देहरादून, 27 फरवरी : उत्तराखंड में 10 मार्च को चुनाव परिणाम सामने आने के बाद नई सरकार के गठन का रास्ता साफ हो जाएगा। किस दल की सरकार बनेगी, इसे लेकर भी इंतजार खत्म होगा। सत्ता पर बैठने जा रहे दल के लिए उसके घोषणापत्र को लागू करना स्वाभाविक रूप से सबसे बड़ी प्राथमिकता होगी। मतदाताओं को लुभाने के लिए रचे गए गुलाबी वायदों के मायाजाल पर क्रियान्वयन काफी मुश्किल होगा। विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले प्रदेश में वार्षिक बजट का 15 प्रतिशत भी जब विकास व निर्माण कार्यों के लिए रखना मुश्किल हो तो लोक लुभावन घोषणाओं को जमीन पर उतारने में पसीना छूटना तय है। जनमानस की अपेक्षा लोक-लुभावन से ज्यादा लोक कल्याण कार्यों की है। बिजली, पानी, स्वास्थ्य, साफ-सफाई समेत तमाम जन सेवाओं की बेहतर और सुचारू उपलब्धता के रूप में उसे सुकून चाहिए। सड़कें, ढांचागत विकास, रोजगार व आजीविका के साधनों के तेजी से विस्तार के साथ गुणवत्तापरक रहन-सहन आम जन की अपेक्षाओं के केंद्र में है। नई सरकार को अगले पांच साल जनाकांक्षाओं के इसी पहाड़ से जूझते हुए खुशहाली की नई राह तैयार करनी है। प्रदेश का अधिकतर भू-भाग पर्वतीय है। छोटा राज्य होने के बावजूद इस भू-भाग में ढांचागत विकास बड़ी चुनौती है। पहाड़ से होते पलायन को लेकर पहाड़ में एक कहावत प्रचलित है कि पहाड़ का पानी और पहाड़ की जवानी पहाड़ के काम नहीं आती। दरअसल पहाड़ों में स्वरोजगार के संसाधन बेहद ही कम हैं, इसलिए रोजगार के लिए पहाड़ के युवा शहरों की ओर बढ़ रहे हैं।दरअसल, पहाड़ों में स्वरोजगार को रोकने के लिए लघु एवं कुटीर उद्योग को संजीवनी देने की जरूरत है, जिससे पहाड़ों में दम तोड़ते लघु एवं कुटीर उद्योग का पहिया भी गति पकड़ सके।

आने वाली सरकार से पहाड़ के छोटे मझोले उद्यमियों की बड़ी अपेक्षाएं हैं। भेड़ की ऊन लघु कुटीर उद्योग, रिगाल, डेरी , खाद्य एवं फल प्रसंस्करण के से अधिक लघु कुटीर उद्योग हैं। लेकिन, इन्हें अपेक्षित सरकारी सहयोग न मिलने के कारण पहाड़ में इन लघु उद्योगों को मुकाम नहीं मिल सका है। भले ही इन उद्योगों से जुडे़ व्यवसायी और ग्रामीण किसी तरह से अपनी आजीविका चला रहे हैं लेकिन, भेड़ पालन के प्रोत्साहित न होने और ऊन के उत्पादों का सही बाजार न मिलने के कारण यह उद्योग दम तोड़ने की कगार पर है। स्थिति यह है कि अगर लघु उद्यमी अपने उद्योग को बढ़ाने के लिए 50 हजार रुपये के ऋण स्वीकृत करने में बैंक कई महीने लगा दे रहे हैं। सरकार से ये चाहते हैं कि प्रोपर्टी के आधार पर उद्यमियों को पांच लाख रुपये तक ऋण दिया जाना चाहिए खाद्य एवं फल प्रसंस्करण और रिगाल जैसे लघु उद्योग के लिए भी पहाड़ में बाजार उपलब्ध नहीं। सरकार अगर देश के विभिन्न हिस्सों में अपने स्टोर खोले तथा उन स्टोर पर पहाड़ों में तैयार उत्पाद बिक्री के लिए रखे जाएं तो बाजार की परेशानी कुछ हद तक दूर होगी। इसके अलावा लघु एवं कुटीर उद्योग को संचालित करने वालों को प्रोत्साहित करने की भी जरूरत है, जिससे बाजार में पहाड़ी उत्पाद को अच्छी पहचान मिल सके।

युवा उद्यमी अपने उद्योग को अभी तक की सरकारों ने लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए कोई खास पहल नहीं की है पर अब जो भी सरकार आए उससे यही अपेक्षा है कि उत्तराखंड राज्य के पहाड़ों और पहाड़ियों को गंभीरता से लें। पहाड़ों में संचालित योजनाओं के संचालन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। पहाड़ों में भूमाफिया और खनन माफियाओं पर सख्ती बरती जाए। इन अपेक्षाओं पर सरकार खरी उतर जाए तो काफी है। अगर इन पर खरी नहीं उतरी तो बाकी अपेक्षा करना बेकार है। उत्तराखंड प्रदेश में आने वाली सरकार ऐसी होनी चाहिए जो छोटे व्यापारियों के हितों का ध्यान रखें। व्यापारियों को बैंक से ऋण कम ब्याज पर मुहैया कराएं। क्षेत्र में लघु उद्योग के विकास के लिए विशेष ध्यान रखें। इसके अलावा टैक्स व जीएसटी में छूट रखे। जाहिर सी बात है यदि पहाड़ में रोजगार के साधन और जीवन जीने के साधन उपलब्ध हो तो ,भले ही पलायन कर लोग गांव नहीं छोड़ते, इससे पलायन कर दर्द कुछ कम रहता।

