बड़े जनादेश वाली सरकार के सामने लोकप्रियता हासिल करना बड़ी चुनौती होता है। बड़ा जनादेश मतलब बड़ी अपेक्षाएं और बड़ी चुनौतियां। कोई भी सरकार लोकप्रिय तभी होती है जब वह इन दोनों पर खरी उतरती है। जिस राज्य में सत्ता पक्ष का विधायक हथियार लहराते हुए राज्य को भद्दी गालियां देता हो और सरकार मौन रहती हो, जहां सत्ताधारी विधायक पर यौन शोषण का आरोप हो, न्यायालय से डीएनए टेस्ट के आदेश होते हों मगर सरकार खामोश हो।

जहां सत्ता पक्ष के विधायक अपने ही क्षेत्र के कारोबारियों को मां-बहन की गालियां देकर धमकाते हों और सरकार चुप्पी साध लेती हो, जहां विधायक रजिस्टर्ड ठेकेदार हों, विधायक निधि में मोटी कमीशन खायी जाती हो और सरकार विधायक निधि की रकम बढ़ाती हो, जहां अहम पदों पर ट्रांसफर पोस्टिंग में योग्यता नहीं, राजनैतिक पसंद और व्यक्तिगत निष्ठा मायने रखती हो,

जहां विकास का पैमाना राज्य की नहीं, अफसरों और ठेकेदारों की जरूरत के मुताबिक तय होता हो, जहां शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार पर सिर्फ हवाई बातें होती हों, बच्चे सडकों पर जने जाते हों और ठेके के रोजगार के लिए भी सिफारिश और रिश्वत देनी पड़ती हो, जहां राजनेताओं की नजर में काबिल और ईमानदार अफसरों की अहमियत न हो।

जहां सुशासन के नाम पर पुरस्कारों के लिए काबलियत, गुडवर्क या नवाचार नहीं बल्कि चेहरा देखा जाता हो, वहां सरकार लोकप्रिय कैसे हो सकती है ? और तो और जिस सरकार से उसकी ही पार्टी के नेता और कार्यकर्ता तक खुश न हों, जिस सरकार के मंत्री खुद भ्रष्टाचारी हों, वह कैसे लोकप्रिय हो सकती है ?

कोई भी सरकार लोकप्रिय तभी होती है , जब खुशहाली आम आदमी तक पहुंती है । और यह सिर्फ सुशासन के चलते ही संभव है। उत्तराखंड में सुशासन भी उन्हीं चंद लोगों के लिए है जिनके लिए खुशहाली है। कहने को तो सरकार की ओेर से भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस और सबका साथ सबका विकास जैसे जुमलों के साथ सुशासन के दावे किये जाते हैं मगर ग्राउंड पर सुशासन के दावों की ‘हकीकत’ साफ नजर आती है।

अभी कुछ दिनों पहले अस्थाई राजधानी देहरादून से तकरीबन साढे चार सौ किलोमीटर दूर लोहाघाट में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बंशीधर भगत कार्यकर्ताओं से संवाद कर रहे थे। संवाद के दौरान वे राज्य में सुशासन का दावा करते हुए साल 2022 में साठ से अधिक सीटें जीतने की बात कर ही रहे थे कि अचानक कार्यक्रम में हंगामा शुरु हो जाता है। भाजपा का ही एक कार्यकर्ता मंच पर चढ़कर कहने लगता है कि सुशासन का दावा करने से पहले भ्रष्टाचार पर लगाम लगाओ।

भाजपा का यह कार्यकर्ता वन विभाग के अधिकारियों, कर्मचारियों पर 45 फीसदी कमीशन लेने और जल संस्थान के अधिकारी, कर्मचारियों पर जल जीवन मिशन योजना के तहत काम देने के लिए रिश्वतखोरी का आरोप लगाता है। कोई भी इस कार्यकर्ता की बात का विरोध नहीं कर पाता, उसे शांत करने की कोशिश की जाती है। यह कोई सार्वजनिक कार्यक्रम होता तो निश्चित तौर पर इसे विपक्ष की सजिश करार दिया जाता, मगर हंगामा करने वाला भाजपा कार्यकर्ता तो था ही मोदी समर्थक भी था। भाजपा के नेता कुछ नहीं कह पाए, मौके पर जैसे-तैसे स्थिति संभाली गयी। यह कोई अकेली घटना नहीं है। सत्ताधारी पार्टी के नेता आए दिन कहीं बंद कमरों में कहीं सार्वजनिक मंचों पर इस तरह की स्थिति से दो-चार हो रहे हैं।

चलिए भ्रष्टाचार पर जीरो टालरेंस की बात करते हैं। श्रम मंत्रालय की जहां उत्तराखंड भवन एवं सन्निर्माण कल्याण बोर्ड में बड़े घपले सामने आए हैं। विवादों में तो यह बोर्ड पिछले तीन साल से है मगर घपलों पर से पर्दा तब उठा जब सरकार ने इसके अध्यक्ष पद से विभागीय मंत्री हरक सिंह की विदाई की।

