बारह ज्योतिर्लिंगों में सबसे महत्वपूर्ण केदारनाथ धाम देश के प्रमुख तीर्थस्थलों में शामिल है। 85 फुट ऊंचा, 187 फुट लंबा और 80 फुट चैड़ा देश के सबसे विशाल शिव मंदिरों में से एक बाबा केदारनाथ का मंदिर 3584 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर तीन तरफ से पहाड़ों से घिरा है। एक ओर है करीब 22 हजार फुट ऊंचा केदारनाथ, दूसरी ओर है 21 हजार 600 फुट ऊंचा खर्चकुंड और तीसरी ओर है 22 हजार 700 फुट ऊंचा भरतकुंड। केदार धाम में पांच नदियों का संगम भी है। मंदाकिनी, मधुगंगा, क्षीरगंगा, सरस्वती और स्वर्णगौरी। इन नदियों में से कुछ का अब अस्तित्व नहीं रहा, लेकिन अलकनंदा की सहायक मंदाकिनी यहां आज भी मौजूद है। आदि शंकराचार्य द्वारा 8वीं शताब्दी में स्थापित इस मंदिर के पास ही कल-कल करती मंदाकिनी नदी बहती है। केदारनाथ मंदिर को कटवां पत्थरों के भूरे रंग के विशाल शिलाखंडों को जोड़कर बनाया गया है। इसकी दीवारें 12 फुट मोटी हैं और बेहद मजबूत पत्थरों से बनाई गई है। मंदिर लगभग 6 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना है. इसका गर्भगृह अपेक्षाकृत प्राचीन है जिसे 80वीं शताब्दी के लगभग का माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में चारों कोनों पर चार सुदृढ़ पाषाण स्तम्भ हैं, जहां से होकर प्रदक्षिणा होती है। सभामंडप विशाल एवं भव्य है। उसकी छत चार विशाल पाषाण स्तम्भों पर टिकी है. विशालकाय छत एक ही पत्थर की बनी है। गवाक्षों में आठ पुरुष प्रमाण मूर्तियां हैं, जो अत्यंत कलात्मक हैं केदारनाथ !
पौराणिक कथा के अनुसार, हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है। माना जाता है कि एक हजार वर्षों से केदारनाथ पर तीर्थयात्रा जारी है। कहते हैं कि केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग के प्राचीन मंदिर का निर्माण पांडवों ने कराया था। बाद में अभिमन्यु के पौत्र जनमेजय ने इसका जीर्णोद्धार किया था। वक्त के साथ ये मंदिर लुप्त हो गया। बाद में 8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य ने एक नये मंदिर का निर्माण कराया।
400 सालों तक बर्फ में दबा रहा मंदिर
13वीं से 17वीं शताब्दी तक यानी 400 साल तक एक छोटा हिमयुग आया था जिसमें हिमालय का एक बड़ा क्षेत्र बर्फ के अंदर दब गया था. केदारनाथ मंदिर भी उसी में शामिल था। 400 साल तक बर्फ में दबे रहने के बाद भी मंदिर सुरक्षित रहा। हालांकि, वैज्ञानिकों के मुताबिक, जब बर्फ हटी तो उसके हटने के निशान मंदिर में मौजूद हैं। ये निशान ग्लेशियर की रगड़ से बने हैं। मंदिर में बाहर की ओर दीवारों के पत्थरों की रगड़ दिखती है तो अंदर की ओर पत्थर समतल हैं। मंदिर के कपाट खुलने का समय
दीपावली के दूसरे दिन के दिन शीत ऋतु में मंदिर के द्वार बंद कर दिए जाते हैं। 6 महीने तक यहां दीप जलता रहता है। इन 6 महीने मंदिर और उसके आसपास कोई नहीं रहता। लेकिन हैरानी की बात ये है कि इन 6 महीनों तक ये दीपक जलता रहता है और निरंतर पूजा भी होती रहती है। कपाट बंद करने के बाद पुरोहित भगवान के विग्रह एवं दंडी को 6 माह तक पहाड़ के नीचे ऊखीमठ ले जाते हैं। 6 महीने बाद मई माह में केदारनाथ के कपाट खुलते हैं तब उत्तराखंड की यात्रा आरंभ होती है।
केदारनाथ में चमत्कार, बचे रह गए नाथ, महाकाल के आगे प्रकृति ने भी मानी हार
यह चमत्कार नहीं तो क्या था…जिस आपदा ने पूरी केदार घाटी को तहस-नहस कर दिया था वो महाकाल के मंदिर को छू तक नहीं पाई थी। 15-16 जून 2013 की आपदा में केदारघाटी नष्ट हो गयी थी, लेकिन मंदिर को नुकसान तक नहीं पहुंचा था। ऐसा ही तब भी हुआ था जब 13वीं से 17वीं शताब्दी के बीच मंदिर बर्फ में दब गया था। 400 सालों बाद जब बर्फ हटी तो मंदिर अपने पुराने स्वरूप में ही मिला। चलिये केदारनाथ से जुड़ी कहानियों से आपको रूबरू करवाते हैं. केदारनाथ मंदिर का नेपाल के काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ से भी गहरा संबंध है। मंदिर की स्थापना को लेकर एक कहानी प्रचलित है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वरदान दिया। मंदिर को लेकर एक और कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने के बाद पांडव हत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन भगवान शिव पांडवों से नाराज थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। फिर वो उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वहां से अंर्तध्यान होकर शिव केदार में जा बसे। पांडव फिर भी उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच गए। पांडवों को देख भगवान शिव ने बैल का रूप धारण कर लिया और अन्य पशुओं में जा मिले। ये देख भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिये। अन्य पशु तो उनके नीचे से निकल गए, लेकिन शिव रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। ये देख भीम ने बलपूर्वक बैल को पकड़ने की कोशिश की, लेकिन बैल भूमि में अंतर्ध्यान होने लगे। तब भीम ने बैल के पीठ का भाग पकड़ लिया.भगवान शिव पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देखकर प्रसन्न हो गए. उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया. उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में केदारनाथ में पूजे जाते हैं.माना जाता है कि जब भगवान शिव बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमहेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुई। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं। प्रातःकाल शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। उसके बाद आरती की जाती है. इस समय श्रद्धालु मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार से सजाया जाता है। भक्त दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं। चारधामों में से एक केदारनाथ की बड़ी महिमा है। मान्यता है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बदरीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल होती है।
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