मुख्य संदर्भ में जाने से पूर्व थोड़ा बहुत गौलापार भाबर की कृषि अर्थव्यवस्था पर भी संक्षेप में प्रकाश डालना प्रासंगिक होगा। कुमाऊं अंचल के प्रवेश द्वार हल्द्वानी शहर से सटा हुआ गौलापार क्षेत्र खेती, बागवानी और पशुपालन की दृष्टि से बहुत समृद्ध माना जाता है। प्रशासनिक इकाई की दृष्टि से गौलापार क्षेत्र नैनीताल जनपद स्थित गौलापार क्षेत्र हल्द्वानी विकासखण्ड/तहसील के अन्तरगत आता है। काठगोदाम-हल्द्धानी शहर के किनारे बहने वाली गौला नदी के पार बसे होने के वजह से ही इस क्षेत्र का नाम गौलापार पड़ा। इसके उत्तर में भीमताल व ओखलकांडा विकास खण्ड की सीमाएं लगी हुई हैं जबकि दक्षिण में ऊधमसिंह नगर व पूर्व में चम्पावत जनपद की सीमा तथा पश्चिम में गौला नदी इसे काठगोदाम-हल्द्वानी महानगर व उससे संलग्न उपनगरीय संरचनाएं इस क्षेत्र को पृथक करती है।

स्थानीय पर्वतीय लोगों द्वारा जब भाबर प्रदेश को खेती और बसासत के लायक बना लिया तो आम बोलचाल में वे इस क्षेत्र को ’माल’ अथवा ’म्वाव’ के नाम से भी पुकारते थे। वस्तुतः ’माल’ शब्द यहां स्थानीय स्तर पर उपलब्ध होने वाले प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों ,समृद्ध खेती और दूध-घी की इफरात का पर्याय रहा होगा। वहीं ’म्वाव’ का आशय मुख द्वार/प्रवेश द्वार अथवा आंगन से लगाया जा सकता है भौगोलिक बनावट की दृष्टि से देखा जाय तो गौलापार सहित अन्य भावर प्रदेश की स्थिति पर्वतीय प्रदेश के लिए आंगन अथवा प्रवेशद्वार की तरह ही है। भाबर से सटे हुए पहाड़ के बहुत से काश्तकार लोग जाड़ों में घाम तापने के लिए अपने मवेशियों के साथ माल भाबर की तरफ चले आते थे। उस दौर में पहाड़ से आये लोग यहां छानियांे (झोपड़ी) में रहते हुए छुटपुट तौर पशुपालन व खेती का काम किया करते थे। मार्च के बाद जब गरमी शुरु हो जाती थी तो ये लोग पुनः पहाड़ लौट आते थे।

अस्थायी प्रवसन का यह दौर आज से छ -सात दशक पूर्व तक देखने को मिलता था परन्तु बाद में काश्तकार लोगों द्वारा यहीं पर स्थायी घर बना लिए जाने तथा आवागमन, संचार व अन्यान्य साधनों की सुविधा हो जाने के कारण यह परम्परा अब लगभग समाप्त सी हो गयी है। ब्रिटिश काल के दौरान भाबर के खेतों की सिंचाई के लिए काठगोदाम में गौला नदी में बन्ध बनाकर दो-तीन नहरें भी निकाली गयीं थीं। इसमें से एक नहर गौलापार के लिए भी बनायी गयी थी। यह नहर खेती के लिए वरदान तो साबित हुईं ही साथ में सिंचाई की सुविधा हो जाने से धीरे-धीरे यहां की पारम्परिक खेती के तौर तरीकों में भी बदलाव आने लगा। इसी दौर में यहां के निवासियों को थोड़ा बहुत स्कूल, अस्पताल और कच्ची सड़क जैसी सुविधाएं भी मिलने लगीं।

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गौलापार की खेती-किसानी निरन्तर रुप से समृद्धता की ओर कदम बढ़ाने लगी। पंचवर्षीय योजनाओं के क्रियान्वयन होने से देश के किसानों के साथ ही गौलापार भाबर के किसानों में भी जागरुकता का प्रसार होने लगा। फलस्वरुप यहां के काश्तकार खेती में उन्नत बीज, रासायनिक खाद व कीट नाशकों के प्रयोग करने, जुताई के लिए टैªक्टर का उपयोग करने तथा उन्नत नस्ल की गाय, भैंसों से दुग्ध उत्पादन करने की ओर उन्मुख होने लगे। आधुनिक कृषि प्रणाली के उपयोग की वजह से यहां की कृषि अर्थ व्यवस्था को मजबूत आधार मिलने लगा। काश्तकार लोगों की इसी अथक परिश्रम की बदौलत गौलापार क्षेत्र की खेती-किसानी को आज सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में विशिष्ट स्थान प्राप्त है।

