वनों के विनाश के कारण प्रकृति में असंतुलन पैदा हो रहा है। सबसे बड़े उदाहरण के रूप में उत्तराखंड की त्रासदी है। जिसमें लाखों लोगों ने अपने प्राण गवा दिए थे। अगर मानव जीवन को सुरक्षित रखना है तो वन संपदा को सुरक्षित रखना बहुत ही जरूरी है। बिना वन के जीवन संभव नहीं है . इसी ज्वलंत मुद्दे पर पढ़िए डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला का ये लेख।

देहरादून, 21 मार्च : विषम भूगोल और 71.05 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में कोई भी योजना अथवा परियोजना बगैर वन भूमि के संभव नहीं है। अब तक की तस्वीर तो यही बयां कर रही है। विभिन्न योजनाओं, परियोजनाओं के लिए प्रतिवर्ष ढाई से तीन हजार हेक्टेयर वन भूमि का हस्तांतरण हो रहा है और 30 से 40 हजार पेड़ कट रहे हैं। इसके अलावा फायर सीजन के दरम्यान आग से वन संपदा को भारी क्षति पहुंच रही है। बावजूद इसके आग से वन संपदा को पहुंचने वाली क्षति के मानक और क्षतिपूरक वनीकरण की तस्वीर हैरत में डालने वाली है। स्थिति ये है कि क्षतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि नहीं मिल पा रही है। हालांकि, विशेषज्ञों का कहना है कि विकास और जंगल में सामंजस्य जरूरी है, लेकिन इसमें एक सीमा तक ही समझौता होना चाहिए। साथ ही क्षतिपूरक वनीकरण को प्रभावी नीति बनाने की आवश्यकता है।यह किसी से छिपा नहीं है कि पर्यावरण संरक्षण में उत्तराखंड के जंगल महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

उत्तराखंड में 150 करोड़ रुपए से अधिक लागत की 32 परियोजनाओं पर काम चल रहा है, जिनके लिए बड़ी तादात में पेड़ काटे जा रहे हैं इनमें चारधाम परियोजना, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन परियोजना, जौलीग्रांट एयरपोर्ट विस्तार परियोजना, सड़क-परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की सड़कें चौड़ी करने, डबल लेन करने के प्रोजेक्ट, जलविद्युत परियोजनाएं शामिल हैं। केंद्रीय सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के मुताबिक इन परियोजनाओं की कुल अनुमानित लागत करीब 45,922.43 करोड़ रुपये है।

कुछ समय पहले राज्य सरकार ने आकलन कराया तो बात सामने आई कि उत्तराखंड प्रतिवर्ष करीब तीन लाख करोड़ की पर्यावरणीय सेवाएं देश को दे रहा है। इनमें अकेले वनों की भागीदारी 98 हजार करोड़ रुपये की है। साफ है कि वनों को बचाए रखने से ही यह संभव हो पाया है, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। वह है जंगलों पर निरंतर बढ़ता विकास और जैविक दबाव। राज्य में छोटी अथवा बड़ी कोई भी विकास योजना तब तक अस्तित्व में नहीं आ पाती, जब तक उसके लिए वन भूमि का हस्तांतरण न हो। परिणामस्वरूप प्रति वर्ष बड़े पैमाने पर जंगल की जमीन विकास योजनाओं के लिए दिए जाने से वहां पेड़ों का कटान भी हो रहा है। हालांकि, इसके लिए विकासकर्ता अथवा विभाग नेट प्रजेंट वेल्यू के आधार पर वन भूमि की लागत चुकाते हैं। साथ ही हस्तांतरित भूमि पर खड़े एक पेड़ के एवज में 10 पौधे लगाने का प्रविधान है। ये बात अलग है कि वन भूमि हस्तांतरण में सिविल सोयम की भूमि पर अधिक फोकस होता है, लेकिन इस पर खड़े पेड़ों के एवज में क्षतिपूरक वनीकरण के लिए भूमि मिलना मुश्किल होने लगा है। उत्तराखंड प्रतिकरात्मक वन रोपण निधि योजना एवं प्रबंधन प्राधिकरण को दो साल में तीन हजार हेक्टेयर क्षेत्र में वनीकरण करना है, लेकिन उसे इसके लिए भूमि नहीं मिल पा रही है। फॉरेस्ट फायर के दरम्यान तबाह होने वाली वन संपदा के मामले में भी तस्वीर चौंकाती है। क्षति का सरसरी तौर पर आकलन होता है, लेकिन पर्यावरण तंत्र को पहुंचने वाली क्षति के आकलन का कोई प्रविधान ही नहीं है। पहाड़ों में वनों का दायरा लगातार घट रहा है, जिससे जंगलों से पलायन कर वन्य जीव शहरों की ओर आ रहे हैं। जंगली सुअर खेती को बर्बाद कर रहे हैं। जबकि तेंदुए हमला कर लोगों को अपना निवाला बना रहे हैं। कई प्रजातियां लुप्त होने की कगार पर है। जिसकी वन विभाग के पास कोई जानकारी तक नहीं हैं।पर्वतीय क्षेत्रों में विकास के नाम पर जंगलों का अंधाधुन कटान लगातार बड़ी समस्या बनती जा रही है। चाहे सड़क हो या फिर निर्माण कार्य इसके लिए जंगलों का कटान आम हो गया है।

विकास कार्यों के लिए पेड़ों के काटने की स्थिति में दोगुने से अधिक पौधरोपण का नियम है। उत्तराखंड सरकार इसका दावा भी करती है। मुश्किल ये है कि पौधरोपण होगा कहां? राज्य में क्षतिपूर्ति के तौर पर किए जाने वाले पौधरोपण के लिए जमीन उपलब्ध ही नहीं है।

