वनाग्नि की घटनाओं से संरक्षित प्रजातियों के वन्यजीवों व पेड़-पौधों को खतरा बढ़ गया है। पारिस्थितिकीय असंतुलन की ओर संकेत कर रही वनाग्नि पर पर्यावरणविद् भी चिंतित हैं। वन विभाग केवल जंगल जलने की ही गणना कर रहा है। विभाग के पास न तो संरक्षित प्रजाति के पेड़-पौधों, कीट पतंगों को हुए नुकसान के आंकड़े हैं और न ही वन्यजीवों के। वनाग्नि के दौरान गुलदार, सूअर, बंदर जंगलों से भागकर लगातार बस्तियों का रुख कर रहे हैं। इससे मानव-वन्यजीव संघर्ष भी बढऩे लगा है।
इस साल कुमांऊ क्षेत्र में अब तक आग की 345 घटनाओं में 573.94 हेक्टेयर जंगल खाक हो चुके हैं। वन विभाग ने अब तक कुल 16 लाख 43 हजार 870 रुपये के नुकसान का आंकलन किया है। कुमांऊ में अल्मोड़ा में दो हेक्टेयर और बागेश्वर जिले में 0.34 हेक्टेयर पौधारोपण वनाग्नि की भेंट चढ़ चुका है। जंगल की आग से पिथौरागढ़ जिले में एक व्यक्ति घायल व एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है। पहाड़ी जिलों में ही 28 हजार 697 नाली वन आग की भेंट चढ़ चुके हैं। वन विभाग के आंकड़ों में केवल एक पेड़ को ही नुकसान पहुंचने से उसकी संवेदनशीलता स्पष्ट हो रही है।कुमांऊ के 16 प्रतिशत हिस्से में चीड़ के जंगल हैं। यहां करीब 11 मीट्रिक टन पिरूल (चीड़ की पत्तियां) गिरता है। फरवरी के आखिर में ही इसका गिरना शुरू हो जाता है। इसके प्रबंधन की कोई योजना नहीं होने से वनाग्नि की घटनाएं बढ़ती हैं। राज्य में प्रतिवर्ष 1978 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग से झुलस रहा है।जंगल में 90 फीसद हिस्सा कीटों के संसार का है। चौड़ी पत्ती वाले वनों में सबसे अधिक यही जीव जले हैं।
जूलोजिकल सर्वे आफ इंडिया व भारतीय वन्य जीव संस्थान जीव जंतुओं के आंकलन में लगी हैं। हिमालयी क्षेत्र में जैव विविधता खतरे में है। वनाग्नि से काले कार्बन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे तापमान में वृद्धि हो जाती है। ग्लेशियर तेजी से पिघलने लगते हैं। अभी फायर सीजन के दो माह ही बीते हैं, वहीं जंगलों में आग की घटनाएं रिकार्ड तोड़ रही है। हालात चिंताजनक हैं। यह पर्यावरणीय खतरे की ओर गंभीर संकेत है। विभाग के पास पर्यावरण, वन्यजीव-जंतुओं को समझने वाले विशेषज्ञ भी होने चाहिए। इन दिनों छह राष्ट्रीय पार्क, सात अभयारण्य और चार कंजर्वेशन रिजर्व वाला उत्तराखंड जंगलों की आग से हलकान है। 71 फीसद वन- भूभाग वाले राज्य में जंगल सुलग रहे हैं। इससे वन संपदा को तो खासा नुकसान पहुंच ही रहा है, बेजुबान जानवर भी जान बचाने को इधर-उधर भटक रहे हैं। यही नहीं, वन्यजीवों के आबादी के नजदीक आने से मानव और इनके बीच संघर्ष तेज होने की आशंका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। ऐसे में जंगल की दहलीज पार करते ही उनके शिकार की भी आशंका है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार जंगलों में आग लगने के लिहाज से पीक सीजन माने जाने वाले समय में पांच हजार से ज्यादा वन प्रहरियों की छुट्टी के चलते, जंगलों की आग पर काबू पाने में वन विभाग को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। प्रहरियों के मानदेय देने के लिए बजट नहीं मिलने के कारण यह फैसला लिया बताया गया है। यह हाल तब है जब पलायन रोकने के इरादे से वन विभाग ने करीब 7 माह पहले सभी डिवीजनों में वन प्रहरियों की तैनाती की थी। इसमें स्थानीय युवाओं को वन और वन्यजीव संरक्षण, गश्त, जंगलों की आग बुझाने आदि में विभाग की मदद करनी थी। उन्हें 8 हजार रुपये प्रतिमाह मानदेय दिया जा रहा था। इसके लिए कैंपा से बजट की व्यवस्था की गई थी। तब इसके पीछे इस पहाड़ी राज्य में पलायन रोकने और युवाओं को वन संरक्षण के साथ ही गांवों के आसपास रोजगार देने की मंशा बताई गई थी। ऐसे में बड़ी संख्या में युवा शहरों में होटल, दुकानों की नौकरी या अपने छोटे-मोटे काम धंधे छोड़कर वन प्रहरी बन गए थे। लेकिन 31 मार्च को सभी की सेवाएं समाप्त कर दी गईं। इसके पीछे कैंपा के बजट की वित्तीय वर्ष 2021-2022 तक ही स्वीकृति मिलना बताया गया। लेकिन सरकार के इस रवैये से एक झटके में ही पांच हजार से ज्यादा युवा पूरी तरह से बेरोजगार हो गए।
उत्तराखंड का पिछले वर्षों का अनुभव बताता है कि आम लोगों की भागीदारी के बिना जंगलों को आग से बचाना संभव नहीं है। आग लगने पर आसपास के गांवों के लोग भारी संख्या में आग बुझाने पहुंचते थे। वे पेड़ों की हरी टहनियों के झाड़ू बनाकर आग बुझाते थे। यह एक सामाजिक कार्य माना जाता था और हर समर्थ परिवार का इसमें शामिल होना आवश्यक होता था। जंगलों की आग बुझाने के सामूहिक प्रयास को ’झापा लगाना’ कहा जाता था। लेकिन जब से राज्य के लोगों को जंगलों में हक-हकूकों से वंचित किया गया, जंगलों से सूखी लकड़ी और चारा पत्ती लाने तक की मनाही कर दी गई, तब से लोग जंगलों से दूर हो गये और साल दर साल ज्यादा जंगल आग की भेंट चढ़़ने लगे। इसी सब को देखते हुए, राज्य सरकार ने लोगों को फिर से जंगलों की सुरक्षा से जोड़ने के नये तरह के प्रयास शुरू किये थे। इस कड़ी में मुख्यमंत्री ने राज्य में 10 हजार (5 हजार महिला) वन प्रहरी भर्ती की घोषणा की थी। इंसानी और जंगली जीवों के लिए जंगल सबसे अहम है, देश में जल और जंगल का संकट हमारे लिए विचारणीय बिंदु है। आजादी के कई वर्षो बाद हमने इस तरह का कोई ऐसा तंत्र नहीं विकसित किया, जिससे इस तरह की आपदाओं से निपटा जाए।
डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
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