इसी गौलापार क्षेत्र में कुंवरपुर के समीप 153 परिवारों का एक गांव है देवला मल्ला। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक इस गांव की कुल जनसंख्या 804 है। जिसमें 54.22 प्रतिशत हिस्सेदारी पुरुषों की है जबकि शेष 45.78 प्रतिशत हिस्सेदारी महिलाओं की है। हांलाकि हमेशा से इस गांव की पहचान यहां पैदा होने वाली मुख्य फसलों धान, गेहूं, चना, मक्का, सोयाबीन के अलावा प्याज, टमाटर, मटर व लहुसन जैसी नकदी सब्जियों के साथ ही आम, लीची व आंवला की पैदावार तथा प्रचुर दुग्ध उत्पादन के तौर पर रही है परन्तु इधर कुछ सालों से यहां के एक प्रगतिशील किसान योद्धा नरेन्द्र सिंह मेहरा के नाम से भी इस गांव की नई पहचान बन रही है। देवला मल्ला के इस किसान ने बगैर किसी बड़ी सरकारी योजना से मिले सहयोग के स्वंय की खोज,मेहनत, जुनून, और लगन की बदौलत उन्नत व जैविक खेती-किसानी के कई नये आयाम स्थापित करने में सफलता पायी है। वर्तमान में स्थानीय किसानांे से लेकर प्रदेश और बाहरी प्रदेशों के सैकड़ों किसान नरेन्द्र सिंह मेहरा की नई-नई खोजों व खेती में कारगर तमाम उन्नत तकनीकों से प्रत्यक्ष लाभ उठा रहे हैं। ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने की दिशा में उनके यह कार्य तमाम किसान भाईयों के लिए नजीर बनते जा रहे हैं।

खेती-किसानी के सन्दर्भ में नरेन्द्र सिंह मेहरा द्वारा किये गये कामों की चर्चा से पहले उनके व्यक्तित्व की जानकारी भी जान लेते हैं। कुमाऊं विश्वविद्यालय के नैनीताल परिसर से वर्ष 1983 में भूगोल विषय से परास्नातक की परीक्षा पास कर चुकने के बाद नरेन्द्र सिंह मेहरा ने इसी विश्वविद्यालय पर्यटन विषय में डिप्लोमा भी लिया है। पढ़ाई के बाद सरकारी नौकरी पाने के लिए दौड़-धूप भी की। दिल्ली स्थित एक संस्था को कुछ समय के लिए अपनी सेवाएं भी दीं लेकिन स्वाभिमानी प्रकृति व हरफन मौला अन्दाज के चलते यह नौकरी उन्हें रास नहीं आयी। दिल्ली की भागम-भाग जिन्दगी और नौकरी के बंधन के सापेक्ष उन्हें पुश्तैनी किसानी का कार्य कहीं अधिक श्रेयकर व सम्मानजनक लगने लगा सो वापिस गौलापार लौट आये और सामान्य तरीके से घरवालों के साथ में खेती में हाथ बंटाने लगे। खेती-किसानी के जरिये अपनी परिवार की जीविका चलाने के साथ ही वे अन्य किसानों की बेहतरी के लिए भी कुछ करने की जुगत में जुटने लगे। खेती-किसानी से हरदम सीखने की ललक उन्हें तरह-तरह के प्रयोगों की ओर प्रेरित करती रही। हर नयी फसल में उपज की मात्रा, रोगप्रतिरोधक क्षमता, गुणवत्ता व उसमें आयी लागत से प्राप्त आंकलन और प्रत्यक्ष अनुभव को वे लोगों के सामनेे रखने का प्रयास करते रहे। उन्नत खेती के टिकाऊ तौर-तरीकों को खुद अपनाकर अन्य किसानों को प्रोत्साहित करना उनकी खासियत रही है।

