handed over to the local look and feel. A similar method is also to capture intelligence and intelligence. Intelligence has also become an asset and thus a form of capital, from which surplus – profit – can be earned.
At least in this case – India is not a small figure in terms of intellectual raw materials or, in general, generic products of intelligence and intelligence. In the meantime, the number of generations the public education system has produced, how much benefit they got to this country is a matter of the latter. But in many countries of the world, including developed countries, its personalized products have rocketed. Engineering, cyber – software, hardware – both management, commerce and field work, forget the count of other professionals and Only take medicine, then there are countless doctors of Indian origin in developed and developing countries. According to rough estimates, there are some 50 thousand Britons and about one and a half to two lakh Indian doctors in the United States – many at the top. Live on TV channels for over a week, describing how they are coping with the Corona virus disaster in “their own countries”. Many of them are also leading the fight in their respective countries.But at the same time, in the country which has given such a capable science worker to the whole world, the bamboo is seen moving towards Bareilly. Superstition, sorcery, tortoise, thali-lotta-glass treatment and diya-wick are claimed to cause the corona virus. If someone is coronating with cow urine and cow dung, then somewhere reading eight to ten lines of a religious book is being said to be corona destruction.In such superstitious invasions, the immediate result of the joining of the voices of media and society leaders is evident in the increased participation. But there is not much to worry about. It is not a matter of concern to win or defeat two-four elections of any leader or party. It is a matter of concern that the basis of thinking through it, the kind of mindset or mindset that is developing, is going to drain all the achievements of the past and all the possibilities of the future.
The country has reached the third phase very fast. We have come to the third stage of the science of the scourge and collective disdain of the science which is most needed to overcome this epidemic – rather than the third stage of collective consciousness required to fight the epidemic. The third stage of collective ignorance with the band-eagles, drums and explosions has entered. This is a more serious and worrying situation than a corona-virus attack. It is a contempt for the knowledge, intelligence and skill acquired by the civilization of the last five thousand years. From Buddha’s personal physician Jeevak Kumarbhutch to early and Dr. Anandiben Joshi like Sushruta, Charak, Dhanvantari, Nagarjuna, Atreya, Agnivesh, Vagbhat, Ashwini, Drishbala and today, in the hospitals of districts, tehsils, they are struggling to save humanity It is an insult to the labor of the greatest doctors such as doctors, nurses, para-medical staff, sons and daughters.This is a denial of the discoveries and contributions of thousands of inventors, including buffaloes, surgical parasites, nanny-herpes, beyond their time in the fields of pharmaceutical research, physiology, obstetrics, ophthalmology, biology and hygiene. His own claim of being a “world teacher” is a boycott of his own! In its final conclusion, it is the cremation of both the intellectualism and humanity achieved by humanity of the world and of India. That is why it is more serious and worrying than the corona epidemic.It was precisely these conditions that had not suffered two centuries of slavery, but which had pushed back the development of Indian science, technology, skills and intelligence by a thousand and a half thousand years. By placing books and books on inventions, research, discoveries, curiosities and questions, he was called anti-national and religious. The fighters of the liberation movement had caught this root andIt was for this reason that he laid down the duty of a citizen of the country in Section 51 (A), which laid down the basic duties of the citizens mentioned in the Constitution, that he “developed scientific temperament, humanism and sense of inquiry and reform within himself and the country” Will. “{Section 51 (a) (h)} is one of the hallmarks of the Constitution of India. This section, which is not simply forgotten, is being overturned.
This storm of superstition is actually the opposite and negation of the freedom struggle, its achievements and the Constitution of India. It always needs to be remembered that whirlwinds and cyclones, no matter how powerful they may have been, have been destroyed. The earth has never been green.
Article: Badal Saroj