उत्तराखंड से लगते नेपाल के सीमावर्ती जिलों में तेजी से जनसांख्यिकीय बदलाव (डेमोग्राफिक चेंज) हो रहा है। 20 जनवरी 2022 को जारी नेपाल की जनगणना में चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। यह बदलाव अचानक नहीं हुआ है। सुरक्षा एजेंसियां इसे सुनियोजित साजिश बताती हैं। इसे लेकर नेपाल के साथ ही भारत की भी चिंता बढ़ी है। सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार 2012 से 22 के मध्य के वर्षों में नेपाल का पूरा समीकरण बदला है। गोरखा की आबादी में तो 18,860 की कमी आई है। वहीं, भारत से लगते नेपाली जिले कैलाली और कंचनपुर की जनसंख्या वृद्धि दर सामान्य पहाडी जिलों के 0.93 के सापेक्ष 1.54 प्रतिशत अधिक है। इसी प्रकार कंचनपुर की वार्षिक वृद्धि दर 1.32 प्रतिशत दर्ज की गई है। नेपाल के केंद्रीय सांख्यिकी विभाग के अनुसार 2012 में कैलाली की जनसंख्या सात लाख 75 हजार 709 थी। अब यह बढ़कर नौ लाख 11 हजार 155 तक पहुंच गई है। यानी कुल एक लाख 35 हजार 446 आबादी बढ़ी। ठीक इसी प्रकार कंचनपुर की जनसंख्या चार लाख 51 हजार 248 से बढ़कर पांच लाख 17 हजार 645 हो गई है। 10 साल में इस प्रमुख सीमांत जिले की आबादी में 66 हजार 397 की वृद्धि दर्ज की गई है। सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार भारत से लगते नेपाली जिलों में आए जनसांख्यिकीय बदलाव में अहम वजह पलायन है। नेपाल के मूल निवासी पलायन कर दूसरे शहरों में काम के लिए गए। लेकिन एक समुदाय विशेष ने पहाड़ का रुख कर वहां के संसाधनों पर कब्जा जमा लिया। बीते 10 वर्षों में इन्होंने खुद को इतना सक्षम बना लिया कि सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक व्यवस्था को भी प्रभावित करने लगे हैं। सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार, पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आइएसआइ नेपाल के रास्ते उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल में सक्रिय है। जून 2000 में भी भारत-नेपाल सीमा पर तेजी से बन रहे धर्म विशेष के स्थलों से सावधान रहने की चेतावनी जारी गई थी। अब नेपाली जिलों में तेजी से आए बदलाव सतर्क करने वाले हैं।
भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार बांग्लादेश, बिहार, नेपाल, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के मध्य सुनियोजित तरीके से धर्म विशेष के लिए गलियारा तैयार किया जा रहा है। साजिश पाकिस्तान को इस गलियारे से जोडने की है। इसमें बीते 10 वर्षों में शरणार्थियों के नाम पर बड़ी आबादी इस गलियारे में शिफ्ट भी की गई है। सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार, योजना के तहत धर्म विशेष के शिक्षण संस्थानों को उन्हीं क्षेत्रों में ज्यादा खोले जा रहें है जो सामरिक रूप से अहम हैं। इसी श्रेणी में उत्तराखंड के पिथौरागढ़, ऊधम सिंह नगर व चंपावत भी आते हैं। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर व बस्ती मंडल को भी इसी क्रम में चुना गया है। नेपाल हमारा मित्र राष्ट्र है। उससे रोटी-बेटी के मधुर संबंध हैं। लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर अब हमें अलर्ट होना होगा। नेपाल को भारत से बेहतर सहयोगी और दोस्त कहीं नहीं मिलेगा। लेकिन ओली सरकार में वहां जिस तरह से चीन व पाकिस्तान की दखल बढ़ा वह आने वाले दिनों में गंभीर समस्या बन सकता है। पिछले 10 वर्षों में लगभग 400 मस्जिदें और मदरसे बने हैं। रिपोर्ट से यह व्याख्या सामने आने पर क्षेत्रीय लोगों की चिंता बढ़ गई है और उनका शक है कि क्षेत्र को चिन्हित करके यहाँ योजनाबद्ध तरीके से मुस्लिम आबादी बढ़ाई जा रही है।उत्तराखंड राज्य के कई क्षेत्रों में भारी मात्रा में मुस्लिम आबादी की बसावट के कई मामले सामने आते रहे हैं। इसी विषय में अब इस क्षेत्र से एक नया खुलासा सामने आया है। स्थानीय लोगों का कहना है कि क्षेत्र में पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिम आबादी बढ़ गई है। रिपोर्ट से यह भी सामने आया है कि यह बसावट बांग्लादेश से लेकर पाकिस्तान तक जाने वाले जीटी रोड के दोनों तरफ कराई जा रही है। स्थानीय लोगों का मानना है कि यह बसावट योजनाबद्ध तरीके से और तेज़ी से कराई जा रही है। उत्तराखंड के कई क्षेत्र जैसे कि बनबसा, जौलजीबी पिथौरागढ़ धारचूला, खटीमा,झूलाघाट इत्यादि में मस्जिदें और मदरसे भारी संख्या में बनाए जा रहे हैं। इसके साथ ही उत्तर प्रदेश के भी कई क्षेत्रों जैसे की बस्सी, बहराइच, गोरखपुर इलाकों में भी पिछले कुछ वर्षों में मुस्लिम आबादी और मस्जिद मदरसों दोनों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है।