नए बोर्ड के गठन के बाद ऑडिट और एजी की रिपोर्ट में बड़े पैमाने पर घपले-घोटाले सामने आए। कर्मचारियों की भर्ती से लेकर फर्जी मजदूरी कार्ड बनाए जाने, साइकिल व सिलाई मशीनों की खरीद और वितरण से लेकर कोरोना काल में तैयार की गयी राशन किट में बड़े पैमाने पर घोटाला हुआ। इसमें विभाग के मंत्री से लेकर उनके द्वारा नियुक्त अधिकारियों और कर्मियों का हाथ बताया जा रहा है। सरकार ने कुछ दिनों तक तो सख्त दिखायी, उसके बाद जांच की बात कहकर आगे बढ़ गई। सवाल यह है कि जब सरकार को घपले-घोटाले का पता चल गया तो मंत्री और उनसे जुड़े अधिकारियों पर कार्यवाही क्यों नहीं हुई ?

ठीक ऐसा ही सवाल आधी आबादी से जुड़े मंत्रालय से भी जुड़ा है। इस मंत्रालय के हाल चार साल से बेहाल हैं। यहां विभागीय मंत्री रेखा आर्य के साथ शासन और विभाग के अधिकारियों का तालमेल ही नहीं बन पा रहा है। बने भी कैसे, विभाग के कामकाज में मंत्री से अधिक उनके पति का दखल है। विभाग और शासन के अधिकारी विभागीय कामकाज में मंत्री पति के दखल से परेशान हैं। अफसर एतराज जताते हैं तो मंत्री नाराज हो जाती है ।

हाल यह है कि कोई भी ईमानदार अधिकारी, मंत्री के साथ काम करने को तैयार नहीं है। हद तो उस वक्त हो गई जब मंत्री ने अपने विभागाध्यक्ष वी षणमुगम की गुमशुदगी दर्ज करने के लिए पुलिस को पत्र लिख दिया।
दरअसल विभाग में मानव संसाधन से जुड़े एक टेंडर में विभागीय मंत्री को विभागाध्यक्ष की पारदर्शिता रास नहीं आयी।

विभागाध्यक्ष ने मंत्री की इच्छा के विपरीत टेंडर नियमानुसार फाइनल कर दिया तो मंत्री ने उन पर सिर्फ भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगाया बल्कि फोन न उठाने पर उनकी गुमशुदगी के लिए पत्र भी लिख डाला। बता दें कि वी षणमुगम राज्य के उन चुनिंदा ईमानदार आईएएस अफसरों में से है जिनकी ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा पर कोई शक नहीं कर सकता। आश्चर्यजनक तो यह है कि मुख्यमंत्री की जानकारी में पूरा प्रकरण होने के बावजूद षणमुगम के विरुद्ध ही जांच बैठाई गई।

जांच में षणमुगम को क्लीन चिट मिल जाती है और विभाग से उन्हें हटाकर उनके स्थान पर मंत्री के चहेते अफसर को नियुक्त कर दिया जाता है। अब हाल यह है कि जैसा विभागीय मंत्री चाह रही हैं वैसा हो रहा है। अब मंत्री के मुताबिक खरीद भी हो रही है और टेंडर भी। सवाल यह उठता है कि षणमुगम जैसे अधिकारी के मान सम्मान की रक्षा क्यों नही हुई ?

राज्य में प्रशासनिक अराजकता देखिए, मुख्य सचिव तक के आदेश विभागों के लिए कोई मायने नहीं रखते। एक ओर मुख्य सचिव कहते हैं कि किसी भी विभाग में मानव संसाधन आउटसोर्स से नहीं रखा जाएगा मगर स्पष्ट शासनादेश के बावजूद विभागों में आउटसोर्स से भर्तियां की जा रही हैं । और देखिए, हाल ही में मुख्यमंत्री ने देहरादून स्थित कमिश्नर के कैंप कार्यालय का औचक निरीक्षण किया तो पता चला कमश्निर कैंप कार्यालय तो कमिश्नर का पीए चला रहा है। कमिश्नर तो थे ही नहीं,

इस कार्यालय में आधे से ज्यादा कर्मचारी भी नदारद थे। मौके पर तमाम खामियां पाई गई, कमिश्नर कार्यालय के कर्मचारी मुख्यमंत्री को संतोषजनक जवाब तक नहीं दे पाए। ठीक इससे पहले कि एक घटना वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज से जुड़ी है। वे एक पूर्व निर्धार कार्यक्रम में बागेश्वर पहुंचे जहां जिलाधिकारी और पुलिस कप्तान को भी पहुंचना था। दोनों ही अधिकारी कार्यक्रम में उपस्थित नहीं हुए, बात मुख्य सचिव तक भी पहुंची लेकिन एक्शन जीरो।

