पिछले वर्ष के सापेक्ष 30 प्रतिशत अधिक धधके जंगल

71 प्रतिशत वन क्षेत्र से आच्छादित उत्तराखंड के जंगलों के लिए आग काल बनी हुई है। पहाड़ों में लगातार सुलग रहे जंगल के रिहायशी इलाकों के लिए खतरा बन गए हैं।वन विभाग ने आग पर काबू पाने के लिए पूरी ताकत को झोंक दिया है, लेकिन आग की घटनाओं में कमी नहीं आ रही है। पिछले वर्ष की तुलना में अप्रैल में इस बार 30 प्रतिशत जंगल अधिक धधके हैं। जबकि, अभी फायर सीजन में डेढ़ माह से अधिक का समय बाकी है।उत्तराखंड में फायर सीजन 15 फरवरी से शुरू होने के बाद से ही जंगल सुलग रहे हैं। मार्च और अपै्रल में घटनाओं में खासी वृद्धि हुई। इसका प्रमुख कारण बारिश न होना और तापमान में अत्यधिक वृद्धि होने को माना जा रहा है।

सीजन में अब तक 1713 घटनाएं दर्ज की जा चुकी हैं। जिनमें 2785 हेक्टेयर वन क्षेत्र को नुकसान पहुंचा है। इसमें आरक्षित वन क्षेत्र में 1190 घटनाओं में 1993 हेक्टेयर जंगल जला। वहीं सिविल सोयम व वन पंचायतों के तहत 523 घटनाओं में 793 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग की भेंट चढ़ गया। केवल अप्रैल की बात करें तो इस बार अप्रैल में 1137 घटनाएं हुई हैं, जिनमें 1352 हेक्टेयर वन क्षेत्र राख हो गया।पिछले साल अप्रैल में यह 30 प्रतिशत कम रहा था। तब 843 घटनाओं में 978 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ था। प्रमुख वन संरक्षक का कहना है कि इस बार जंगलों में आग की चुनौती बढ़ गई है। बारिश न होने के कारण जंगलों में आग लगने की आशंका बढ़ गई। वन विभाग की ओर से तमाम संसाधनों के बल पर आग को काबू पाने का प्रयास किया जा रहा है।मौसम की बेरुखी के चलते मार्च सूखा बीता और उसके बाद अप्रैल में भी बारिश न के बराबर हुई। दून में 30 साल बाद यह पहला मौका है जब मार्च और अप्रैल तकरीबन बिना बारिश के गुजर गए।ऐसे में ज्यादातर जिलों में पारा भी सामान्य से कई डिग्री सेल्सियस तक अधिक बना रहा। जिससे मार्च मध्य से ही भीषण गर्मी पड़ रही है। मार्च में 12 साल बाद उत्तराखंड के ज्यादातर इलाकों में पारा औसत से चार से सात डिग्री सेल्सियस ऊपर रहा। वहीं, अप्रैल में पारे ने पुराने रिकार्ड ध्वस्त करते हुए नया कीर्तिमान स्थापित किया। बीते 13 वर्षों में यह अप्रैल सबसे गर्म रहा है। ज्यादातर मैदानी इलाकों में पारा 40 डिग्री सेल्सियस के करीब रहा। मौसम के इस रवैया जंगलों पर आग का कहर बरस रहा है। शुष्क मौसम और अधिक गर्मी के कारण जंगलों में आग तेजी से फैल रही है। मार्च में 96 प्रतिशत और अप्रैल में 91 प्रतिशत बारिश कम रही। हर साल अत्यधिक नुकसान पहुंचाने वाली इस आग पर नियंत्रण का दायित्व वन विभाग का बनता है।

