उधर एक यूनान है। जहां की एक अदालत ने वहां की नस्लवादी, घोर दक्षिणपंथी नाजीवादी गोल्डन डॉन पार्टी को हिंसा तथा बर्बरताओं का दोषी करार दिया है। अदालत ने अपने फैसले में कहा कि “यह पार्टी अपराधियों की जमात है। इसकी और इसके नेताओं की सामाजिक राजनीतिक सक्रियता तुरंत बंद की जानी चाहिए।” यूनान की अदालत ने यह बात इस पार्टी के मुखिया तथा उसके 50 सदस्यों पर चले मुकदमे के फैसले में उन्हें दोषी करार देते हुए कही। अब तीन जजों की बेंच सजा की अवधि तय करेगी। इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय उन्हें सुनाई जाने वाली सजा के बारे में सुनवाई चल रही थी। गुरूवार तक इसका भी निर्णय हो जाने की संभावना है। यूनानी क़ानून के अनुसार इन्हे 15 वर्ष तक की जेल की सजा हो सकती है। जिन्हें सजा सुनाई जाने वाली है, उनमे इसके प्रमुख सहित कई नेता तथा पूर्व सांसद भी शामिल हैं। कोई 5 साल चली न्यायिक प्रक्रिया के बाद यूनान के लोग प्रजातंत्र के मूल्यों को बचाने में सफल हुए हैं।

इन पर साबित हुए आरोपों में एक आरोप “आपराधिक संगठन” चलाने का है। अभियोजकों के अनुसार इसका नेता मिकालोलिआकोस एक निजी सेना जैसा एकल नेतृत्व वाला वाला संगठन चलाता है, जिसका पिछले 30 साल से यह खुद मुखिया बना हुआ है। सन 2013 में जब इस पार्टी के लोगों के घरों पर छापे डाले गए थे, तो उनके पास से ढेर सारी बंदूकों के असलहे तथा अन्य हथियार बरामद किये गए थे। उनके साथ बड़ी मात्रा में नाज़ी और हिटलर से जुड़े हुए चिन्ह और प्रतीक भी मिले थे।

इस पार्टी पर लगे और मुक़दमे में सही साबित पाए गए आरोपों में नस्लवाद के विरोध में और मानवता के समर्थन में गाने वाली एक प्रसिद्ध रैप गायिका पावलोस फुसास की 2013 में ह्त्या करने, 2012 में मिस्र के मछुआरे को मारने तथा ट्रेड यूनियनों में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कार्यकर्ताओं पर चुन-चुन कर हमला करने, उनकी हत्या की साजिश रचने के आरोप शामिल हैं। राष्ट्रवादी होने का दावा करने वाली यह पार्टी यूनान में आर्थिक संकट के दौरान सिर्फ “मूल यूनानियों” को ही खाने का राशन देने पर जोर देती थी। इसके लिए कथित स्थानीय तथा बाहरी के बीच नफरत फैलाकर उन्हें आपस में लड़वाने की साजिशें रचती थी।

देश के गंभीर आर्थिक संकट, कर्ज के फंदे में फंसने के बाद लाये गए खर्चों में कटौती के मितव्ययिता पैकेज से उपजे जन असंतोष और आप्रवासी, विशेषकर शरणार्थियों की, आमद को मुद्दा बनाकर नाज़ियों की स्टाइल में उन्माद पैदा करके कुछ साल पहले यह यूनान की तीसरे नंबर की पार्टी बन गयी थी। 2012 में वहां की 300 सदस्यों की संसद में गोल्डन डॉन पार्टी के 18 सदस्य हो गए थे। इसके सांसदों के उकसावेपूर्ण भाषण, विभाजनकारी जुमले और टिप्पणियां, ऐसे और दूसरे तरीकों से यूनान की जनता की एकता को विभाजित करने की हरकतें आम हो गयीं। जनता के विराट बहुमत ने इसे समझा और पिछले साल के संसदीय चुनावों में इसे साफ़ कर दिया। यह खाता भी नहीं खोल पाई।

जन दबाव इतना मुखर है कि अदालती फैसले के बाद जब इसके नेता ने एक उकसावे भरा ट्वीट किया, तो ट्विटर को उसका खाता बंद करना पड़ा।

मसला सिर्फ दूर यूनान का ही नहीं है। पड़ोस के #नेपाल ने भी अपने नए संविधान में स्वयं को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने से साफ़ इंकार कर दिया। उसके लिए जरूरी प्रबंध भी जोड़े। ज्यादा समय नहीं हुआ जब, जहां ऐसा करना खासा मुश्किल था, वहां बांग्लादेश में, संसद और न्यायपालिका दोनों ने इस्लामिक कट्टरपंथ तथा पोलिटिकल इस्लाम को नाथने और बाँधने के साहसी और दृढ़संकल्पी कदम उठाये। संविधान में प्रावधान करके खुद को एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र घोषित किया। इसी के साथ राजनीति और चुनावों में धर्म के इस्तेमाल को प्रतिबंधित कर ऐसा करना दण्डनीय अपराध घोषित किया।

बांग्लादेश के सुप्रीमकोर्ट ने कट्टरपंथी-तत्ववादी राजनीति के अपराधी और उस आधार पर हत्याएं करने के दोषी कथित बड़े-बड़ों को सजा-ए-मौत तक दी।

