पूरे देश में सरसों के तेल और उसी अनुपात में बाकी खाद्य तेलों की बेतहाशा तेजी से बढ़ती कीमतों की वजह से पूरा देश स्तब्ध और परेशान है। लम्बी चुप्पी के बाद केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने मुंह खोला, तो लगा जैसे उनकी तकलीफों का मजाक उड़ाने के लिए बोले हैं। उन्होंने फ़रमाया कि कीमतों में यह वृध्दि इसलिए हुयी है कि सरकार ने खाने के तेलों में मिलावट पर रोक लगा दी है। इसके लिए लगता है वे केंद्र सरकार के 17 मई 2021 के उस गजट नोटिफिकेशन को आधार बना रहे थे, जिसमे खाद्य तेलों की पैकिंग, उनकी बिक्री और शुद्धता के बारे नए नियम, प्रावधान बनाये गए हैं। इस पर अभी सभी संबंधितों और आम जनो से राय माँगी गयी है। इस नोटिफिकेशन में अभी तक प्रचलित 2012 की उन छूटों को खत्म किया गया है, जिनके तहत अपने-अपने खाद्य तेल को बेचने के लिए ब्लेंडिंग करते समय उसमे किसी दूसरे स्वीकृत खाद्य तेल को 20 प्रतिशत तक की मात्रा में मिलाये जाने का प्रावधान था। मोदी सरकार और कृषि मंत्री का दावा है कि अब नए प्रावधानों के बाद यह “मिलावट” पूरी तरह रुक जाएगी — इसलिए भले तेल की कीमत थोड़ी बढ़ेगी, लेकिन उपभोक्ताओं को खाने के लिए अच्छा तेल मिलेगा और किसानो को भी बढ़ी हुयी कीमत मिलेगी। यह ठीक वैसी बात है, जैसी बिजली के निजीकरण के वक़्त कही गयी थी कि “अब अच्छी बिजली मिलेगी।”
असलियत क्या है, यह पिछले कुछ सप्ताहों में सरसों उत्पादक जिलों में आये एक ख़ास तरह के परिवर्तन से समझा जा सकता है। इन दिनों चम्बल में सरसों से उसका तेल निकालने वाले जितने भी एक्सपेलर (मशीन चलित कोल्हू) और मिल हैं, उनके सारे तेल को अडानी खरीद रहे हैं। मुरैना, भिण्ड, ग्वालियर वाले इधर के चम्बल में भी और धौलपुर, भरतपुर वाले उधर के चम्बल में भी। खुले तेल के व्यापार को पहले ही प्रतिबंधित किया जा चुका था। अब इस बाजार में अडानी कूद पड़े हैं, तो थोक व्यापार भी ठहर गया है। जगह-जगह स्थापित अडानी के कलेक्शन सेंटर्स पर यह तेल जमा हो रहा है। तेल के स्टॉक की ये मोनोपोली ही इन बढ़ी-चढ़ी कीमतों का मुख्य कारण है। ध्यान रहे, अभी यह सिर्फ शुरुआत है — इब्तिदा है। आगे आगे देखिये होता है क्या! आगामी कल में तेल का दाम कहाँ तक पहुंचेगा, यह अंदाज लगाना मुश्किल नहीं है। दुनिया भर में मोनोपॉली – एकाधिकार – कायम करने के बाद कंपनियां अपने उत्पाद की कीमतें किस तरह तय करती हैं और उसका खामियाजा कौन भुगतता है, इसके उदाहरण देश-दुनिया में बिखरे पड़े हैं, उन्हें गिनाने की जरूरत नहीं।
इस एकाधिकार को जायज ठहराने के लिए यह मुगालता देना कि इसका फ़ायदा किसानों को पहुंचेगा, उसकी सरसों और तिलहनों की उपज के दाम भी बढ़ेंगे, रेगिस्तान में मृग मरीचिका से प्यास बुझाने की उम्मीद जगाने जैसा है। अडानी के भंडारों में तेल की जमाखोरी उसे समय-समय पर बाजार में आपूर्ति की रफ़्तार को घटा कर उपभोक्ताओं की जेबें काटने का सामर्थ्य देगी, तो वहीँ पर्याप्त भण्डार की उपलब्धता के बहाने सरसों की मांग घटने की कृत्रिम स्थिति पैदा कर उसे पैदा करने वाले किसानों को ठेंगा दिखाएगी। यह सिर्फ आशंका भर नहीं है। कहीं भी कितना भी माल जमा करने की निर्द्वन्द्व छूट देने वाला क़ानून मोदी बना ही चुके हैं। इस बार केंद्र सरकार द्वारा एमएसपी की दरों की बेहद