छोटे से उत्तराखण्ड वन विभाग अफसरों की लंबी फौज से सुसजिजत है। यहां पर प्रमुख वन संरक्षक व मुख्य वन संरक्षक स्तर के शीर्षस्थ पद पर करीब 30 अफसर तैनात हैं। जबकि अविभाजित उ0प्र0 में कभी केवल एक मुख्य वन संरक्षक ही पूरा प्रदेश को संभाल लेता था। निचले स्तर पर कर्मचारियों की स्थिति बहुत बुरी है। रेंज, सेक्सन और बीट स्तर पर आज भी उतने ही कर्मचारी हैं, जितने करीब 30 साल पहले थे। काम की जिम्मेदारी बढ़ने के बाद भी रेंज, सेक्सन और बीटों का पुर्नगठन नहीं हुआ। जिससे निचले स्तर के कार्मिकों का अपने कार्यक्षेत्र पर नियंत्रण रखना संभव ही नहीं है। यही नहीं विभाग में दैनिक मजदूराें की संख्या इतनी अधिक है कि उनमें से कईयों का तो रिटायर होने तक भी स्थायी होने का नंबर नहीं आ पाता है। कई 40-50 साल की उम्र में स्थायी वन आरक्षी बन पाते हैं। विभाग में भर्ती के बाद से वन रेंजरों की नियुक्ति नहीं हुई थी, अब जाकर यह भर्ती 2014 से शुरू हुई है। इसी तरह सहायक वन संरक्षक की भर्ती 1984 के बाद से नहीं हुई है। संभवत: विभाग में भर्ती को लेकर कोई योजना है ही नहीं। यदि वनों की आग को वनों का कुप्रबंध वनों के उपजे अनियंनित्र कटान, वनों की तस्करी, वनों का निरंतर अवनतीकरण, वनों में बिगड़ते पारिस्थितिकी संतुलन से जोड़कर नहीं देखा जाता, वनों की आग से निजात नहीं पायी जा सकेगी। वनागिन को जब तक केवल आग, धुंआ, गर्मी को बढ़ाने वाला, प्रदूषण या अस्थमा को बढ़ाने वाली दुर्घटना समझने की सोच रहेगी इस पर उतनी गंभीरता से विचार नहीं होगा। इसलिए जब तक वनाग्नि से हुई सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, कृषि व पर्यावारणीय क्षति का निश्पक्ष रूप से आंकलन नहीं होगा तब तक वनाग्नि एक आयी-गयी बात हो कर ही रह जायेगी। 

प्रदेश के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा उत्‍तराखण्ड की वनोपज से आता है। लेकिन यहॉ के वनों की आमदनी का एक छोटा हिस्सा ही यहॉ के वनों की हिफाजत में खर्च हो रहा है। वन महकमे के हिस्से आने वाली रकम का ज्यादातर हिस्सा वन विभाग के अफसरों और कर्मचारियों की तनख्वाह वगैरहा में खर्च हो जाता है। प्रदेश का जंगलात महकमा यहॉ के जंगलों की आमदनी के मुकाबले वनों की हिफाजत, पौधा-रोपण और विकास के काम में नाम मात्र की रकम खर्चता है। यह रकम भी ईमानदारी के साथ जमीन तक नहीं पहुंच पाती है। सदियों से पहाड़ के देहाती इलाकों की समूची अर्थ व्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों पर ही निर्भर रही है। पर्वतीय समाज का पूरा जीवन चक्र वनों की उर्जा से घूमता था। ग्रामीण क्षेत्रों की ज्यादातर जरूरतें वनों से ही पूरी होती थी। वन यहॉ कें वाशिन्दों के जीवनाधार थे। लिहाजा यहॉ के लागों का वनों के प्रति भावनात्मक और आत्मीय लगाव था। वनों के संरक्षण के नाम पर थोपे गये तमाम अव्यवहारिक वन कानूनों ने पहाड़ के ग्रामीण समाज और वनों के बीच एक गहरी खाई पैदा कर दी है। वन कानूनों ने ग्रामीणों और वनों के बीच सदियों के रिश्तों में दरार पैदा करने का काम किया है। यहॉ के बाशिन्दों के वनों के प्रति दिनों-दिन कम होते लगाव को जानने-समझने की ईमानदार कोशिश और जंगलों से आम आदमी का पुराना रिश्ता कायम किये बिना जंगलों को आग और इससे होने वाले नुकसान से कैसे बचाया जा सकता है, इस बात का जवाब फिलहाल जंगलात महकमे के किसी अफसर के पास नहीं है। बात का जवाब फिलहाल जंगलात महकमे के के पास नहीं है।

डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला ( दून विश्वविद्यालय )