बता दें कि इन दोनों राज्यों के ये सभी क्षेत्र भारत के पड़ोसी देश नेपाल की सीमा से सटे हुए हैं। सुरक्षा की दृष्टि से देखा जाए तो यह एक गंभीर मामला है।
उत्तराखंड-नेपाल की सीमा से लगे गांवों से हो रहे पलायन और यहाँ जमीन की खरीद-फरोख्त पर खुली छूट बन सकता है कारण
उत्तराखंड में समुदाय विशेष की आश्चर्यजनकरूप से बढ़ती जनसंख्या एक लमो समय से लोगों के बीच चर्चा का विषय है। अतिक्रमण और लैंड जिहाद के मुद्दों पर स्थानीय लोगों के आक्रोश के बाद दबाव में आई राज्य सरकार भी अब मामले में गंभीर नजर आ रही है। सम्भावना जताई जा रही है कि आने वाले दिनों में धार्मिक स्थानों पर चार से पाँच किलोमीटर के दायरे को धार्मिक क्षेत्र घोषित किया जा सकता है और वहाँ जमीन की खरीद-फरोख्त पर भी प्रतिबंध लग सकता है।दरअसल उत्तराखंड शासन के संज्ञान में आया है कि प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में एक धर्म विशेष की जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि होने से कई स्थानीय निवासी अपने क्षेत्रों से पलायन करने को मजबूर हो गए हैं। इसके अलावा सांप्रदायिक माहौल भी विषय है उत्तराखंड राज्य को अस्तित्व में आए लगभग 22 साल हो गए हैं लेकिन आज भी दूर दराज के कई गांव ऐसे हैं जो मूलभूत सुविधाओं के लिए भी तरस रहे हैं। ऐसा ही एक गांव है थपलियाल खेड़ा जो चम्पावत ज़िले के नेपाल-भारत सीमा पर स्थित है। ये गांव तीन तरफ से नेपाल सीमा से घिरा हुआ है और एक तरफ भारत का टनकपुर डैम है। इस गांव के लोग ज़रूरी सुविधाओं के लिए पूरी तरह से नेपाल पर निर्भर हैं। भारत और नेपाल के बीच सीमा विवाद एक बार फिर से सुर्खियों में है।
दरअसल उत्तराखंड के लिपुलेख में भारत की सड़क लंबी करने की घोषणा को लेकर नेपाल ने भारत को चेतावनी जारी करते हुए इसे तुरंत रोकने को कहा है। नेपाल उत्तराखंड स्थित लिपुलेख को अपना इलाका बता रहा है। भारत, नेपाल और चीन की सीमा पर मौजूद 338 वर्ग किलोमीटर में फैला यह इलाका गुजरात की राजधानी गांधीनगर से भी बड़ा है। बंजर पड़े खेत और खंडहर में तब्दील होते मकान ही यहां दिखाई पड़ते हैं। घरों में बंद दरवाजों में लगे ताले पलायन की पीड़ा को बयां करते हैं। केवल मकसून ही नहीं बल्कि इंडो नेपाल सीमा के बाकी गांवों से भी तेजी से पलायन हो रहा है। यह हाल तब है, जब सीमांत गांवों का पलायन रोकने के लिए सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है। भारत नेपाल की सीमा खुली हुई है। पिलर के अलावा सीमा पर बहने वाली शारदा नदी ही दोनों देशों का सीमांकन करती है। कई जगहों से पिलर गायब हो गए हैं। जिस वजह से नो मैंस लैंड पर नेपाल की ओर से अतिक्रमण हो रहा है। खुली सीमा का फायदा कई बार आपराधिक तत्व भी उठाते हैं और नदी पार कर भारत में पहुंच जाते हैं। लेकिन सीमा पर स्थित गांवों के वाशिंदे सुरक्षा प्रहरी की भूमिका निभाते हुए तस्करों और गलत तत्वों की जानकारी पुलिस प्रशासन के पास पहुंचाने का काम भी बखूबी करते हैं। लेकिन अब जब सीमा पर बसे गांव पलायन की वजह से खाली हो रहे हैं तो घुसपैठ जैसी अहम जानकारियां पुलिस प्रशासन तक पहुंचना कठिन होगा।मकसून गांव के समीप स्थित गांव के रहने वाले उदासी भरे लहजे में कहते हैं कि सीमा पर स्थित गांवों से बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। आजादी के 70 साल बाद भी इन गांवों में सड़क, बिजली, पानी, चिकित्सा, शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं तक नहीं पहुंच सकी हैं। सुविधाओं के अभाव में गांव खाली हो रहे हैं।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय )
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