हिमाचल प्रदेश की तर्ज पर उत्तराखंड का विकास का दावा ठोकने वाले नेताओं को सबसे पहले यह समझना होगा कि हिमाचल आज स्थिति में उसे लाने का श्रेय वहां के परमार राजाओं को जाता है, जिन्होंने अपने निजी स्वार्थों का त्याग कर, स्वेच्छा से स्वयं को नवनिर्मित राज्य के विकास में झोंक दिया था। उनके द्वारा हिमाचल के लिए बनाई गई दूरदर्शी नीतियां ही थीं कि आज वहां के निवासी समृद्धि से परिपूर्ण है। दूसरी ओर इस प्रदेश के “ओजस्वी” नेता जो खुद को उत्तराखंड का खेवनहार मानते हैं, मगर सोच जो जातिवाद- क्षेत्रवाद से आगे नहीं पहुंच पाती और गलतफहमी ऐसी कि राष्ट्रीय स्तर भी छोटा पड़ जाए। ऐसे नेताओं के कुकृत्यों को ना तो कभी बद्री-केदार माफ करेंगे और ना गंगा-जमुना ह़ी धो पाएंगी।

पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी (2002) के कार्यकाल में एक अध्यादेश पास हुआ था, जिसके तहत समूह “ग” की सीधी भर्ती में मूल निवास की अनिवार्यता को दरकिनार करते हुए सेवायोजन कार्यालय पंजीकरण में स्थाई निवास किया जाना इस प्रदेश के मूल के निवासियों के अधिकार पर पहली चोट थी। तत्कालीन भाजपा सरकार को उसी समय मूल-निवास व स्थाई निवास के विषय में स्पष्ट निर्णय ले लेना चाहिए था। बागेश्वर से विधायक व तत्कालीन सरकार में काबीना मंत्री रहे नारायण रामदास की अध्यक्षता में एक कमेटी भी गठित की गई, जिसमें आरक्षण और मूल-निवास नीति पर महत्वपूर्ण निर्णय होना था, किंतु विवेक वह दूरदर्शिता का आभाव सामने आ गया और दोनों ही मुद्दे फाइल में बंद कर दिए गए। यदि उसी समय इन मुद्दों पर निर्णय ले लिया होता तो आज यह अनिश्चय का वातावरण तैयार ना होता और ना ही यहाँ की जनता आंदोलित होती।
राज्य स्थापना की प्रारंभिक वर्षों में सरकार ने पंतनगर विश्वविद्यालय व अन्य तकनीकी विश्वविद्यालय में प्रवेश के नाम पर स्थाई निवास प्रमाण पत्र की व्यवस्था की थी। जिसमें उन्होंने उन लोगों को जिनकी पिछले 3 वर्षों (1998, 1999,2000) से इस राज्य में अचल संपत्ति हो को स्थाई निवासी मान लिया गया। बस यही मामूली से अनिवार्यता उत्तराखंड के पर्वतीय युवाओं के अरमानों को धराशाई करने को काफी थी। असल में यह व्यवस्था उत्तर प्रदेश सरकार के समय से लागू थी मग़र पृथक राज्य की मांग के पीछे जो मूल अवधारणा जिसमें रोजगार (विशेषकर सरकारी नौकरी) एक महत्वपूर्ण प्रश्न था और जिस पर गहन संशोधन की आवश्यकता थी,किन्तु….मंजिले उन्हें मिली थी, जो राहे हमसफर ही ना थे ! तभी शायद वह इस प्रश्न की गहराई में चाह कर भी न पहुंच पाए।

तत्कालीन सरकार को मूल निवास, स्थाई निवास व अस्थाई निवास में विभेद करने में तकनीकी संकट हो रहा था मूल निवास पर उन्होंने चुप्पी साध रखी थी किंतु स्थाई निवासी को आधार बनाकर उन लोगों के लिए इतनी सरलता कर दी थी जो यहां के मूल निवासी नहीं थे। सरकार को चाहिए था कि वह नीतिगत निर्णय लेते हुए उन सभी लोगों को जो सन 1950 से यहां के संसाधनों व संस्कृति में रच-बस गए थे, उनको भी यहां का मूल निवासी मानकर नीति तैयार करती; ना कि उन लोगों को जो राज्य गठन से महज़ तीन-चार वर्ष पूर्व केंद्र अथवा राज्य सरकारों के कर्मचारी के रूप में यहाँ आकर रह रहे हों या देहरादून- नैनीताल आदि की आबोहवा से प्रभावित होकर उन्होंने यहां अपने मकान बना लिए हों। क्योंकि ऐसी स्थिति में वह अपने गृह जनपद और उत्तराखंड दोनों के ही मूल निवासी बन सकते हैं।