दरअसल आज जरूरत है पहाड़ में कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की, क्योंकि पहाड़ में बड़े उद्योग नहीं किए जा सकते भौगोलिक परिस्थिति के चलते वहां पर छोटे-छोटे उद्योग लगाए जाने चाहिए, जिनसे दो -चार लोग जुड़े हो मध्यम उद्योगों की भी कुछ जगह पर लिया जा सकता है।कुछ जगह पर यह चल भी रहे हैं साथ ही पशुपालन और कृषि को आधुनिक तरीके से अपनाए जाने की जरूरत है क्योंकि पारंपरिक तरीकों से मेहनत भी अधिक और परिणाम नहीं आते और जरूरत के हिसाब से खेती होनी चाहिए, ताकि किसान की उपज को समय पर बाजार तक पहुंचाया जाए। साथ ही फसल क्षेत्र के जलवायु के हिसाब से बेहतर हो। इसी तरह से यह रोजगार के बारे में योजनाएं सुनिश्चित की जानी चाहिए। इससे बहुत अधिक ना सही, लेकिन कुछ ना कुछ जरूर रुकेगा उत्तराखंड का 21 साल का सफर यह साबित कर रहा है कि प्रदेश में कुटीर उद्योगों की संख्या में इजाफा तो हुआ है लेकिन ये उद्योग गांवों और घरों की देहरी को लांघ कर शहरों में पाले और पौसे जा रहे हैं। पहाड़ों में इनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है, जबकि मैदानी जिलों में छोटे-छोटे उद्योग धंधे पनप रहे हैं।

उद्योग निदेशालय के मुताबिक वर्ष 2000 में प्रदेश में लघु स्तरीय उद्योगों की संख्या 14163 थी। जिनसे 38509 लोग रोजगार पा रहे थे। इन कुटीर और लघु उद्योगों में कुल पूंजी निवेश करीब 700 करोड़ रुपये था। राज्य गठन के 19 साल बाद इस तस्वीर में बहुत बदलाव आया। प्रदेश में इस समय कुटीर और लघु उद्योगों की संख्या करीब 60 हजार तक पहुंच गई है। करीब तीन लाख रोजगार ये सेक्टर दे रहा है। पूंजी निवेश भी करीब 15 हजार करोड़ तक पहुंच गया है।
आंकड़ों में मजबूूत लग रही यह तस्वीर जमीन पर कुछ और ही है। हालत ये है कि अधिकतर निवेश और रोजगार मैदानी जनपदों में सिमटा हुआ है। देहरादून में ही इन उद्योगों की संख्या 8392 है और पूंजी निवेश 1214 करोड़ रुपये है। इसके उलट बागेश्वर में कुल 1742 कुटीर और छोटे उद्योग हैं, जिनमें पूंजी निवेश मात्र 55 करोड़ का है। रुद्रप्रयाग में कुल 1866 उद्योगों में 96 करोड़ का निवेश है।

किसी समय उत्तराखंड मनी-आर्डर इकोनामी के नाम से जाना जाता था, लेकिन हर गांव की पहचान एक घराट जरूर हुआ करता था। हर गांव में दर्जी से लेकर और दूसरे काम करने वाले लोग मौजूद रहते थे। घराट से अनाज पीसा जाता था और आपस के लेन देन में गांव की अर्थव्यवस्था चलती थी। गांव का युवा खेत में जुटता था और बाहर नहीं जाता था। राज्य गठन के बाद से ही सड़कें गांव तक पहुंची। बिजली आई, घराट टूटे, चक्कियां पनपी लेकिन गांव का युवा घर छोड़ मैदान की फैक्ट्रियों, होटलों की तरफ मुड़ गया। गांव के कुटीर उद्योग ठप हो कर रह गए। पहाड़ों में रिंगाल, बांस, जूट, शाल, ऐपण, कार्पेट से संबंधित हस्तशिल्प, हैंडलूम, काष्ठ कला, कृषि, बागवानी व पशुपालन आधारित कुटीर उद्योग की तरक्की नहीं हुई है। यही वजह है कि पहाड़ों में रोजगार का विकल्प न होने के कारण पलायन से गांव खाली हो रहे हैं। इन कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देने में सरकार ने रुचि नहीं दिखाई। नई सरकार इस समस्या का समाधान कर आम जन के साथ ही जन प्रतिनिधियों को राहत देगी, 14 फरवरी को मतदाता नई उम्मीदों के साथ अपना निर्णय सुना चुके हैं। राजनीतिक दलों और नई सरकार का भविष्य ईवीएम में बंद है। चंद दिनों बाद ही जनता का निर्णय सामने आ जाएगा। इसकी प्रतीक्षा की जा रही है।


डॉ० हरीश चन्द्र अन्डोला (लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।)

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