डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला (दून विश्वविद्यालय)
जहां एक ओर उत्तराखंड की वित्तीय स्थिति ठीक नहीं है वहीं दूसरी ओर प्रदेश में लोकायुक्त के रिक्त पद के साथ ही बिना काम कर्मचारियों पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं। वादा क्यों भूली सरकार? उत्तराखंड में लोकायुक्त पर ‘रार’ उत्तराखंड गठन को भले ही दो दशकों से ज्यादा का वक्त बीत गया हो, लेकिन प्रदेश में अभी तक लोकायुक्त का गठन नहीं हुआ है. जिसके लिए दोनों की सरकारें जिम्मदार है. हालांकि प्रदेश में जिस तरीके से कुछ समय से लगातार भ्रष्टाचार के मामले उजागर हो रहे हैं,उससे लग रहा है कि वास्तव में लोकायुक्त की नियुक्ति उत्तराखंड में होती तो भ्रष्टाचार के मामलों पर कड़े फैसले आ सकते थे,और यही कुछ मनसा युवा भी कर रहे हैं कि यदि अगर उत्तराखंड में लोकायुक्त होता तो लोकायुक्त का डर कहें या फिर भ्रष्टाचार पर लोकायुक्त के कड़े प्रहार, भर्ती घपलों में भी इस तरीके के मामले सामने नहीं आते या फिर आते तो जल्दी से मामले निस्तारित हो जाते।
9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड राज्य गठन के बाद वर्ष 2002 में पहली बार लोकायुक्त का गठन हुआ। पहले लोकायुक्त के दौरान वर्ष 2004 में दून में लोकायुक्त का नेशनल सेमिनार आयोजित हुआ, जिसमें उत्तराखंड लोकायुक्त ने मेजबानी की। इस सेमिनार में देशभर के तमाम लोकायुक्तों के अलावा तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, तत्कालीन पीएम डा. मनमोहन सिंह ने भी शिरकत की थी। इसमें कर्नाटक की तर्ज पर दूसरे राज्यों में लोकायुक्तों पर पावर दिए जाने पर जोर दिया गया। उत्तराखंड का लोकायुक्त कार्यालय संभवतः देश का ऐसा पहला कार्यालय होगा, जो बिना कामकाज के चल रहा है। न सिर्फ कार्यालय संचालित किया जा रहा है, बल्कि इस पर सालाना करीब दो करोड़ रुपये वेतन आदि में खर्च भी किए जा रहे हैं। जानकारी के मुताबिक बिना काम खर्च का यह सिलसिला भी एक-दो साल से नहीं, बल्कि बीते 2013 से चल रहा है। बिना काम खर्च की यह हकीकत सामाजिक कार्यकर्त्ता विनोद जोशी की ओर से दायर किए गए आरटीआइ आवेदन के उत्तर में सामने आई।
आरटीआइ से प्राप्त दस्तावेजों के मुताबिक वर्ष 2000 में उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद 24 अक्टूबर 2002 को सैयद रजा अब्बास को लोकायुक्त बनाया गया था। वह वर्ष 2008 तक इस पद पर रहे और इसके बाद लोकायुक्त की जिम्मेदारी एमएम घिल्डियाल ने संभाली। वह सितंबर 2013 तक पद पर रहे। तब से यह कार्यालय लोकायुक्त विहीन चल रहा है। लोकायुक्त की मुख्य जिम्मेदारी भ्रष्टाचार से संबंधित शिकायतों को प्राप्त कर उनका निस्तारण करना है, लेकिन वर्ष सितंबर 2013 के बाद से यह काम ठप पड़ा है। वर्ष 2013 तक भो जो 15222 शिकायतें दर्ज की गई थीं, उनमें से 6927 शिकायतों का ही निपटारा किया जा सका था।