दरअसल मुद्दा इसी सुशासन का तो है मगर सुशासन की उम्मीद उस सिस्टम से की भी कैसे जा सकती है जो इस कदर संवेदनहीन हो कि सत्ता पक्ष के ही वरिष्ठ विधायक के निधन पर उसे राजकीय सम्मान देना भूल जाए। जी हां, वरिष्ठ विधायक सुरेंद्र सिंह जीना के दिल्ली में निधन होने और कोरोना रिपोर्ट नगिेटिव होने के बावजूद उनकी अत्येष्टि राजकीय सम्मान के साथ नहीं हुई।

यह विडंबना नहीं तो क्या है, दिल्ली में उत्तराखंड की अपनी एक बड़ी अवस्थापना है सालाना जिस पर करोड़ो रुपया खर्च होता है मगर यह उत्तराखंड की जनता या जनप्रतिनिधियों के लिए नहीं बल्कि सत्ता का केंद्र बने चंद अफसरों के लिए है। दिल्ली के सरकारी आवासों से लेकर गेस्ट हाउसों तक पर इन्हीं अफसरों और उनके चहेतों का कब्जा है, कुछ ही अफसरों के कब्जे में देहरादून से दिल्ली तक की व्यवस्थाएं क्यों, यह पूछने-सुनने वाला कोई नहीं। कोरोनाकाल तक में दिल्ली की अवस्थापना का राज्य के लोगों को लाभ नहीं मिला। जब भी सवाल उठे तो सरकार ने जांच की बात कर इतिश्री कर ली। यह है सरकार का सुशासन।

सच्चाई तो यह है कि प्रदेश में सुशासन का तो सिर्फ स्वांग है जिसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि सरकार राज्य का बजट जनता की राय से तय करने की बात करती है और बजट पर सुझाव आमंत्रित करती है, जबकि सच्चाई यह है कि राज्य के बजट में जनता की राय के कोई मायने ही नहीं, राज्य का बजट तो सिर्फ आमदनी और खर्च की व्यवस्था मात्र है।

सुशासन तो तब माना जाता जब सरकार भूमि कानून में संशोधन से पहले जनता की राय लेती, सही मायने में सुशासन होता तो नगर निकायों खासकर देहरादून नगर निगम के सीमा विस्तार, विधायक निधि में बढोतरी, देवस्थानम बोर्ड के गठन और गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित करने से पहले जनता की राय लेती। यही नहीं मुख्यमंत्री देहरादून को स्थायी राजधानी कहने संबंधी बयान देने से पहले जनता की राय मांगते।

सुशासन के स्वांग का एक उदाहरण सुशासन के नाम पर दिए जाने वाले पुरस्कार भी हैं। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुशासन पुरस्कार पाने के लिए अधिकारी कर्मचारियों को आवेदन करना पड़ता है। सरकार के पास कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि वह सुशासन देने वाले अफसरों की निष्पक्ष पहचान कर पाए। यहां पर यह व्यक्तिगत मत हो सकता है कि कोई भी कर्तव्यनिष्ठ पूरी निष्ठा के साथ काम करने के एवज में पुरस्कार पाने के लिए आवेदन नहीं करेगा।

खैर, विडंबना देखिए इस पुररस्कार में भी खेल होता है। जिन योजनाओं और परियोजनाओं के भविष्य पर सवाल हैं उनके नाम पर नौकरशाहों को सुशासन के पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है। दिलचस्प यह है कि पुरस्कार तय करने वाले खुद भी पुरस्कार हासिल करने वालों की सूची में शुमार होते हैं। पुरस्कारों की इस सूची में विषम परिस्थतियों में राज्य की अर्थव्यवस्था थामने वाले अफसर अमित नेगी, पौडी जिले में समग्र विकास का माडल देने वाले धीराज गर्ब्याल, प्रदेश के बागेश्वर, रूद्रप्रयाग और टिहरी जिलों में लोकप्रिय जिलाधिकारी रहे मंगेश घिल्डियाल और सीमांत चमोली में नवाचार व अपनी विशिष्ठ कार्यशैली के लिए जानी जाने वाली जिलाधिकारी स्वाती भदोरिया, हल्द्वानी में बेहद कम लागत में बायो डायवर्सिटी पार्क तैयार करने वाले संजीव चतुर्वेदी और इन जैसे और दूसरे अफसरों के नाम नहीं हैं।

बहरहाल चार साल का कार्यकाल पूरा करने जा रही त्रिवेंद्र सरकार पर इमेज का संकट खड़ा है। समाचार माध्यमों में विज्ञापनों और एडवरटोरियल के जरिए सरकार के सलाहकारों की टीम मुख्यमंत्री की इमेज बनाने की कोशिश में जुटी है। सरकारी खजाने से बेहिसाब मोटी रकम के साथ ही सरकारी संसाधन में इस काम पर खर्च की जा रही है, लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट यह है कि इमेज बिल्डिंग की तमाम कोशिशें नाकाम साबित हो रही हैं।

साभार :योगेश भट्ट (वरिष्ठ पत्रकार )

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