अपर्याप्त घोषणा के बावजूद उसके अगले ही दिन पक्के कारपोरेट समर्पित अखबार ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ के सम्पादकीय लेख में यह तर्क दिया भी जा चुका है। इस अखबार ने एमएसपी की इस मामूली वृध्दि पर स्यापा करते हुए सवाल खड़ा किया कि जब गैंहू और चावल का भण्डार पर्याप्त से अधिक जमा है, तो फिर एमएसपी में इतनी बढ़ोत्तरी भी क्यों की जानी चाहिए? बहरहाल दुकान जमाने के लिए अडानी और ऐसे ही दूसरे कार्पोरेटिये शुरू के एक-दो साल थोड़ी बहुत ज्यादा कीमतें दे भी सकते हैं। बाजार हड़पने का यह आदिम नुस्खा है। किन्तु जब पूरा वर्चस्व कायम हो जाएगा, तब उपज का क्या दाम मिलेगा, इसे ब्राजील के कॉफ़ी उत्पादक किसानो के अनुभवों के रूप में दुनिया देख चुकी है। भारत में भी ऐसे उदाहरण कम नहीं हैं। इसके बाद शुरू होगा तीसरा चरण : तेल देखो, तेल की धार देखो, चतुर अडानी का तेल का व्यापार देखो। शुरू होगी सरसों की ठेका खेती, जिसकी तार्किक परिणति यह होनी तय है कि कुछ समय के बाद किसान अपनी ही जमीन पर अडानी को सरसों पैदा करते हुए भी देखेगा।
17 मई का नोटिफिकेशन अभी तेल व्यापार और उसके बाद सरसों और तिलहनों की खेती में अडानी और उसकी नस्ल के भेड़ियों की निर्बाध आमद का खुला लाइसेंस है। कारपोरेट द्वारा, कारपोरेट के लिए, कारपोरेट की सरकारें किस तरह उनका वर्चस्व कायम करने के लिए कठपुतली बन क़ानूनी प्रावधान बनाती और तोड़ती-मरोड़ती है, इसका दूसरा उदाहरण शिवराज सरकार द्वारा 2 लाख मीट्रिक टन गेंहू की नीलामी के लिए जारी किये गए टेण्डर्स हैं। इन टेण्डर्स में बोली लगाने वाली कंपनियों के लिए जो शर्तें तय की गयी हैं, वे इस बिक्री को सिर्फ और केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए आरक्षित करने वाली हैं। इन शर्तों के मुताबिक़ कम-से-कम बोली एक लाख मीट्रिक टन खरीदने की लगाई जा सकती है, बोली वही लगा सकता है, जिसकी नेट वर्थ एक करोड़ से अधिक हो और जिसकी मासिक उत्पादन क्षमता कम-से-कम 25 हजार मीट्रिक टन हो।
इनका नतीजा यह निकलेगा कि मध्यप्रदेश की तकरीबन सारी आटा और मैदा मिलें देहरी के भीतर ही दाखिल नहीं हो पाएंगी। सरकार का यह दावा कि ऐसा करने से उसे ज्यादा दाम मिलेंगे — नीलामी शुरू होने से पहले ही झूठा साबित हो जाता है। शिवराज सरकार ने 2019-20 के 1840 रूपये प्रति क्विंटल की दर से खरीदे गए गेंहू की नीलामी का आधार मूल्य 1580 रुपया प्रति क्विंटल रखा है, जबकि छोटे और मझौले व्यापारी इसे 1900 रुपये प्रति क्विंटल पर खरीदने की पेशकश अभी से कर चुके हैं। जब सिर्फ दो ही कंपनियां इस नीलामी में बोली लगाने की हैसियत में होंगी, तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए कि बोली 1700 से पहले ही टूट जाये और दोनों मगरमच्छ आपस में आधा-आधा बाँट लें।
दरबारी पूंजीवाद इसी का नाम है। तीन कृषि कानूनों के जरिये मोदी की “ऑफ़ द कारपोरेट, बाय द कारपोरेट, फॉर द कारपोरेट” सरकार क्या करने जा रही है, यह उसका आरंभिक संकेत हैं। इस बात का एलान भी कि ये क़ानून सिर्फ किसानो के खिलाफ ही नहीं हैं, छोटे मंझौले व्यापारियों और नागरिकों की थाली के विरुद्ध भी हैं। इस बात का आव्हान भी कि अब सिवाय मिलकर लड़ने के कोई और दूसरा रास्ता नहीं है।
लेखक: बादल सरोज (संयुक्त सचिव )अ. भा. किसान सभा