कृषि विज्ञान की डिग्री के बगैर भी अपने व्यावहारिक व शोधपरक प्रयोगों चलते उनकी छवि कुछ ही समय में एक प्रगतिशील किसान व कृषि विज्ञानी के तौर पर प्रतिष्ठित होने लगी। खेती में सफल प्रयोग करने तथा टिकाऊ व जैविक खेती को बढ़ावा देने जैसे कामों को देखते हुए देश-प्रदेश की कई संस्थाओं ने उनके काम को महत्व भी दिया है। नरेंद्र सिंह मेहरा ने जैविक खेती की दिशा में कार्य करके एक पौधे से 24 किलो हल्दी का उत्पादन किया है। नरेंद्र सिंह मेहरा ने उम्मीद जताते हुए कहा कि हल्दी अधिक उत्पादन देती है इसलिए इससे भविष्य में हजारों किसानों को अधिक आर्थिक लाभ मिल सकता है। बताते चलें कि इंटरनेट पर वायरल होने के बाद से नरेंद्र सिंह मेहरा को देश के कोने कोने से किसानों तथा कृषि विशेषज्ञों के फोन आ रहे हैं । इसके साथ ही नरेंद्र सिंह मेहरा का नाम  में दर्ज करने के लिए कहा गया है। प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा की ,जिसने कृषि क्षेत्र में एक और नयी उपलब्धि हासिल कर ली है।

बता दें कि नरेंद्र सिंह मेहरा ने हल्दी के एक पौधे से 24 किलो हल्दी का उत्पादन किया है । इसी कारण से आजकल नरेंद्र सिंह मेहरा चर्चा का विषय बने हुए हैं। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि एक किलो बीज से लगभग 10 – 12 किलो हल्दी का ही उत्पादन होता है, लेकिन नरेंद्र ने एक पौधे से 24 किलो हल्दी का उत्पादन किया है। उनके इस कारनामे ने किसानों तथा कृषि विशेषज्ञो को अचंभे में डाल दिया है। उनकी इस उपलब्धि पर लोग अचंभित होकर उनके घर हल्दी को देखने के लिए आ रहे हैं प्रगतिशील किसान नरेंद्र सिंह मेहरा ने एक बार फिर उत्तराखंड का मान बढ़ाया है। हरियाणा के फरीदाबाद में एक भव्य समारोह में नरेंद्र सिंह मेहरा को मैजिक बुक ऑफ रिकॉर्ड द्वारा सम्मानित किया गया। एक प्रयोगधर्मी किसान के रूप में अपनी पहचान बनाने वाले नरेंद्र मेहरा ने कृषि क्षेत्र में अनेक अभिनव प्रयोग किए हैं। गेहूं की एक नई प्रजाति नरेन्द्र 09 विकसित करने के साथ ही जैविक खेती के प्रति समर्पण के लिए डॉक्टरेट की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया है। इसी कार्यक्रम में उनके द्वारा हल्दी के एक पौधे से 25 किलो हल्दी उत्पादित करने का रिकॉर्ड भी उनके नाम दर्ज किया गया।

बताया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक यह रिकॉर्ड किसी के नाम दर्ज नहीं है। इसी आधार पर यह रिकॉर्ड नरेंद्र मेहरा के नाम दर्ज किया गया है। नरेंद्र मेहरा ने बताया कि विश्व स्तर पर जांच चल रही है यदि सब कुछ सही रहा तो यह विश्व रिकॉर्ड उनके नाम दर्ज हो जाएगा। गौलापार भाबर का यह प्रगतिशील किसान समय-समय पर स्थानीय पर्यावरण, खेती-किसानी व पशुपालन से जुड़े तमाम सामयिक व महत्वपूर्ण मुद्दों पर गोष्ठी, सेमिनार, परिचर्चा और वार्ताओं के माध्यम से भी सक्रिय रहता है। दूरदर्शन, टी.वी. चैनलों, रेडियो, अखबार व पत्रिकाओं के जरिये उनके विचार किसान भाईयों के बीच पहुंचते रहते हैं।कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्यों को देखते हुए नरेन्द्र सिंह मेहरा को समय-समय पर विभिन्न संस्थाओं से सम्मान भी दिया जा चुका है। विकासखंड स्तर पर ’किसान श्री सम्मान’ जी.बी.पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय पंतनगर द्वारा ’प्रगतिशील कृषक सम्मान’, भारतीय कृषि खाद्य परिषद द्वारा ’फाॅर्मरर्स लीडरशिप अवार्ड’ तथा रे फाउंडेशन मलेशिया की ओर से ’उत्तराखंड प्राइड अवार्ड’ जैसे कई सम्मानों से वे नवाजे जा चुके हैं । मेहरा को राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान का ’इनोवेटिव फार्मर्स अवार्ड’ मिला है। अनेक स्वयंसेवी संस्थाओं तथा विभिन्न मंचों से भी उन्हें सम्मानित किया गया है।