आमतौर से साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का दौर, खासतौर से पिछले दो दशक, यूरोप सहित दुनिया के अनेक देशो में नस्लवादी नव-नाज़ी, साम्प्रदायिक और कट्टरपंथी राजनीति करने वाले नव-फासीवादियों के उभार और उनके विरुद्ध संगठित हो रहे प्रतिरोध दोनों के हैं। अगर वे लोकतंत्र और सभ्य समाज की मर्यादाओं को तोड़ रहे हैं, तो जनता का खासा हिस्सा उनसे जूझ भी रहा है। इन देशों का राजनीतिक-प्रशासनिक संवैधानिक तंत्र उन्हें दुत्कार भी रहा है, कानून उन्हें सजा भी दे रहा है।

यहां तक कि अमरीका में भी जब ट्रम्प राष्ट्रपति चुनाव हारने के बाद भी कुर्सी न छोड़ने की बात इशारों में कहते हैं, तो मिलिट्री और राजनीतिक, न्यायिक अंग उन्हें इसके लिए दुतकारते हैं। और तो और, पाकिस्तान की दो बड़ी राजनीतिक पार्टियां सत्ता में सेना के दखल को “संविधान के हिसाब से देशद्रोह” बताते हुए इसे रोके जाने की मांग उठाते हैं। उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं, मगर अभी इतने ही।

और इधर एक हिन्दुस्तान है, जहां खुद सत्ता में बैठी पार्टी अपने रिमोट-कंट्रोलर के फासिस्टी रवैये को पूरी बेशर्मी के साथ व्यवहार में उतारने पर आमादा है। लखनऊ-भोपाल-शिमला से लेकर लुटियन की दिल्ली से हाथरस तक, जेएनयू से न्यायपालिका तक हर तरफ यही विध्वंसकारी मुहिम जारी है। केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, भाजपा नेता, सांसद, विधायकों के बाद अब खुद राज्यपाल को बल्ला थमा कर मैदान में उतार दिया गया है।

महाराष्ट्र के संघी राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी की मुख्यमंत्री को लिखी चिट्ठी में की गयी सरासर असंवैधानिक टिप्पणी इसी तरह की होशियारी है। धर्मनिरपेक्ष संविधान की रक्षा करने के राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति संविधान के अविभाज्य हिस्से धर्मनिरपेक्षता का मखौल उड़ा रहा है। मुख्यमंत्री पर “सेक्युलर” हो जाने का ताना मार रहा है। उसे हिंदुत्व पर चलने की सलाह दे रहा है। यूनान छोड़िये, खुद भारत के क़ानून-विधान के हिसाब से यह आपराधिक भी है, दण्डनीय भी।

नैनीताल हाईकोर्ट ने आदेश के बाद भी सुविधाओं का बकाया जमा न करने पर महाराष्ट्र के राज्यपाल व उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को नोटिस जारी किया है। हाईकोर्ट ने चार सप्ताह में जवाब दाखिल करने के निर्देश दिए हैं।
सुप्रीम कोर्ट सुविधाओं के बकाया मामले में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा व बीसी खंडूरी के खिलाफ जारी अवमानना के नोटिस पर रोक लगा चुका है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक बिजली, पानी का करीब 11 लाख रुपये बकाया जमा कर चुके हैं।मामले के अनुसार पूर्व में रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटलमेंट केंद्र (रूलक) ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी।

मगर यह सिर्फ बड़े पद पर बैठे अदने व्यक्ति का बौनापन नहीं है। यह एक संघी का प्रवाह में बहकर दिमाग में भरा गरल उगल देना नहीं है। यह मुसोलिनी और हिटलर से संगठन, विचार, गणवेश, ध्वज प्रणाम और गोडसे स्वांग सीखकर आयी राजनीति का असली रंग है। उन्मादी हिंसा भड़काने का कोई भी मौक़ा या जरिया न छोड़ने की हड़बड़ी है – भारत दैट इज इंडिया को तानाशाही में जकड़कर उसकी कुछ हजार वर्षों की सभ्यता की हासिल उपलब्धियों को छीन लेने की जल्दबाजी है।

हाथरस से मुम्बई के राजभवन तक एक ही एजेंडा है : संविधान और उसमें लिखे को गहरे में दफ़न करने का जितना शीघ्र हो सके – उतना शीघ्र इंतजाम करना, जन गण मन की जगह अंत में हर गंगे जोड़ना – तिरंगे में चक्र की जगह त्रिशूल को स्थापित करना है।

दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र यूनान ने इस उन्मत्त सांड़ को सींग से पकड़ने का माद्दा दिखाया है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत को भी यही कर दिखाना होगा। जिन्होंने खुद अपने आपको संविधान अर्पित किया है, उन भारत के लोगों को उसके बुनियादी मूल्यों की हिफाजत भी खुद ही करनी होगी।

जब शासक और उनके नियंत्रण वाले प्रतिष्ठान ऐसा करने की अपनी जिम्मेदारी निबाहने में विफल रहते हैं, तो जनता को खुद अपने दम पर यह करके दिखाना होता है।

बादल सरोज (संयुक्त सचिव)

अ.भा. किसान सभा

 

विकास की आड़ में, विनाश