केंद्रीय वित्त मंत्री अपने पूरे बजट भाषण में ‘सार्वजनिक शिक्षा’ शब्द का उल्लेख करना तक भूल जाती हैं…!! केंद्र सरकार ने ’सभी के लिए शिक्षा’ सुनिश्चित करने की सरकार जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया है : एस एफ़ आई
देहरादून, 2 फरवरी : 2023 के केंद्रीय बजट ने शिक्षा क्षेत्र की सारी हालिया मांगों को नज़रंदाज़ कर दिया है। बजट में किसी भी तरह की ठोस घोषणा नहीं की गई है जो सार्वजनिक शिक्षा के लिए जरा सी भी उम्मीद जगा सके। वित्त मंत्री के पूरे बजट भाषण में “सार्वजनिक शिक्षा” का एक बार भी ज़िक्र नहीं किया गया है। शिक्षा व्यवस्था को इस कदर नज़रंदाज़ किया जाना चिंता का विषय है। बजट के पूरे भाषण सुन के यही लगता है कि शिक्षा अब सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं रह गई है।
शिक्षा पर खर्च होने वाले बजट के हिस्से से में 2022-23 के मुकाबले इस वर्ष गिरावट आई है। पिछले वर्ष शिक्षा पर खर्च होने वाला यह हिस्सा कुल बजट का 2.64% था जो इस वर्ष 2.50% है। इसके साथ ही साथ यह बजट शिक्षा पर जीडीपी के 3% खर्च को भी सुनिश्चित न कर सका है। वहीं नई शिक्षा नीति (एनईपी) में यह 6% खर्च करने का प्रावधान है। राष्ट्रीय शिक्षा मिशन के आवंटित बजट में 600 करोड़ की कमी कर दी गई है। शिक्षा सशक्तिकरण के लिए वितरित किए जाने वाले बजट में से भी 826 करोड़ घटा दिया गया है।
एकलव्य मॉडल के विद्यालयों में अध्यापकों के नियुक्ति की घोषणा तो जोर शोर से की गई है। सरकारी आंकड़े दिखाते हैं कि विशेष रूप से जनजातीय आबादी वाले जिलों के केवल 3.4% विद्यालयों में ही इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित सुविधाएं (आईसीटी) हैं। इसका अर्थ यह है कि ‘डिजिटल इण्डिया’ की मुनादी करने वाले देश में इन जिलों के विद्यार्थी शिक्षा सुविधाओं के मामले में बहुत पिछड़े हुए हैं। कई सारे एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय खराब हालत और इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं। बजट में इन चिंताओं पर कोई बात ही नहीं की गई है।
मोदी राज में कई सारी फेलोशिपस या तो खत्म कर दी गई हैं या तो बुरी तरह घाटा दी गई हैं। इसमें अल्पसंख्यक समुदाय के विद्यार्थियों के लिए दी जाने वाली मौलाना अबुल कलाम आजाद फेलोशिप और अनुसूचित जाति/जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग के विद्यार्थियों की छात्रवृत्तियां शामिल हैं। पहले वादे किए गए कि फेलोशिप बढ़ाई जाएगी। लेकिन बजट में नई छात्रवृत्तियों के लिए कोई बजट नहीं आवंटित किया गया है ना ही पिछले वर्षों में की गई कटौती की भरपाई करने के लिए कोई बजट आवंटित किया गया है।
उच्च शिक्षा के अखिल भारतीय सर्वेक्षण (AISHE-2020-21) के आंकड़े दिखाते हैं कि पिछले वर्ष में अनुसूचित जातियों का अनुपात 14.7% से गिर कर 14.2% हो गया है। ओबीसी विद्यार्थियों का अनुपात 37 प्रतिशत रह गया है, और मुस्लिम विद्यार्थी 5.5% से घट कर 4.6 प्रतिशत रह गए हैं। विकलांग विद्यार्थियों की संख्या भी 92,831 से घट कर79035 हो गई है। विद्यार्थियों के अनुपात में इस तरह की सारी असंगतियां पिछले वर्षों की केंद्र सरकारी की विद्यार्थी विरोधी नीतियों का परिणाम हैं जो साल दर साल गहराती गई हैं। यह शिक्षा क्षेत्र में अंधाधुंध तरीके से थोपी जा रही नव उदारवादी नीतियों का भी परिणाम है जिससे शिक्षा का निजीकरण बढ़ा है हाशिए के तबकों से आने वाले विद्यार्थियों को धकेल कर बाहर कर दिया गया है।
पहली कक्षा में दाखिला लेने वाले लगभग आधे विद्यार्थी दसवीं के बाद तक तो पहले से ही पढ़ाई छोड़ने पर मजबूर हैं। उच्चतर माध्यमिक की परीक्षा पास कर के उच्च शिक्षा के में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों की संख्या अभी भी 30% से कम है। उच्च शिक्षा, नए कॉलेजों और विश्वविद्यालयों, वंचित तबकों के लिए सभी क्षेत्रों में और पर्याप्त सपोर्ट सिस्टम वाले सरकारी स्कूलों तथा इनके साथ फेलोशिप, मुफ्त स्टडी मैटेरियल, छात्रावास, उचित मध्यान्ह भोजन इत्यादि सुनिश्चित करने के लिए हमें बजट बढ़ाने की जरूरत है। इसमें से किसी भी चीज के लिए केंद्रीय बजट में कोई जगह नहीं है। शिक्षा विरोधी इस केंद्रीय बजट का एसएफआई मुखर विरोध करती है।