उत्तराखंड का लोकायुक्त कार्यालय में स्टाफ के वेतन से लेकर अन्य सभी प्रमुख मदों से अच्छा खासा बजट खपाया जा रहा है। बिना लोकायुक्त के चल रहे लोकायुक्त कार्यालय में कार्मिकों के वेतन पर ही सलाना करीब डेढ़ करोड़ रुपये का खर्च किया जा रहा है। इसके अलावा वाहनों के संचालन/अनुरक्षण, मजदूरी, फर्नीचर, कंप्यूटर आदि मदों में भी बजट का प्रविधान किया गया था जो वर्ष 2013 तक रहा। लेकिन, तब से लेकर अब तक उत्तराखंड में नए लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई। दरअसल, वर्ष 2013 में भाजपा सरकार के दौरान तत्कालीन सीएम ने जब दोबारा सीएम की कुर्सी संभाली तो उन्होंने स्टेट में पावरफुल लोकायुक्त की एक्सरसाइज की। सदन से पारित होने के साथ राष्ट्रपति तक भेजा गया। लेकिन चुनाव हो जाने के बार राज्य में आई कांग्रेस की सरकार ने कुछ संशोधन के साथ आगे बढ़ाने के प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिल पाई। ऐसे में तब से लेकर अब तक राज्य में करीब 10 साल से नए लोकायुक्त की नियुक्ति नहीं हो पाई है। जबकि पॉलिटिकल इश्यू के साथ राज्य आंदोलनकारी भी करप्शन पर ब्रेक लगाने के लिए लोकायुक्त की नियुक्ति की मांग कर रहे हैं।
लोकायुक्त का पद रिक्त होने की तिथि 01-11-2013 सेें सूचना उपलब्ध कराने की तिथि 11-10-2021 तक प्राप्त शिकायतों में 01-11-2013 से 31-12-2014 तक 422, वर्ष 2015 में 181, वर्ष 2016 में 97, वर्ष 2017 में 86 वर्ष 2018 में 54, वर्ष 2019 में 67 कोविड महामारी के वर्ष में भी 24 शिकायतें (परिवाद) तथा 2021 में (11 अक्टूबर तक) 19 शिकायतें मिली है। इस प्रकार कुल 1595 परिवाद (भ्रष्टाचार की शिकायते) लोकायुक्त के इंतजार में लंबित हैं। सूबे में लोकायुक्त की नियुक्ति कब होगी या नहीं होगी, यह प्रदेश सरकार पर निर्भर है।
बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष के द्वारा लोकायुक्त की आवश्यकता को लेकर दिए गए बयान के बाद अब देखना यही होगा कि आखिरकार जिन चर्चाओं को बल लोकायुक्त की आवश्यकता से नियुक्ति को लेकर मिल रहा है, क्या सरकार लोकायुक्त की नियुक्ति को लेकर फैसला लेगी और विधानसभा में लोकायुक्त का जो निर्णय रुका हुआ है,वह आगे बढ़ते हुए उस पर सरकार निर्णय लेगी यह देखना होगा।
लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 2013 की धारा 63 में कहा गया है कि संसद से इस क़ानून को पारित किए जाने के एक साल के भीतर सभी राज्य लोकायुक्त की नियुक्ति करेंगे. हालांकि कई सारे राज्यों ने इस नियम का उल्लंघन किया है. लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक 16 जनवरी 2014 को लागू हुआ था.इसी साल मार्च महीने में सुप्रीम कोर्ट ने सभी राज्यों से कहा था वे क़ानून के मुताबिक समयसीमा के अंदर लोकायुक्त की नियुक्ति करें.29 राज्यों और एक केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली में दायर की गई आरटीआई से ये पता चला है कि 6 दिसंबर, 2018 तक सिर्फ 23 राज्यों ने ही लोकायुक्त के लिए ऑफिस तैयार किया है. अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और तमिलनाडु ने लोकायुक्त क़ानून बनाया है लेकिन यहां अभी तक लोकायुक्त के लिए ऑफिस नहीं बन पाए हैं.ध्यान देने वाली बात ये है कि ज़्यादातर राज्यों ने लोकायुक्त क़ानून को ‘लोकपाल और लोकायुक्त विधेयक, 2013’ के आधार पर नहीं तैयार किया है.वहीं जम्मू कश्मीर, मिज़ोरम, मणिपुर और तेलंगाना जैसे राज्यों ने चार साल बाद भी लोकायुक्त क़ानून नहीं बनाया है. इसी तरह जिन 23 राज्यों ने लोकायुक्त क़ानून बना है उसमें से पांच राज्यों में लोकायुक्त के पद ख़ाली हैं. हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, पंजाब, उत्तराखंड और असम में लोकायुक्त के पद ख़ाली हैं।