कश्मीर के प्राचीन इतिहास को समझने के लिए जो मिथकीय स्रोत उपलब्ध हैं उनमें छठी से आठवीं शताब्दी के बीच लिखे गए ‘नीलमत पुराण’ का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है
पौराणिक कथाओं या मिथकों को इतिहास का कोई प्रामाणिक स्रोत नहीं माना जाता. लेकिन दुनिया के हर हिस्से का लोक-समाज अपनी सांस्कृतिक पहचान को किसी-न-किसी ऐसी प्राचीन कथा से जोड़कर देखता ही है. भौतिकवादी धरातल पर ऐसी कहानियों की ऐतिहासिक पुष्टि मुश्किल होती है. लेकिन कुछ मिथक इतने प्रभावशाली होते हैं कि वे चाहे-अनचाहे अलग-अलग दौर के इतिहासकारों के मानस में प्रवेश कर जाते हैं. उपनिषदों से लेकर रामायण, महाभारत, बाइबिल और हदीसों की कहानियों तक के ऐतिहासीकरण का प्रयास होता रहा है. प्राचीन यूनान की कहानियां भी कई बार इतिहास की शक्ल में परोस दी जाती हैं, जबकि यूनानियों ने ही संभवतः पहली बार ‘लोगोस’ (सत्य अथवा तर्क या तथ्य आधारित ज्ञान) और माइथोस (अपुष्ट कथा-कहानियों) में शास्त्रीय भेद किया था.
यानी कि इतिहास को समझने के इंसानी प्रयासों की अपनी सीमाएं हैं और इतिहास वास्तव में कहीं-न-कहीं इन दोनों के बीच में ही पाया जाता है. इतिहास को अगर हम वर्तमान के आइने में समझने की कोशिश करेंगे, तो पाएंगे कि मौजूदा घटनाओं, परिघटनाओं और व्यक्तित्वों तक के बारे में पुष्ट-अपुष्ट और परस्पर-विरोधी तथ्यों, कहानियों और व्याख्याओं की भरमार होती है. ऐसे में समझा जा सकता है कि दो हज़ार साल बाद की पीढ़ी जब हमारे आज के वर्तमान को ठीक-ठीक समझने की कोशिश करेगी तो उसमें कितना तथ्य होगा और कितना कथ्य होगा.
कश्मीर के प्राचीन इतिहास को समझने के लिए जो स्रोत उपलब्ध हैं उनमें छठी से आठवीं शताब्दी के बीच लिखे गए ‘नीलमत पुराण’ का स्थान महत्वपूर्ण माना जाता है. बारहवीं सदी में कल्हण द्वारा लिखे गए प्रसिद्ध ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ में इसे ऐतिहासिक स्रोत के रूप में शामिल किया गया है. बाद में मुस्लिम इतिहासकारों, जैसे- चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी में हुए नुरूद्दीन (जिन्हें नुंद ऋषि भी कहा जाता है) के ग्रंथ ‘नूरनामा’ में भी इन कहानियों को थोड़े फेर-बदल के साथ कश्मीर के प्राचीन इतिहास के तौर पर अपनाया गया. अकबर के दरबारी इतिहासकार और ‘आइन-ए-अकबरी’ के लेखक अबुल फजल ने भी इन कहानियों को अपने इतिहास में स्थान दिया.
इसके बाद ख्वाजा मुहम्मद आज़म दीदामरी नाम के सूफी लेखक ने फारसी में ‘वाक़यात-ए-कश्मीर’ नाम से 1747 में एक किताब प्रकाशित की जिसकी कहानियां पौराणिक कथाओं की तर्ज पर लिखी गई थीं. उनके बेटे बेदियाउद्दीन ने भी इसी परंपरा को जारी रखा. कश्मीर के इतिहास-लेखन में इन कहानियों को शामिल करने की परंपरा आधुनिक इतिहासकारों तक जारी रही है, चाहे वह 1960 में प्रकाशित एचएच विल्सन द्वारा लिखित ‘दी हिन्दू हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर’ हो या फिर 1962 में पृथ्वी नाथ कौल बम्ज़ाई द्वारा लिखित ‘ए हिस्ट्री ऑफ कश्मीर’.