काश्तकारों का कहना है कि‍ पर्वतीय इलाकों में जंगलों का विस्तार बढ़ने के बजाय लगातार कम हो रहा है। अपने निजी लाभ के लिए लोग चोरी छिपे वनों का दोहन कर रहे हैं। जंगली जानवरों को अब जंगल में न तो भोजन उपलब्ध हो पा रहा है और न ही सुरक्षा। भय और भोजन के मारे वन्य जीव अब बस्ती की ओर आने लगे हैं। सरकार को इस बारे में गहन चिंतन करना होगा।जंगलों में अवैध कटान लगातार जारी है। वन विभाग का अब नियंत्रण काफी कम होने लगा है। इमारती लकड़ी और जलावनी लकड़ी के लिए लगातार हो रहे कटान के चलते वनों का क्षेत्रफल लगातार कम हो रहा है। जंगली जानवर अब हिंसक बन गए हैं। पयरवरण के लिए तो खतरा है ही अब मानव और जंगली जानवरों के बीच हिंसक वारदातें खतरे की घंटी से कम नहीं है।ईंधन की जरूरतों के लिए जंगल काटने में उत्तराखंड में हिमालयी राज्यों में सबसे आगे है। यदि जल्द इस समस्या का समाधान नहीं निकाला गया तो तो यह पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील इस हिमालयी राज्य के लिए खतरनाक हो सकता है।  

भारतीय वन सर्वेक्षण विभाग की 2019 की रिपोर्ट में कहा गया है कि, उत्तराखंड में 2019 में 4076 टन लकड़ी का इस्तेमाल ईंधन के रूप में हुआ। रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि लकड़ी पर आत्मनिर्भरता से जंगलों पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है। इसी लिए सरकार एलपीजी और अन्य तरह के ग्रीन फ्यूल के इस्तेमाल पर जोर दे रही है। उत्तराखंड के 45 गांवों में अध्ययन के बाद ये रिपोर्ट तैयार की गई है।गैस के लगातार बढ़ रहे दाम उत्तराखण्ड के जंगलों पर भारी पड़ सकते हैं। इसलिए सरकार को जंगलों पर निर्भरता घटाने को पहाड़वासियों को मिट्टी का तेल और एलपीजी में विशेष सब्सिडी देनी चाहिए।एक किलो लकड़ी जलने पर निकलती है 129 मिग्रा. कार्बन मोनोऑक्साइड।पहाड़ की महिलाएं लकड़ी और पानी लाने में रोजाना सात घंटे खर्च करती हैं।चूल्हे में खाना पकाते समय निकलने वाली गैस से स्वास्थ्य पर पड़ता है बुरा असरएक चूल्हे में औसत एक घंटे में चार किलो लकड़ी जलने से ऐसे पदार्थ निकलते हैं जो 30 सिगरेटों के बराबर हैं।वन प्रदेश कहे जाने उत्तराखंड को वनों के स्वास्थ्य की भी चिंता करनी होगी। वनाग्नि से लेकर भू कटाव, लेंटाना, काला बांस आदि का बढ़ना, जल स्रोतों के सूखने, बांज, बुरांश और बुग्यालों पर संकट आदि मुख्य चुनौतियां हैं जिनका सामना प्रदेश के वनों को करना पड़ रहा है। वनों की सेहत से खिलवाड़ का कारण बन रही है। वन विभाग के मुताबिक इस तरह की खरपतवार का लगातार फैलाव हो रहा है। लेंटाना और काला बांस आदि को खत्म करने के लिए वन विभाग को लगातार बपना बजट भी बढ़ाना पड़ रहा है।स्वस्थ वनों के सामने एक चुनौती भू कटाव की भी है। शिवालिक में भू कटाव की दर सबसे अधिक पाई गई है। वनाग्नि के बढ़ते मामलों के कारण यह समस्या भी लगातार बढ़ रही है। मौसम में बदलाव के कारण बारिश के पानी से भू क्षरण बढ़ रहा है। प्रदेश में करीब 61 प्रतिशत वन वनाग्नि, भू कटाव सहित अन्य समस्याओं को लेकर अति संवेदनशील हैं। इसी तरह 36 प्रतिशत वन संवेदनशील पाए गए हैं। साफ है कि वनों की सेहत पर ध्यान नहीं दिया गया तो आने वाले समय में प्रदेश को अपनी बहुमूल्य वन संपदा का नुकसान उठाना पड़ सकता है।वनों पर दबाव बढ़ने से इनकार नहीं किया जा रहा है। प्रदेश में इस समस्या के समाधान के कोशिश उठाना भी है।

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय हर दो सालों पर स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट (2021) जारी करता है. पिछली रिपोर्ट 2019 में जारी की गई थी. 2021 की रिपोर्ट 1987 से शुरू हुई इस श्रंखला की 17वीं रिपोर्ट है.मोटे तौर पर ताजा रिपोर्ट में जंगलों के विकास की स्थिति सकारात्मक ही बताई गई है. 2019 से 2021 के बीच देश में जंगलों के इलाके में 1,540 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई. इसी के साथ देश में जंगलों का इलाका बढ़ कर 7,13,789 वर्ग किलोमीटर हो गया.यह देश के कुल भौगोलिक इलाके का 21.71 प्रतिशत है, जो 2019 के प्रतिशत (21.67 प्रतिशत) के मुकाबले बस थोड़ी से वृद्धि है. पेड़ों के इलाके में 721 वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी हुई है.

लेखक : डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला ( वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत  हैं )

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