राज्य बनने के बाद से दून के बरसाती नालों -खालो व नदियों के किनारे हजारों की संख्या में पक्के मकान बन गए। वोटो की गणित ने इन्हें बिजली-पानी के कनेक्शन, राशन कार्ड आदि भी उपलब्ध करवा दिए। इन इलाकों को मलिन-बस्ती के रूप में घोषित कर विकसित भी कर दिया गया। यह कौन लोग हैं ? कहां से आए ? क्या करते हैं ? किसी भी सरकार के पास यह सब जानने का समय ना तो कभी था और ना ही कभी होगा।

राज्य गठन से लेकर अब तक मूल निवास की मुद्दे पर उत्तराखंड आंदोलनकारी छात्रों व महिलाओं ने कई बार आंदोलन किया किंतु किसी भी राजनीतिक दल ने अभी तक बेरोजगारी से जुड़े इस ज्वलंत मुद्दे पर कोई भी नीतिगत निर्णय नहीं लिया। चाहे वह राष्ट्रीय दल हो या फिर अपने को पृथक राज्य का श्रेय देने वाला क्षेत्रीय दल।

प्रथम मनोनीत भाजपा सरकार ने तो राज्य गठन से पूर्व के तीन वर्षों (1998 1999 2000) को आधार बनाकर इस मुद्दे की इतिश्री कर ली, किंतु इस मुद्दे पर आंदोलन रहे आंदोलनकारी भी कभी किसी समय सीमा को तय करने की स्थिति में दिखाई नहीं दिए। वैसे पर्वतीय क्षेत्र के लोगों का मानना है की प्रकृति रूप से विषम भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले मनुष्य रूपी “जीव” जिसने जीवन की मौलिक सुविधाओं जिसमें स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली, पानी आदि की सुचारू व्यवस्था के सपने संजोकर इस राज्य के निर्माण में अपनी आवाज बुलंद करने वाले उसे मूल निवासी का आज भी अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो उसकी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति उत्तर प्रदेश अथवा अन्य राज्यों के पिछड़ों की अपेक्षा से भी ज्यादा बदतर है। आज भी सुदूर प्रवृत्ति पर्वतीय क्षेत्रों में रह रहे उसे मूल निवासी को राजधानी के तथाकथित मूल निवासी उपेक्षित ही मानते हैं। यह इस प्रदेश का दुर्भाग्य ही है कि 23 साल बाद भी सुदूर पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के साथ सरकार कोई भी सकारात्मक रूप नहीं अपना सकी।

राजनीतिक विशेषज्ञों का तो यहां तक मानना है कि सरकार जानबूझकर ऐसा माहौल बना रही है जिससे महसूस हो कि वह राज्य के मूल निवासियों के विषय में चिंतित जरूर है, किंतु कुछ करने में अक्षम है। इस तरह से उन लोगों का जिसका कि राज्य से कुछ भी लेना-देना नहीं रहा है को सीधे-सीधे लाभ पहुंचाने का कार्य कर रही है। राज्य आंदोलनकारी, बेरोजग़ार संगठन सरकार की नीतियों के खिलाफ धरना प्रदर्शन कर सकते हैं और वह ऐसा कर भी रहे हैं, लेकिन पृथक-पृथक होकर।

अब सरकार को देखना चाहिए कि आर्थिक एवं सामाजिक रूप से पिछड़े समाज को कैसे आगे बढ़ाया जाए। अभी भी वक्त है कि कोई भी रोजगार देने से पहले मूल-निवास के संबंध में ऐसी नीति तय करें जो राज्य की मूल भावना के अनुरूप हो। मूल निवासियों के हितों का संरक्षण इस राज्य के उज्जवल भविष्य पर खुशहाली से जुड़ा प्रश्न है, ऐसे में सरकार को पारदर्शिता अपनानी ही होगी। शिक्षा का क्षेत्र हो या फिर नौकरियों में आवेदन करने का सवाल, सिर्फ मूल निवास प्रमाण पत्र को ही वैध ठहराया जाना चाहिए। अन्यथा यक़ीन मानिये अगले परिसीमन के बाद होने वाले चुनाव के बाद तो शायद … तुम्हारी दास्ताँ भी न रहेगी दस्तानों में !

अम्बुज शर्मा