इन सभी पुस्तकों में मथुरा के कृष्ण का जिक्र आता है. नीलमत पुराण और राजतरंगिणी में एक प्रमुख कहानी महाभारतकालीन राजा गोनंद की है. कल्हण तो यहीं से अपना इतिहास शुरू करते हैं. इन ग्रंथों के मुताबिक कश्मीर का राजा गोनंद प्रथम कृष्ण का समकालीन था और वह मगध के राजा जरासंध का रिश्तेदार था. जब यमुना के तट पर कृष्ण और जरासंध का युद्ध चल रहा था तो गोनंद अपनी विशाल सेना के साथ जरासंध की मदद के लिए पहुंचा. गोनंद ने कृष्ण के किले पर कब्जा कर कृष्ण की घेराबंदी कर दी. लंबे समय तक गोनंद की सेना ने वीरता के साथ युद्ध किया, लेकिन आखिरकार गोनंद कृष्ण के भाई बलराम या बलभद्र के हाथों मारा गया.
गोनंद के बाद उसका बेटा दामोदर कश्मीर का राजा बना. वह कृष्ण से अपनी पिता की मौत बदला लेने के लिए आतुर था, लेकिन उसने सही मौके का इंतज़ार किया. थोड़े समय बाद सिंधु के तट पर गांधार के राजा ने एक स्वयंवर का आयोजन किया. इस स्वयंवर में कृष्ण ने भी अपने बाकी यदुवंशी सगे-संबंधियों के साथ भाग लिया. स्वयंवर के बाद जब दुल्हन को लेकर सभी लौट रहे थे, तो दामोदर ने इसे उपयुक्त अवसर मानकर कृष्ण पर आक्रमण कर दिया. इस आक्रमण की अफरा-तफरी में दुल्हन मारी चली गई और क्रोध में आकर दूल्हे और उसके साथियों ने दामोदर की सेना को पराजित कर दिया. कृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से दामोदर का अंत कर दिया.
लेकिन दामोदर की पत्नी यशोवती उन दिनों गर्भवती थी. कृष्ण ने यशोवती की चिंता दूर करने के लिए ब्राह्मणों को कश्मीर भेजा. कृष्ण ने यशोवती को कश्मीर की रानी बना दिया. यह बात दरबारियों को स्वीकार नहीं थी कि कोई महिला शासक बने. इन दरबारियों को शांत करने के लिए कृष्ण ने जो कहा उसका वर्णन नीलमत पुराण के इस श्लोक में मिलता है.
कश्मीराः पार्वती तत्र राजा ज्ञेयो हरांशजः।
नावज्ञेयः स दुष्टोपि विदुषा भूतिमिच्छता।।
पुंसां निर्गौरवा भोज्ये इव याः स्त्रीजने दृशः।
प्रजानां मातरं तास्तामपश्यन्देवतामिव।।
अर्थात् कश्मीर की धरती (कुछ अनुवादों के अनुसार कश्मीर की लड़कियां) पार्वती है. यह जान लो कि उसका राजा शिव का ही एक अंश है. वह यदि दुष्ट भी हो, तो भी विद्वतजनों को चाहिए कि राज्य के कल्याण के लिए उसका अपमान न करें. स्त्री को भोग की वस्तु माननेवाला पुरुष भले ही उसका सम्मान करना न जानता हो, लेकिन प्रजा उसमें अपनी माता या एक देवी को ही देखेगी.
कृष्ण के ऐसा कहने पर दरबारी या मंत्रीगण शांत हो गए और यशोवती को कश्मीर की रानी, देवी और प्रजा की माता की तरह मानने लगे. थोड़े समय बाद यशोवती ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम गोनंद द्वितीय रखा गया. बचपन में ही उसका राज्याभिषेक कर दिया गया. जब महाभारत का युद्ध लड़ा जा रहा था तो गोनंद द्वितीय बहुत छोटा था, इसलिए उसे कौरव या पांडव किसी की ओर से आमंत्रित नहीं किया गया. यही कारण है कि महाभारत युद्ध के दौरान विभिन्न राज्यों का जिक्र तो मिलता है, लेकिन कश्मीर का नहीं मिलता.
उल्लेखनीय है कि बाद में जब कश्मीर में वैष्णव धर्म का प्रसार हुआ तो वहां विष्णु के अवतार राम की पूजा का जिक्र देखने को नहीं मिलता, लेकिन गोपाल कृष्ण की पूजा देखने को मिलती है. राजा ललितादित्य जिनके शासनकाल को कश्मीर का स्वर्ण-युग कहा जाता है, उनके काल में बने मंदिरों और कलाकृतियों में भी गोपियों के बीच बैठे कृष्ण और यमुना इत्यादि का चित्रण मिलता है, लेकिन राम का नहीं मिलता. कल्हण ने अवश्य अपनी राजतरंगिणी में 35 वर्षों तक राज करने वाले गोनंद तृतीय को एक महान राजा बताते हुए उसकी तुलना अयोध्या के महान राजा राम से की है.
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